एक दशक पहले तक भारतीय राजनीति में ऐसा वातावरण था कि हिंदुत्व या सनातन संस्कृति की बात करना राजनीतिक वर्गों के लिए जोखिम भरा कदम माना जाता था। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में बहुसंख्यक समाज की धार्मिक परंपराओं की उपेक्षा करना राजनीति का सहज सूत्र बन गया था। किंतु बीते वर्षों में राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियाँ बदली हैं। केंद्र तथा विभिन्न राज्यों, विशेषकर उत्तर प्रदेश में नीतिगत परिवर्तनों ने एक ऐसा वातावरण बनाया जिसमें हिंदू समाज के प्रश्नों और उसकी सांस्कृतिक विरासत को पुनः सम्मान मिला। इसी क्रम में बिहार सरकार का हालिया निर्णय ऐतिहासिक महत्व रखता है। बिहार के मंदिरों और मठों में पूर्णिमा को सत्यनारायण कथा तथा अमावस्या को भगवती पूजा का आयोजन परोक्ष रूप से राष्ट्रव्यापी धार्मिक चेतना और सांस्कृतिक पुनर्जागरण के साथ सामाजिक एकता का खाका है। इस उद्देश्य से प्रत्येक जिले में विशेष जिला समन्वयक नियुक्त किए जाएंगे, जो धार्मिक गतिविधियों के सुचारु संचालन, पारदर्शिता और अनुशासन सुनिश्चित करेंगे। न्यास बिहार में मंदिर परिसरों में अखाड़ों के लिए स्थान आवंटित करने की नीति पर भी काम कर रहा है। इसका उद्देश्य मंदिरों को केवल पूजा के स्थल तक सीमित रखने के बजाय उन्हें सामाजिक-सांस्कृतिक केंद्र में परिवर्तित करना है। मंदिर भारतीय समाज में सदियों से केवल आध्यात्मिक नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक संवाद का भी केंद्र रहे हैं। सत्यनारायण कथा, भगवती पूजा, यज्ञ, प्रवचन, स्वास्थ्य शिविर, पारंपरिक खेलकूद—इन सभी गतिविधियों को पुनः संरचित रूप में विकसित करने का उद्देश्य समाज में सामूहिकता, समरसता और सामाजिक पूंजी को सुदृढ़ करना है। इस धार्मिक-सांस्कृतिक परंपरा के महीने में दो बार सामूहिक आयोजनों से जाति-भेद, सामाजिक दूरी और विभिन्न समुदायों के बीच बनी खाई पर भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। मंदिर भारतीय समाज के लिए केवल प्रार्थना-स्थल नहीं, बल्कि मूल्य, परंपरा, कला, शिक्षा और सामाजिक व्यवहार का केंद्र रहे हैं। भारतीय चिंतन परंपरा के विख्यात चिंतक वासुदेव शरण अग्रवाल 1930 में लिखे निबंध ‘सत्यनारायण व्रत कथा’ में कहते हैं। “हिंदू जाति में बच्चे से लेकर बूढ़े तक कोई भी व्यक्ति ऐसा न होगा, जिसने सत्यनारायण-व्रत-कथा न सुनी हो। जीवन के शुभ-अशुभ दोनों कालखंड में सत्यनारायण कथा जा अपना वैशिष्ट्य है” सत्यनारायण कथा का फैलाव इतना रहा है कि फिजी-मॉरिशस से लेकर दक्षिणी अमेरिका तक फैले भारतीयों और यूरोप-अमेरिका के अमीर सनातनी भारतीय घरों में भी यह होती रही है। मार्क्सवादी सिनेमाकार ऋत्विक घटक तक ने माना है: "इस देश की संस्कृति के चरित्र और विशिष्टता का ठीक से अध्ययन तभी किया जा सकता है जब भारत के भाववाद को उसके दर्शन और धर्म के साथ परख कर और तौल कर समझा जाए।" सत्यनारायण कथा और भगवती पूजा जैसे आयोजन केवल धार्मिक अनुष्ठान भर नहीं, बल्कि लोक-जीवन की सामूहिक स्मृति हैं—वह स्मृति जो उपेक्षा के कारण धूमिल हो रही थी। इस निर्णय से वे परंपराएँ पुनः समाज की धड़कन बन सकेंगी। सत्यनारायण कथा एवं भगवती पूजा प्राचीन काल से सुख-समृद्धि और शक्ति के प्रतीक रही हैं; इन्हें पुनर्जीवित करना सांस्कृतिक आत्मविश्वास की पुनर्स्थापना है। जब शासन सांस्कृतिक उन्नयन के साथ खड़ा होता है, सांस्कृतिक मूल्यों को महत्व देता है तो परंपराएँ केवल जीवित नहीं रहतीं—वे विकसित होती हैं और समाज को सशक्त बनाती हैं, समाज अधिक संगठित,आत्मविश्वासी और प्रगतिशील बनता है। भारतीय राजनीति में लंबे समय तक ऐसी प्रवृत्तियाँ देखी गईं जिनमें धर्मनिरपेक्षता की व्याख्या बहुसंख्यक समाज की धार्मिक परंपराओं की उपेक्षा से जुड़ गई थी। कई दशक तक हिंदू मान्यताओं, ग्रंथों और देवताओं पर प्रश्न उठाना प्रगतिशीलता का पर्याय माना गया। रामायण और महाभारत को काल्पनिक, भगवान राम और कृष्ण को मात्र मिथक सिद्ध करने के प्रयास लगातार किए गए। इसके विपरीत, अल्पसंख्यक तुष्टिकरण की नीतियों के तहत वर्षों तक हज सब्सिडी दी गई, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने 2012 में समाप्त करने का निर्देश दिया। कई राज्यों—जैसे उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, दिल्ली और बिहार—में इमामों तथा उनके सहायकों को सरकारी वेतन तक प्रदान किया गया, जबकि बहुसंख्यक समाज के पुरोहितों, पुजारियों या मंदिर कर्मियों के लिए ऐसी कोई संरचना उपलब्ध नहीं थी। इसी प्रकार, छात्रवृत्ति योजनाओं में भी अक्सर सामुदायिक आधार पर भेदभाव देखा गया, जहाँ मेधावी एवं वंचित बहुसंख्यक छात्रों की तुलना में औसत प्रदर्शन वाले अल्पसंख्यक छात्रों को प्राथमिकता दी जाती रही। अब पानी बहुत बह चुका है,धाराओं ने अपनी दिशा बदल दी है। वैश्वीकरण के दौर में विश्व की अनेक सभ्यताएँ अपनी जड़ों की ओर वापसी की आवश्यकता महसूस कर रही हैं। ऐसे में अयोध्या में धर्मध्वजा, गोवा में श्रीराम की विश्व की सबसे ऊंची प्रतिमा की स्थापना और बिहार के मठ-मंदिरों में पूर्णिमा और अमावस्या को सत्यनारायण कथा और भगवती पूजा भारत की सनातन संस्कृति के पुनर्जागरण का सशक्त और शुभ संकेत है।
हरीश शिवनानी
स्वतंत्र पत्रकारिता-लेखन
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