अंजलि, जो इसी गाँव की रहने वाली हैं और इस समय कक्षा ग्यारह में पढ़ रही हैं, अपनी कहानी साझा करते हुए बताती हैं कि उसने दसवीं तक की पढ़ाई पोथिंग के इसी स्कूल से पूरी की थी। वह कहती हैं कि यह स्कूल उनके लिए सिर्फ़ पढ़ने की जगह नहीं था, बल्कि एक ऐसा माहौल था जहाँ अध्यापक और विद्यार्थी एक-दूसरे को समझते थे। लेकिन जैसे ही दसवीं से आगे विज्ञान पढ़ने की बात आई, तो उसे वह स्कूल छोड़ना पड़ा। अंजलि अकेली नहीं हैं। उनके साथ विज्ञान विषय चुनने वाली अन्य लड़कियों को भी दूसरे स्कूल में एडमिशन लेना पड़ा, क्योंकि इस इंटर कॉलेज में आगे विज्ञान की पढ़ाई का विकल्प नहीं था। ऐसे में लड़कियाँ, या तो दूर के स्कूलों में जाने को मजबूर होती हैं या फिर पढ़ाई वहीं रोक देती हैं। यूनिसेफ और शिक्षा मंत्रालय के अनुसार, ग्रामीण और पहाड़ी क्षेत्रों में माध्यमिक स्तर पर पहुँचते-पहुँचते लड़कियों की स्कूल छोड़ने की दर शहरी क्षेत्रों की तुलना में कहीं अधिक है। NFHS-5 के अनुसार उत्तराखंड में 10वीं के बाद लड़कियों की निरंतर शिक्षा में साफ़ गिरावट देखी जाती है, और इसके पीछे प्रमुख कारण दूरी, सुरक्षा और विषयों की सीमित उपलब्धता है। अंजलि बताती हैं कि उसे आगे पढ़ने के लिए कपकोट क्षेत्र के एक स्कूल में जाना पड़ता है, जो घर से काफ़ी दूर है। रोजाना सुबह जल्दी निकलना, पैदल लंबा सफर तय करना और शाम को देर से लौटना उनकी दिनचर्या बन गई। कई बार वाहन मिल जाता है, लेकिन कई बार नहीं। ऐसे में घर लौटते-लौटते अंधेरा हो जाता है।
पोथिंग गाँव में कई ऐसे माता-पिता हैं जो अपनी बेटियों को घर से दूर पढ़ने के लिए भेजने में हिचकिचाते हैं। इसका कारण केवल दूरी नहीं, बल्कि सुरक्षा की चिंता भी है। ऐसे में कई लड़कियाँ चाहकर भी आगे पढ़ाई नहीं कर पातीं हैं। अंजलि की दोस्त सोनम जोशी का उदाहरण इस सच्चाई को और गहराई से दिखाता है। सोनम विज्ञान विषय लेना चाहती थीं, लेकिन दूर स्कूल में जाने की अनुमति नहीं मिल सकी। नतीजा यह हुआ कि उनकी पढ़ाई रुक गई, और वे सपने, जो उसने अपने लिए देखे थे, अधूरे रह गए। यह स्थिति केवल व्यक्तिगत कहानियों तक सीमित नहीं है। यूडीआईएसई प्लस के हालिया आंकड़ों के अनुसार, उत्तराखंड के कई पहाड़ी जिलों में माध्यमिक स्तर पर स्कूलों में विषयों की उपलब्धता सीमित है। विज्ञान जैसे विषयों के लिए प्रयोगशाला, प्रशिक्षित शिक्षक और संसाधनों की आवश्यकता होती है, जो कई ग्रामीण विद्यालयों में नहीं हैं। इसी वजह से हर साल बड़ी संख्या में बच्चे या तो स्कूल बदलते हैं या पढ़ाई छोड़ देते हैं। इस इंटर कॉलेज के प्रिंसिपल विमल कुमार भी इस समस्या से भली-भांति परिचित हैं। वह बताते हैं कि इस स्कूल की स्थापना 8वीं तक हुई थी। 2004 में इसे 10वीं और 2017 में इंटर कॉलेज यानी 12वीं तक का दर्जा मिला। लेकिन दसवीं के बाद केवल आर्ट्स विषय पढ़ाने की अनुमति मिली। ऐसे में विज्ञान में रुचि रखने वाले बच्चों विशेषकर लड़कियों के लिए गांव से दूर जाकर पढ़ना मुश्किल हो जाता है। इस स्कूल में 60 लड़के और 69 लड़कियां पढ़ती हैं। जिनमें से कई बच्चों को केवल विज्ञान विषय नहीं होने के कारण स्कूल छोड़ना पड़ता है। इसका असर स्कूल की संख्या और भविष्य दोनों पर पड़ता है। वह कहते हैं कि यहां 10वीं से आगे विज्ञान विषय की पढ़ाई शुरू कराने के लिए संबंधित प्रस्ताव विभाग को भेज चुके हैं, लेकिन अब तक कोई ठोस कार्रवाई नहीं हुई है।
ग्राम प्रधान सरस्वती देवी भी इस समस्या को गंभीर मानती हैं। उनका कहना है कि विज्ञान विषय की सुविधा न होने के कारण उन्होंने अपनी बेटियों को भी गाँव के स्कूल में नहीं पढ़ाया। उनका साफ कहना है कि अगर यही स्थिति बनी रही, तो धीरे-धीरे गांव का स्कूल खाली होता जाएगा और एक दिन बंद होने की नौबत आ सकती है। आज का समय विज्ञान और तकनीक का समय है। हर क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिए वैज्ञानिक समझ और शिक्षा की आवश्यकता बढ़ती जा रही है। लेकिन जब गाँव के स्कूलों में ही इसकी बुनियाद न मिले, तो बच्चे शुरू से ही पीछे रह जाते हैं। यह स्थिति केवल शिक्षा की नहीं, बल्कि अवसरों की असमानता की भी है। पोथिंग गांव की लड़कियों की यह कहानी हमें यह सोचने पर मजबूर करती है कि क्या शिक्षा केवल किताबों तक सीमित है, या यह रास्तों, दूरी, संसाधनों और फैसलों से भी जुड़ी हुई है। अगर गांव के विद्यालयों में दसवीं के बाद विज्ञान विषय उपलब्ध कराया जाए, तो न केवल लड़कियों की पढ़ाई जारी रह सकती है, बल्कि उन्हें घर से दूर जाने की मजबूरी से भी राहत मिलेगी। वास्तव में, स्कूल भविष्य की उम्मीदें होती हैं, लेकिन यही उम्मीद केवल विषय नहीं होने के कारण टूट जाती है। जिसकी तरफ केवल विभाग ही नहीं बल्कि समाज को भी ध्यान देने की जरूरत है।
संजना
पोथिंग, उत्तराखंड
गाँव की आवाज़
(यह लेखिका के निजी विचार हैं)


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