पीओके की आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि इसे भारत में शामिल करना देश की अर्थव्यवस्था पर एक भारी-भरकम बोझ डाल देगा। पीओके की अर्थव्यवस्था पूरी तरह पाकिस्तान पर निर्भर है। वहाँ की जीडीपी प्रति व्यक्ति मात्र 1,200 डॉलर के आसपास है, जो भारत के राष्ट्रीय औसत (2,500 डॉलर) से भी कम है। भारत का अपना जम्मू-कश्मीर (जेएंडके) ही आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर नहीं है। 2024-25 के केंद्रीय बजट में जेएंडके के लिए 40,000 करोड़ रुपये का विशेष पैकेज आवंटित किया गया, जो मुख्य रूप से सुरक्षा और बुनियादी ढांचे पर खर्च होता है। यह भारत की जनता के कर से चल रहा है। पीओके को जोड़ने पर यह बोझ दोगुना हो जाएगा। अनुमानित रूप से, पीओके के 55-60 लाख निवासियों के लिए बुनियादी सुविधाओं पर प्रारंभिक निवेश ही 50,000 करोड़ रुपयए से अधिक का होगा। भारत, जो खुद वैश्विक मंदी और महंगाई से जूझ रहा है, इस क्षेत्र को संभालने में असमर्थ साबित होगा। राष्ट्रीय स्तर पर यह असमानता को भी बढ़ावा देगा, जहां दक्षिण भारत जैसे समृद्ध राज्य असंतुष्ट हो सकते हैं। इसलिए, पीओके को लेना न केवल आर्थिक आत्महत्या होगी, बल्कि राष्ट्रीय एकता को भी कमजोर करेगा।
आर्थिक पहलू के अलावा पीओके की जनसांख्यिकीय संरचना भारत के लिए सबसे बड़ा जोखिम है। 2017 की पाकिस्तानी जनगणना के अनुसार, पीओके की जनसंख्या लगभग 55 - 60लाख है। इनमें से 99 प्रतिशत से अधिक मुस्लिम हैं, जिसमें पश्तून, बाल्टी और कश्मीरी समुदाय प्रमुख हैं। भारत पहले से ही कट्टरपंथी ताकतों से जूझ रहा है—नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) और धारा 370 हटाने के बाद साम्प्रदायिक तनाव भी बरकरार हैं। पीओके के निवासियों को भारतीय नागरिकता देने पर वे सीमित संसाधनों वाले जेएंडके से बाहर निकलकर भारत के विभिन्न शहरों में फैल जाएंगे। इससे शहरी डेमोग्राफिक बैलेंस बिगड़ जाएगा और वहाँ साम्प्रदायिक समस्याएं बढ़ेंगी, जैसा कि 1990 के कश्मीरी पंडित विस्थापन से स्पष्ट है। पीओके में पाकिस्तानी सेना का प्रभाव गहरा है, जो कट्टरवाद को बढ़ावा देता रहा है। भारत में विलय के बाद ये समूह कट्टरपंथी राष्ट्र विरोधी संगठनों से जुड़ सकते हैं, जिससे आंतरिक सुरक्षा चुनौतियां बढ़ेंगी। यह न केवल हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को तेज करेगा, बल्कि क्षेत्रीय असंतुलन को भी जन्म देगा। जनसांख्यिकीय विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसी स्थिति में भारत का जनसंख्या संतुलन 20 वर्षों में 15 प्रतिशत तक बदल सकता है, जो भविष्य में राजनीतिक अस्थिरता और राष्ट्रीय एकता पर संकट का कारण बनेगा। पीओके के भारत मे विलय से सैन्य और सुरक्षा जोखिम भी कम नहीं होंगे। पीओके क्षेत्र ऊबड़-खाबड़ और अशांत पहाड़ी इलाका है। इसका भूभाग अपनी दुर्गम भौगोलिक स्थिति और वर्तमान भू-राजनीतिक हालात के कारण एक गंभीर सुरक्षा चुनौती बना रहेगा। इस क्षेत्र को स्थिर रखने के लिए एक स्थायी और विशाल सुरक्षा तंत्र की आवश्यकता होगी। सैन्य विशेषज्ञों के अनुसार, पीओके को नियंत्रित करने के लिए भारत को अतिरिक्त एक लाख सैनिक तैनात करने पड़ेंगे, जिसका वार्षिक खर्च 30,000 करोड़ रुपए से अधिक होगा। वर्तमान में, भारत की सेना पहले से ही नियंत्रण रेखा पर तीन लाख सैनिकों के साथ व्यस्त है, और पीओके लेने पर यह एक अंतहीन आतंकवाद और युद्धक्षेत्र बन जाएगा।
पाकिस्तान की सेना ने हाल ही सर क्रीक क्षेत्र में सैन्य निर्माण बढ़ाया है,जो पीओके से जुड़ा है। भारत मे विलय के बाद सभी पाकिस्तानी उग्रवादी समूह तिलमिला कर सक्रिय हो जाएंगे, जिससे गुरिल्ला युद्ध की स्थिति बनेगी। बढ़ा हुआ सैन्य बोझ न केवल बजट को प्रभावित करेगा, बल्कि मानवीय हानि भी बढ़ाएगा। भारत की सैन्य क्षमता को फैलाने से पूर्वी लद्दाख (चीन सीमा) पर ध्यान कम होगा, जो राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए घातक होगा। यह मानने का भी कोई कारण नहीं है कि पीओके की आबादी का एक हिस्सा विलय का विरोध नहीं करेगा। भारतीय सेना और अर्ध-सैन्य बलों को न केवल बाहरी घुसपैठ, बल्कि एक नए आंतरिक विद्रोह का सामना करना पड़ सकता है। पीओके को लेने का सबसे बड़ा जोखिम भू-राजनीतिक है। यह क्षेत्र चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) का केंद्र है, जो ग्वादर बंदरगाह से गिलगित तक फैला है। चीन ने यहां 60 बिलियन डॉलर निवेश किया है, और भारत का हस्तक्षेप बीजिंग को उकसाएगा। पीओके लेने के लिए भारत की सैन्य कार्रवाई को अंतरराष्ट्रीय समुदाय आक्रामकता मानेगा। भारत की वर्तमान वैश्विक छवि—जो जी-20 और क्वाड से मजबूत हुई है—को ठेस पहुंचेगी। ज़ाहिर है, पीओके को वापस लेना भावुकता से प्रेरित है। पीओके का विलय केवल एक क्षेत्रीय विस्तार का मामला नहीं है, बल्कि यह भारत के लिए आर्थिक, सामाजिक और सुरक्षा संबंधी गंभीर जोखिमों से भरा एक जटिल मुद्दा है। इस कदम से देश की अर्थव्यवस्था पर एक नया, लंबे समय तक रहने वाला बोझ पड़ सकता है और देश की सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक,रणनीतिक रूप से भी व्यावहारिक नहीं लगता।
हरीश शिवनानी
(स्वतंत्र पत्रकारिता-लेखन)
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