ममता की बातों में बेबसी के साथ-साथ एक उम्मीद भी झलकती है। वह चाहती है कि उसके गांव में सफाई की गाड़ी नियमित रूप से आए, लोग कूड़ा खुले में न फेंकें और गांव का माहौल फिर से ताज़गी भरा बने। उसकी दोस्त निधि कहती है कि "सफाई की गाड़ी आने के बावजूद कई लोग घर का कचरा खुले में फेंक देते हैं। कुछ लोग तो गाड़ी आने का इंतज़ार करते हैं, लेकिन बहुतों को लगता है कि सफाई सिर्फ सरकार का काम है। वे खुद इसकी जिम्मेदारी नहीं लेते।" निधि के शब्द एक गहरी सच्चाई बताते हैं कि सफाई सिर्फ व्यवस्था का नहीं, बल्कि व्यवहार का भी सवाल है। जब तक लोगों के मन में यह भावना नहीं आएगी कि सफाई उनकी खुद की जिम्मेदारी है, तब तक कोई भी अभियान अधूरा रहेगा। दूसरी ओर, कालू गांव की सरिता एक अलग पहल की बात करती है। वह बताती है, “हमारे यहां कुछ लोग अपने घरों का जैविक कचरा खेतों में दबा देते हैं, जिससे वह खाद बन जाता है।” यह तरीका पर्यावरण के अनुकूल है, लेकिन प्लास्टिक जैसी चीज़ें इस प्रक्रिया में बाधा बनती हैं। “लोग प्लास्टिक को खेतों में फेंक देते हैं, जो मिट्टी की उर्वरा शक्ति कम कर देता है,” सरिता समझाती है। उसकी बात से साफ है कि सफाई के लिए सिर्फ मेहनत नहीं, बल्कि समझदारी की भी ज़रूरत है। वहीं, दुलमेरा गांव की सामाजिक कार्यकर्ता हीरा शर्मा बताती हैं कि गांव के युवाओं ने स्वच्छता बनाए रखने के लिए एक शानदार पहल की है। उन्होंने एक टोली बनाई है जो हर सप्ताह गांव में स्वच्छता अभियान चलाती है। वह गांव में जाकर लोगों को बताते हैं कि सफाई सिर्फ एक दिन की चीज़ नहीं है। यह तो हमारी आदत का हिस्सा बननी चाहिए,” टोली यह सुनिश्चित करती है कि गांव में कूड़ा उठाने की गाड़ी समय पर घूमे और लोग खुले में कचरा न फेंकें। वह कहती हैं कि जब तक गांव का हर व्यक्ति खुद को जिम्मेदार नहीं समझेगा, तब तक सफाई का सपना अधूरा रहेगा।
नाथवाना की यह कहानी एक सच्चाई उजागर करती है कि स्वच्छ भारत अभियान की असली सफलता गांवों की गलियों में छिपी है। जरूरत है उसे उभारने की। लेकिन इस बदलाव के लिए सिर्फ योजनाएं काफी नहीं होती है, बल्कि इसके लिए लोगों की जागरूकता भी उतनी ही जरूरी है। ममता, निधि और सरिता जैसी युवा किशोरियों की सोच बताती है कि नई पीढ़ी इस बदलाव की अगुवाई करने के लिए तैयार है। उन्हें बस सही दिशा और समर्थन की जरूरत है। यह सच है कि स्वच्छ भारत अभियान ने लाखों लोगों को खुले में शौच से मुक्ति दिलाई है, लेकिन सफाई का असली अर्थ सिर्फ शौचालय बनाना भर नहीं होता है। यह तो जीवनशैली में स्वच्छता को अपनाने का नाम है। जैसे हर घर में कूड़े को अलग-अलग डिब्बों में रखना, प्लास्टिक का कम इस्तेमाल करना, पानी को बर्बाद न करना और सार्वजनिक स्थानों को साफ रखना। आज नाथवाना जैसे गांव एक नए मोड़ पर खड़े हैं जहां उन्हें चुनना है कि वे सफाई को एक सरकारी योजना समझकर छोड़ दें या इसे अपनी जिम्मेदारी बनाकर अपनाएँ। एक तरफ पुरानी आदतें हैं, जो बदलाव से डरती हैं। दूसरी ओर नई सोच है, जो कहती है कि अगर हर व्यक्ति अपने आस-पास सफाई रखे तो पूरा देश चमक सकता है।
भारत की पहचान सिर्फ इंदौर जैसे साफ शहरों से नहीं बनेगी, बल्कि नाथवाना जैसे गांवों की सफाई से भी बनेगी। क्योंकि गांव ही भारत की आत्मा हैं। जब ये गांव चमकेंगे, तभी सच्चे अर्थों में स्वच्छ भारत का सपना पूरा होगा। अंत में सवाल यह नहीं कि सरकार क्या कर रही है?, बल्कि यह कि हम क्या कर रहे हैं? क्या हम अपने घर के बाहर पड़े कचरे को देखकर भी अनदेखा कर देते हैं? क्या हम अपने बच्चों को सिखा रहे हैं कि सफाई सिर्फ एक आदत नहीं, बल्कि एक संस्कार है? अगर हर व्यक्ति यह सोच ले कि “मेरे गांव की सफाई मेरी जिम्मेदारी है,” तो नाथवाना जैसे गांव न सिर्फ बीमारियों से मुक्त होंगे, बल्कि आत्मनिर्भर भी बनेंगे। मिट्टी, पानी और हवा की शुद्धता सिर्फ प्रकृति की नहीं, बल्कि हमारी ज़िम्मेदारी है। यही वह कड़ी है जो हमें स्वस्थ, सुंदर और सशक्त जीवन की ओर ले जाती है। स्वच्छ भारत का असली जश्न तब होगा, जब देश का हर गांव शुद्ध वातावरण से महक उठेगा।
लूणकरणसर, राजस्थान
गाँव की आवाज़
(यह लेखिका के निजी विचार हैं)


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