- भारत के स्टील सेक्टर पर मंडरा रहा बादल अब साफ दिखाई दे रहा है.
ऑस्ट्रेलिया की सप्लाई पर बढ़ता जोखिम
IEEFA कहता है कि ऑस्ट्रेलिया दुनिया का सबसे बड़ा मेट कोल एक्सपोर्टर है, पर उसकी खदानें अब कई तरह के दबाव में हैं. कानूनी चुनौतियां, ऊंची लागत, फंडिंग में कटौती, क्लाइमेट जोखिम और नए प्रोजेक्ट्स को मंज़ूरी मिलने में देरी. रिपोर्ट चेतावनी देती है कि भविष्य में सप्लाई कम पड़ेगी तो दाम आसमान छू सकते हैं. इसका सीधा असर भारत पर पड़ेगा, जहां स्टील की बढ़ती ज़रूरत को पूरा करने के लिए ज्यादा BF BOF प्लांट तैयार किए जा रहे हैं.
IEEFA के साइमोन निकोलस कहते हैं,
“ऑस्ट्रेलिया खुद 2050 नेट जीरो की ओर बढ़ रहा है. वहां कोयला विस्तार पर कानूनी चुनौतियां बढ़ रही हैं. ऐसे में भारत के लिए खतरा बढ़ रहा है क्योंकि हमारी निर्भरता बहुत ज्यादा है.” निकोलस यह भी बताते हैं कि COP30 में ऑस्ट्रेलिया ने बेलें डिक्लेरेशन को साइन किया, जो तेल, गैस और कोयले से तेज़ी से दूर जाने की मांग करता है. इससे साफ है कि आने वाले समय में ऑस्ट्रेलिया मेट कोल पर और कड़े कदम उठाएगा.
तो भारत क्या करे
IEEFA के रिसर्चर सौम्या नौटियाल का मानना है कि भारत के पास एक रास्ता है. स्क्रैप आधारित इलेक्ट्रिक आर्क फर्नेस यानी EAF, ग्रीन हाइड्रोजन आधारित स्टील, और लो कार्बन टेक्नोलॉजी के लिए पॉलिसी सपोर्ट। यह सब मिलकर भारत की मेट कोल पर निर्भरता कम कर सकते हैं. रिपोर्ट कहती है कि भारत दुनिया के सबसे सस्ते ग्रीन हाइड्रोजन उत्पादकों में हो सकता है. लेकिन ध्यान निर्यात पर नहीं, घरेलू स्टील इंडस्ट्री में इसके इस्तेमाल पर होना चाहिए. यह बदलाव आसान नहीं है, पर समय कम है. अगर भारत आज कदम नहीं उठाता, तो भविष्य में महंगा कोयला, आर्थिक झटके, और स्टील सेक्टर में अस्थिरता तय है.
बड़ी तस्वीर
भारत की स्टील इंडस्ट्री 2070 नेट ज़ीरो के रास्ते पर चलना चाहती है, पर उसकी नींव आयातित कोयले पर टिकी है. जब नींव ही डगमगाए तो इमारत कितनी भी आधुनिक हो, जोखिम में ही रहती है. रिपोर्ट इस बात की साफ चेतावनी देती है कि अब भारत को नई दिशा तय करनी होगी. स्क्रैप, हाइड्रोजन और घरेलू तकनीक ही वह रास्ता है जो ऊर्जा सुरक्षा भी दे सकता है और स्टील सेक्टर को भविष्य के बाज़ार में मजबूत भी बना सकता है.

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