भारत और उसके पड़ोसी देशों के लिए यह साल खास तौर पर भारी रहा। भारत और पाकिस्तान में आई भीषण बाढ़ ने 1,860 से ज़्यादा लोगों की जान ली और करीब 5.6 अरब डॉलर का नुकसान हुआ। रिपोर्ट बताती है कि एशिया दुनिया के उन हिस्सों में शामिल रहा जहां सबसे ज़्यादा तबाही दर्ज की गई, जबकि इन देशों का वैश्विक उत्सर्जन में योगदान अपेक्षाकृत कम है। Christian Aid की यह रिपोर्ट साफ कहती है कि ये आपदाएं “प्राकृतिक” नहीं हैं। ये दशकों से जारी जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता और राजनीतिक टालमटोल का नतीजा हैं। इम्पीरियल कॉलेज लंदन की प्रोफेसर जोआना हेग के शब्दों में, “ये घटनाएं किसी अनहोनी का नतीजा नहीं, बल्कि उस रास्ते का परिणाम हैं जिसे हमने खुद चुना है। जब तक उत्सर्जन घटाने और अनुकूलन पर गंभीरता से काम नहीं होगा, तब तक यह तबाही बढ़ती ही जाएगी।” रिपोर्ट यह भी दिखाती है कि आर्थिक नुकसान का बोझ अमीर देशों में ज़्यादा दिखाई देता है, क्योंकि वहां बीमा और संपत्ति का दायरा बड़ा है। लेकिन असल पीड़ा गरीब देशों में है, जहां लोग सब कुछ खो देते हैं और फिर भी आंकड़ों में उनकी तकलीफ पूरी तरह दर्ज नहीं हो पाती। नाइजीरिया, कांगो, ईरान और अफ्रीका के कई हिस्सों में आई आपदाएं इसका उदाहरण हैं, जहां हजारों लोग प्रभावित हुए लेकिन दुनिया की नजरें अक्सर वहां तक नहीं पहुंच पाईं।
Christian Aid के सीईओ पैट्रिक वॉट कहते हैं कि जलवायु संकट अब भविष्य की चेतावनी नहीं, बल्कि आज की सच्चाई है। उनके मुताबिक, “यह पीड़ा एक राजनीतिक विकल्प का नतीजा है। अगर सरकारें अब भी जीवाश्म ईंधन से दूरी नहीं बनातीं और जलवायु वित्त पर अपने वादे पूरे नहीं करतीं, तो इसकी कीमत सबसे कमजोर लोगों को चुकानी पड़ेगी।” रिपोर्ट यह भी याद दिलाती है कि 2025 में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी, जंगलों की आग, सूखा और तूफान दुनिया के हर कोने में महसूस किए गए। स्कॉटलैंड जैसे ठंडे इलाकों में भी जंगल जल उठे, जबकि समुद्रों का तापमान रिकॉर्ड स्तर तक पहुंच गया। यह सब इस बात का संकेत है कि जलवायु संकट अब सीमाओं को नहीं मानता। हमारे लिए यह रिपोर्ट सिर्फ आंकड़ों का दस्तावेज़ नहीं, बल्कि एक चेतावनी होनी चाहिए। एक ऐसी चेतावनी जो कहती है कि अगर आज फैसले नहीं बदले गए, तो आने वाले सालों में नुकसान सिर्फ बढ़ेगा। सवाल अब यह नहीं है कि हम कितना खो चुके हैं, बल्कि यह है कि क्या हम आगे होने वाली तबाही को रोकने का साहस दिखा पाएंगे।

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