इतिहास बताता है कि क्रिसमस का पहला औपचारिक उत्सव चौथी शताब्दी में रोम में मनाया गया। उस समय रोमन साम्राज्य में “सोल इन्विक्टस” नामक सूर्य-उत्सव प्रचलित था, जो प्रकाश की विजय का प्रतीक था। विद्वानों का मानना है कि 25 दिसंबर का चयन इसलिए किया गया ताकि अंधकार पर प्रकाश की विजय को आध्यात्मिक अर्थ दिया जा सके। धीरे-धीरे यह पर्व रोम से निकलकर पूरे यूरोप और फिर विश्वभर में फैल गया। लेकिन क्रिसमस का इतिहास केवल राजकीय या धार्मिक नहीं, बल्कि मानवीय भी है। यह उस क्षण की स्मृति है जब एक साधारण गोशाला में, गरीबी और सादगी के बीच, एक शिशु ने जन्म लिया, जो आगे चलकर प्रेम और क्षमा का सबसे बड़ा प्रतीक बना। यीशु मसीह केवल ईसाई धर्म के प्रवर्तक नहीं, बल्कि मानव इतिहास के सबसे प्रभावशाली व्यक्तित्वों में से एक हैं। उनका पूरा जीवन प्रेम, क्षमा और ईश्वर में अटूट विश्वास का संदेश देता है। उन्होंने कहा, “अपने पड़ोसी से अपने समान प्रेम करो।” यह वाक्य किसी धर्म का नहीं, बल्कि पूरी मानवता का आधार बन गया। ईसाई मान्यता के अनुसार यीशु को क्रूस पर चढ़ाया गया और उनका बलिदान मानव जाति के पापों के प्रायश्चित के रूप में देखा जाता है। यह बलिदान एक नई शुरुआत का प्रतीक बना, जहाँ घृणा पर प्रेम और हिंसा पर करुणा की विजय हुई। यीशु की माता मदर मरियम ईसाई आस्था में अत्यंत पवित्र और सम्मानित स्थान रखती हैं। मान्यता है कि स्वर्गदूत गेब्रियल ने उन्हें ईश्वर का संदेश दिया कि वे यीशु को जन्म देंगी। मरियम का जीवन विश्वास, त्याग और मातृत्व की गरिमा का अनुपम उदाहरण है। वे न केवल ईसाइयों के लिए, बल्कि पूरी दुनिया के लिए करुणा और धैर्य की प्रतीक हैं। क्रिसमस का नाम आते ही बच्चों की आँखों में चमक और होठों पर मुस्कान आ जाती है, और इसका श्रेय जाता है सांता क्लॉज को। सांता की ऐतिहासिक जड़ें चौथी शताब्दी में तुर्की में रहने वाले सेंट निकोलस से जुड़ी हैं, जो गरीबों और बच्चों की मदद के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी दयालुता ने उन्हें बच्चों का संरक्षक बना दिया। समय के साथ उनकी छवि लाल कपड़ों, सफेद दाढ़ी और उपहारों से भरी झोली वाले सांता क्लॉज के रूप में विकसित हुई। सां
ता क्लॉज वस्तुतः उपहार नहीं, बल्कि देने की खुशी का प्रतीक हैं। क्रिसमस ट्री की परंपरा जर्मनी से शुरू हुई। 16वीं शताब्दी में लोग अपने घरों में देवदार के पेड़ सजाया करते थे। यह विश्वास था कि सदाबहार पेड़ जीवन, आशा और बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक हैं। धीरे-धीरे यह परंपरा पूरे यूरोप और फिर दुनिया में फैल गई। रोशनी, सितारे और सजावट, सब मिलकर यह संदेश देते हैं कि अंधकार कितना भी गहरा क्यों न हो, एक दीपक उसे चुनौती दे सकता है। अक्सर यह प्रश्न उठता है कि जब मुसलमान ईसा मसीह (अलैहि सलाम) को पैगंबर मानते हैं, उनका सम्मान करते हैं, तो वे क्रिसमस क्यों नहीं मनाते? इस्लाम में ईसा (अलैहि सलाम) को अल्लाह द्वारा भेजे गए महान पैगंबरों में से एक माना गया है। कुरान में उनका उल्लेख कम से कम 35 बार आया है, जो पैगंबर मोहम्मद (सल्ल.) से भी अधिक है। मुसलमान भी मानते हैं कि ईसा का जन्म मरियम की कोख से, बिना पिता के, अल्लाह की इच्छा से हुआ। हालाँकि इस्लाम और ईसाई धर्म में कुछ मूलभूत धार्मिक भिन्नताएँ हैं। इस्लाम एकेश्वरवाद, तौहीद, में विश्वास करता है और ईसा को ईश्वर नहीं, बल्कि पैगंबर मानता है। इसी कारण मुसलमान ईसा का गहरा सम्मान करते हैं, लेकिन उनके जन्मदिन को धार्मिक उत्सव के रूप में नहीं मनाते। यह असम्मान नहीं, बल्कि आस्था का अंतर है। क्रिसमस का सबसे बड़ा संदेश सेवा है। कैथोलिक समुदाय सहित कई ईसाई संस्थाएँ इस समय गरीबों, बेसहारा लोगों और जरूरतमंदों की मदद करती हैं। यही वह बिंदु है जहाँ धर्म कर्म में बदल जाता है। क्रिसमस हमें याद दिलाता है कि ईश्वर मंदिरों से पहले मनुष्य के हृदय में जन्म लेता है।” मुसलमान भी यह मानते हैं कि ईसा का जन्म मरियम की कोख से, बिना पिता के, ईश्वर की इच्छा से हुआ, ठीक वैसे ही जैसे अल्लाह ने आदम को बिना माता-पिता के पैदा किया। इस्लामी मान्यता के अनुसार ईसा ने भी वही संदेश दिया जो सभी पैगंबरों ने दिया, एक ईश्वर की उपासना, नैतिक जीवन और मानवता के प्रति करुणा। हालाँकि ईसाई और इस्लामी मान्यताओं में कुछ बुनियादी धार्मिक भिन्नताएँ हैं।
ईसाई धर्म यह मानता है कि यीशु को क्रूस पर चढ़ाया गया, जबकि इस्लाम के अनुसार अल्लाह ने ईसा को बचा लिया और उन्हें अपने पास उठा लिया। दोनों धर्म यह भी मानते हैं कि ईसा क़यामत से पहले दोबारा आएँगेकृहालाँकि इस वापसी की व्याख्या और उद्देश्य अलग-अलग हैं। तो फिर सवाल यह है कि मुसलमान क्रिसमस क्यों नहीं मनाते? इसका उत्तर आस्था के मूल सिद्धांत में छिपा है। कुरान स्पष्ट रूप से कहता है कि ईश्वर एक है, न उसने किसी को जन्म दिया और न वह जन्मा। सूरह अल-इख़लास में कहा गया है, “कहोः वह अल्लाह है, एक अकेला। न उसने जन्म लिया, न वह पैदा किया गया, और न कोई उसके समान है।” ईसाई धर्म में त्रिमूर्ति की अवधारणा और यीशु को ईश्वर या ईश्वर का पुत्र मानने की मान्यता है, जिसे इस्लाम स्वीकार नहीं करता। इसीलिए मुसलमान ईसा को पैगंबर के रूप में सम्मान देते हैं, लेकिन उनके जन्मदिन को धार्मिक उत्सव के रूप में नहीं मनाते। यहाँ एक महत्वपूर्ण बात समझने की है, उत्सव न मनाना, असम्मान नहीं है। मुसलमान ईसा (अलैहि सलाम) और मरियम (अलैहस्सलाम) का सम्मान कई तरीकों से करते हैं, अपने बच्चों के नाम उनके नाम पर रखना, उनकी विनम्रता और सादगी को जीवन में अपनाना, और मानवता के प्रति दया का भाव रखना। आज की दुनिया युद्ध, घृणा, आर्थिक असमानता और पर्यावरणीय संकट से जूझ रही है। ऐसे समय में क्रिसमस हमें रुककर सोचने को कहता है, क्या हम सच में मानव हैं? क्या हम अपने आसपास के कमजोर व्यक्ति के लिए कुछ कर रहे हैं? क्रिसमस हमें याद दिलाता है कि ईश्वर महलों में नहीं, बल्कि साधारण दिलों में जन्म लेता है। मतलब साफ है क्रिसमस केवल एक दिन नहीं, एक दृष्टि है। यह हमें सिखाता है कि प्रेम सबसे बड़ा धर्म है, सेवा सबसे बड़ी पूजा है और करुणा सबसे बड़ा उत्सव। जब हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैनकृसब मिलकर एक-दूसरे की खुशियों में शामिल होते हैं, तब क्रिसमस अपने वास्तविक अर्थ में जीवित हो उठता है। यही क्रिसमस है, जहाँ ईश्वर नहीं, इंसान केंद्र में होता है। प्रेम, करुणा और सेवा का पर्व क्रिसमस केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि पूरी मानवता के लिए आशा का संदेश है। 25 दिसंबर को मनाया जाने वाला यह पर्व प्रभु यीशु मसीह के जन्म की स्मृति है, जिन्होंने अपने जीवन से क्षमा, दया और भाईचारे का मार्ग दिखाया।
वरिष्ठ पत्रकार
वाराणसी

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