जब तक कहीं भी असत्य, अन्याय या असमानता रूपी अंधेरा है, तब तक हमें अपने भीतर की ज्योति प्रज्ज्वलित करते रहना होगा। दीपावली केवल त्योहार नहीं, यह सतत आत्मजागरण की यात्रा है। दीपावली केवल बाहर के घरों को नहीं, बल्कि भीतर की आत्मा को आलोकित करती है। यह हमें याद दिलाती है कि हर व्यक्ति के भीतर एक रावण है, अहंकार, क्रोध और अज्ञान का प्रतीक, जिसे जलाना आवश्यक है। दीयों की यह श्रृंखला केवल मिट्टी के दीपक नहीं, बल्कि उम्मीदों के उजाले हैं, जो हर बार जीवन को यह विश्वास दिलाते हैं, अंधकार चाहे जितना भी गहरा क्यों न हो, एक दीपक पर्याप्त है उसे मिटाने के लिए। या यूं कहे हर दीप एक संकल्प है, तमस से ज्योति की ओर बढ़ने का। तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात् अंधकार से प्रकाश की ओर, अविद्या से ज्ञान की ओर, और अन्याय से न्याय की ओर यात्रा। यह केवल भारतीय संस्कृति का नहीं, बल्कि मानव सभ्यता का उत्सव है, जहां मनुष्य अपने भीतर की सीमाओं को लांघ कर उजास की तलाश करता है. दीपावली हर वर्ष हमें यही स्मरण कराती है कि जब तक मनुष्य के भीतर अंधेरा है, तब तक उसे दीप जलाते रहना होगा, क्योंकि दीप केवल घर को नहीं, चेतना को भी प्रकाशित करता है
ज्ञान का उत्सव मनाने का समय
आज भारत नॉलेज इकोनॉमी की बात करता है, परंतु ज्ञान का अर्थ केवल जानकारी या नौकरी का साधन नहीं है। प्राचीन भारत में ज्ञान का अर्थ था, विवेक, संवेदना और आत्मबोध। इस दीपावली, हमें सरस्वती के आशीर्वाद से लक्ष्मी को बुलाने की भावना को फिर से जीवित करना होगा। तभी समाज में धन भी पुण्य बनेगा, और समृद्धि भी संतुलन का प्रतीक।
स्वच्छता और संवेदना का दीपोत्सव
दीपावली से पहले घरों की सफाई केवल दिखावे के लिए नहीं की जाती; यह प्रतीक है मन और परिवेश को निर्मल करने का। मगर विडंबना है कि हम घर तो सजाते हैं, लेकिन समाज की गलियों में गंदगी फैला देते हैं। देवी लक्ष्मी को स्वच्छता प्रिय है, इसलिए यदि हम सच में उनका स्वागत करना चाहते हैं, तो अपने घर के बाहर की दुनिया को भी स्वच्छ रखना होगा, शारीरिक, मानसिक और सामाजिक रूप से।
सच के साथ होती है लक्ष्मी
पौराणिक कथाएं हमें बताती हैं कि लक्ष्मी केवल वहीं टिकती हैं जहां धर्म और सत्य का वास हो। रावण की लंका सोने की थी, पर वह विनाश का प्रतीक बनी। जबकि राम की अयोध्या, मर्यादा और धर्म का प्रतीक बनकर आज भी स्मरणीय है। लक्ष्मी कभी स्थायी नहीं रहतीं, वह परीक्षा लेती हैं कि हम धन के दास हैं या उपयोगकर्ता। जब धन का उपयोग समाज के कल्याण में होता है, तब ही वह लक्ष्मी बनता है, अन्यथा वह अलक्ष्मी के रूप में अभिशाप साबित होती है।
उजाले की ओर बढ़ने का संकल्प
दीपावली हमें हर वर्ष यह याद दिलाने आती है कि जो नया सृजन करता है, उसे अंधकार कभी दबा नहीं सकता। उजाला अंततः विजय पाता है। इसलिए, इस दीपावली अपने घर के साथ-साथ अपने अंतर्मन की मुंडेर पर भी दीप जलाइए, सत्य का, दया का, क्षमा का और विवेक का। आपका एक दीप किसी और के अंधकार को मिटा सकता है। यही दीवाली का सार है, अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए भी उजाला करना।महालक्ष्मी : संपन्नता, सौंदर्य और सौभाग्य की अधिष्ठात्री
दीपावली का मूल तत्व महालक्ष्मी की आराधना में निहित है। वे दैहिक, दैविक, भौतिक, सभी प्रकार की संपत्तियों की अधिष्ठात्री हैं। शास्त्रों में कहा गया है कि इस दिन विधिपूर्वक किया गया लक्ष्मी पूजन व्यक्ति को न केवल भौतिक समृद्धि देता है, बल्कि उसके जीवन से आर्थिक संकटों को दूर करता है। परंतु लक्ष्मी का आगमन केवल धन से नहीं होता, ज्ञान, बुद्धि और विवेक के साथ ही उनका वास संभव है। यही कारण है कि लक्ष्मी पूजन के साथ भगवान गणेश और मां सरस्वती की उपासना अनिवार्य मानी गई है।
‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’
उपनिषदों का यह मंत्र दीपावली का सार है, अंधेरे से प्रकाश की ओर चलो। यह प्रकाश बाहरी दीपों से कहीं गहरा है. यह उस चेतना का दीप है जो भीतर जलता है। जब भीतर का दीप जलता है, तब बाहर का अंधकार स्वतः मिट जाता है। यही दीपावली का रहस्य है, आत्मा का आलोक।
धनतेरस से भाई दूज तक : आनंद की श्रृंखला
दीपावली उत्सव एक श्रृंखला की तरह है जो धनतेरस से प्रारंभ होकर भाई दूज पर पूर्ण होती है। धनतेरस पर घर-घर में शुभ खरीदारी होती है, नरक चतुर्दशी बुराई के अंत का प्रतीक बनकर आती है, और दीपावली की अमावस्या का अंधकार दीपों की रोशनी में रूपांतरित होकर संदेश देता है कृ हर कालरात्रि के पार भी एक प्रभात है। गोवर्धन पूजा से लेकर भाई दूज तक यह पर्व केवल पूजा-पाठ का ही नहीं, बल्कि रिश्तों, प्रेम और आस्था के पुनर्जागरण का भी अवसर है।
आस्था का अनुशासन
दीपावली की रात्रि महानिशीथ कहलाती है। इस रात विधिपूर्वक लक्ष्मी, गणेश, सरस्वती और कुबेर का पूजन किया जाता है। ताम्बे के कलश में गंगाजल, दूध, दही, शहद और सिक्के रखकर लाल वस्त्र से आवृत किया जाता है। पंचमुखी दीपक प्रज्ज्वलित कर महालक्ष्मी का आवाहन किया जाता है। यह पूजन केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि आत्मशुद्धि का प्रतीक है, भीतर की दरिद्रता और अंधकार को मिटाकर समृद्धि का द्वार खोलने का प्रयास।
बहीखातों से कुबेर तक : समृद्धि का संकेत
व्यापारी वर्ग के लिए दीपावली विशेष महत्व रखती है। इस दिन नए बहीखातों, कंप्यूटरों और लेखा पुस्तकों का पूजन किया जाता है। यह केवल आर्थिक आरंभ नहीं, बल्कि “श्रीगणेशाय नमः” के साथ नए वर्ष की शुभ शुरुआत का प्रतीक है। कुबेर पूजन से धन की स्थायित्व की कामना की जाती है, जिससे घर और व्यापार दोनों में संपन्नता बनी रहे।
क्यों होती है आतिशबाजी?
दीपावली की रात अमावस्या की होती है। पुराणों में कहा गया है कि इस दिन पितरों की यात्रा आरंभ होती है, इसलिए आकाश में रोशनी कर मार्गदर्शन की परंपरा प्रचलित हुई। समय के साथ यह परंपरा आतिशबाजी के रूप में विकसित हुई, जो अब आनंद का प्रतीक बन चुकी है।
धन और बुद्धि का संतुलन
एक प्राचीन कथा के अनुसार एक राजा ने लकड़हारे को चंदन का जंगल उपहार में दिया, परंतु अज्ञानवश लकड़हारा उसे जलाने लगा। राजा ने समझाया, धन तभी फल देता है जब उसके साथ बुद्धि जुड़ी हो। यही कारण है कि लक्ष्मी के साथ गणेश की पूजा की जाती है ताकि धन के साथ उसे सदुपयोग करने की बुद्धि भी प्राप्त हो।
राम, कृष्ण और महावीर, तीनों में एक ही संदेश
दीपावली का धार्मिक इतिहास बहुरंगी है। रामायण के अनुसार, यह वह रात है जब 14 वर्ष का वनवास समाप्त कर श्रीराम अयोध्या लौटे थे, और अयोध्या दीपों की रोशनी से आलोकित हुई थी। श्रीमद्भागवत में भगवान कृष्ण ने इसी दिवस से पूर्व नरकासुर का वध कर पृथ्वी को आतंक से मुक्त किया था, यह बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है। और जैन धर्म के अनुसार, यही वह दिन है जब भगवान महावीर ने निर्वाण प्राप्त किया, अर्थात आत्मा ने पूर्ण प्रकाश का अनुभव किया। तीनों कथाओं में एक साझा सूत्र है, प्रकाश का प्रस्फुटन, अंधकार का अंत।मन के अंधकार से संघर्ष ही असली दीपावली
दीपावली हमें सिखाती है कि बाहरी अंधकार से अधिक भयानक वह अंधेरा है जो भीतर पनपता है, लोभ, ईर्ष्या, घृणा और असहिष्णुता का अंधेरा। जब तक हम इसे नहीं मिटाते, तब तक कोई रोशनी हमें प्रकाशित नहीं कर सकती। भारतीय दर्शन कहता है कि अंधकार अनादि है, पर उसे जीतने का संकल्प मानव के भीतर है। जब आदिमानव ने पहली बार तेल-बत्ती में अग्नि जलाई, तो उसने केवल रोशनी नहीं पैदा की, बल्कि संघर्ष की चेतना भी जगाई। उसी क्षण मानव सभ्यता ने अंधेरे से लोहा लेना सीखा।
राम की अयोध्या और मन की अयोध्या
श्रीराम की अयोध्या वापसी पर जो दीप जले थे, उन्होंने न केवल नगर को आलोकित किया, बल्कि मानव चेतना को भी। उन दीपों की लौ आज भी हमें स्मरण कराती है, अपने मन की लंका में बसे रावण को जलाकर वहाँ राम की अयोध्या बसाओ। जब तक असत्य, अन्याय या असमानता रूपी अंधकार रहेगा, तब तक दीप जलाते रहना होगा। यह दीप केवल तेल और बत्ती का नहीं, बल्कि संघर्ष और संकल्प का प्रतीक है।
राम का रूपांतरण और दीपावली का सच्चा अर्थ
दिवाली श्रीराम के लौटने का ही नहीं, बल्कि उनके रूपांतरण का पर्व भी है। यह उस क्षण का स्मरण है जब वनवासी राम राजा राम बने, मर्यादा और न्याय के प्रतीक। आज समाज को फिर ऐसे ही राम की आवश्यकता है, तपस्वी, स्त्री-रक्षक, समाज-संरक्षक राम की, न कि केवल मंदिरों में पूजित राजा राम की। दीपावली हमें बताती है कि अंधकार से लड़ाई उधार की रोशनियों से नहीं, बल्कि अपने अनुभव और तप की रोशनी से लड़ी जाती है।
पांच पर्वों में छिपा जीवन-दर्शन
दीपावली केवल एक दिन का नहीं, बल्कि पाँच पर्वों का उत्सव है, धानतेरस स्वास्थ्य और धन के संतुलन का प्रतीक है। नरक चतुर्दशी बुराई पर विजय का स्मरण कराती है। दीपावली लक्ष्मी, गणेश और सरस्वती की आराधना का दिन है, जहाँ ज्ञान, बुद्धि और संपन्नता का संगम होता है। गोवर्धन पूजा प्रकृति के संरक्षण का संदेश देती है। भाई दूज स्नेह और पारिवारिक प्रेम का प्रतीक है। ये पाँचों पर्व मिलकर मनुष्य के लौकिक जीवन पर अलौकिक आभा बिखेरते हैं। कहा जा सकता है दीपावली केवल घर सजाने और आतिशबाजी करने का नाम नहीं। यह आत्मसंस्कार और सह-अस्तित्व का पर्व है। यह हमें याद दिलाती है कि जब तक समाज में कोई वंचित या दुखी है, तब तक प्रकाश अधूरा है। दीपावली का सच्चा अर्थ तभी पूरा होगा जब हर झोपड़ी, हर द्वार, हर हृदय में दीप जल सके।
सुरेश गांधी
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी
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