कितने दुर्भाग्य की बात है, क्या हमारा रुपया इससे कुछ अधिक सम्मान का हकदार नहीं था। भारतीय रुपया ही असली रुपया है और यह सदियों पहले से चलन में है। इतिहासकारों का मानना है कि यह नाम संस्कृत के रुप्यकम शब्द से उपजा है और इसका इस्तेमाल ईसापूर्व छठी शताब्दी में शुरू हुआ था। वर्तमान में प्रचलित भारतीय रुपये पर उसका संस्कृतनाम रुप्यकाणि अंकित रहता है।
रुपी अथवा रपैया को टकसाल में ढालने का काम शेर शाह सूरी (1486-1545) के काल में शुरू हुआ था। रुपये के अतीत की इसी निरंतरता के चलते देश के बंटवारे के बाद पाकिस्तान ने अपनी मुद्रा को पाकिस्तानी रुपये का नाम दिया। भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा बात करें तो भारतीय रुपये ने मुद्रा की दो बेहद महत्त्वपूर्ण विशेषताएं हासिल की हैं। पहली विनिमय दर की इकाई और स्टोर ऑफ वैल्यू के रूप में इसकी पहचान। पूर्वी अफ्रीका के तटीय देशों, खाड़ी स्थित अरब देशों (गल्फ कोऑपरेशन काउंसिल के सदस्य), हिंद महासागर में मौजूद देशों, समूचे भारतीय उपमहाद्वीप और दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों में इसकी पहचान इसी रूप में है।
इतने महत्त्वपूर्ण और गौरवशाली इतिहास से परिपूर्ण किसी मुद्रा को एक नई पहचान मिली है, वह भी ऐसे समय में जबकि देश की अर्थव्यवस्था का आकार बढ़कर 10 खरब डॉलर से अधिक हो चुका है, देश में कारोबार उछाल पर है और पूंजी का प्रवाह सकारात्मक बना हुआ है। मुद्रा को नया प्रतीक चिह्नï मिलना हमारी आने वाली पीढिय़ों के लिए यादगार अवसर बना रहेगा। ऐसे में देश की सरकार और भारतीय रिजर्व बैंक में से किसी ने यह क्यों नहीं सोचा कि रुपये के नए चिह्नï को दुनिया के सामने थोड़ा बेहतर तरीके से पेश किया जाए?
हमारा देश उत्सवप्रिय तो है ही इसके अलावा यहां प्रतीक भी काफी मायने रखते हैं। यहां लोगों को तमाम मौकों पर धूमधाम से आयोजन करना पसंद है, ऐसे में रुपये के लिए एक वृहद आयोजन होना चाहिए था। यह आयोजन इंडिया गेट के लॉन मे भी हो सकता था जहां देश की राष्ट्रपति टेलीविजन कैमरों के सामने रुपये की एक विशाल और शानदार अनुकृति लोगों के सामने उद्घाटित करतीं।
ऐसा करना बहुत अतिशयोक्तिपूर्ण भी नहीं लगता क्योंकि मुद्रा ही वह चीज है जो एक साथ निजी और सार्वजनिक जीवन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। भाषा के अलावा मुद्रा ही वह सबसे महत्त्वपूर्ण चीज है जो हमें हमारे आसपास के लोगों और दुनिया से जोड़ती है। यही वजह है कि अक्सर हमारे राजनेता मुद्रा की कीमत को राष्टï्र गौरव के साथ जोडऩे की गलती कर बैठते हैं।
आरबीआई के गर्वनर बिमल जालान को अपने कार्यकाल के दौरान ऐसी ही परिस्थिति से निपटना पड़ा था जब पोखरण-2 शक्ति परमाणु परीक्षण के बाद भाजपा नेत्री सुषमा स्वराज ने घोषणा कर दी थी कि चूंकि इन परीक्षणों से देश मजबूत हुआ है इसलिए रुपया भी मजबूत होगा। उस समय रिजर्व बैंक मजबूत रुपया कतई नहीं चाहता था। चीन दिखा चुका था कि कैसे शक्ति संपन्न होने की चाह रखने वाला देश कम कीमत वाली मुद्रा का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए कर सकता था। मुद्रा के अवमूल्यित होने का यह मतलब कतई नहीं है कि देश की अर्थव्यवस्था कमजोर है।
बल्कि यह अर्थव्यवस्था के प्रतिस्पर्धात्मक रूप से मजबूत होने का संकेत भी हो सकता है। 1998 में सुषमा स्वराज 1991 का पाठ भूल गईं थीं। 1990-91 में उपजे भुगतान संतुलन संकट के समय सबसे पहले अपना पैसा देश से निकालने वालों में अनिवासी भारतीय ही आगे थे। या फिर ये वे लोग थे जिन्होंने अपना पैसा एनआरआई खाते में रखा था। हालांकि देश अब उस दौर से बहुत आगे निकल आया है। अब जबकि अमेरिकी डॉलर समेत कोई भी मुद्रा संकट से जूझ सकती है, ऐसे में भारतीय रुपया अपने हाल के दिनों के सबसे स्वर्णिम दौर से गुजर रहा है।
एक समय ऐसा भी था जब भारत के बाहर सिर्फ नेपाल और मालदीव ही ऐसे देश थे जहां रुपया स्वीकार किया जाता था। इसके अलावा लंदन के साउथहॉल और सिंगापुर के मुस्तफा शॉपिंग सेंटर में रुपया देखने को मिलता था। अपने गौरवशाली दिनों में जहां हिंद महासागर से जुड़े तमाम इलाके में रुपये का राज था वहीं उसे काफी बुरे दिन भी देखने को मिले। जैसे-जैसे देश की अर्थव्यवस्था अधिक मजबूत और प्रतिस्पर्धी होती गई वैसे-वैसे उसकी मुद्रा भी नई ऊंचाइयों की ओर बढ़ती गई। रुपये का नया प्रतीक दरअसल इसी नए आत्मविश्वास का प्रतीक है।
इसलिए यह उचित ही है कि रुपये का नया प्रतीक चिह्नï जिसमें समकालीन भारत के साथ प्राचीनता और आधुनिकता के समावेश के रूप में संस्कृत और अंग्रेजी शामिल हैं। उसे तैयार किया है तमिलनाडु के युवा शिक्षक उदय कुमार ने। इस नए डिजाइन की मुझे तब इतनी ज्यादा खुशी नहीं होती अगर उसे पेरिस, लंदन या रोम के किसी फैन्सी डिजाइनर ने तैयार किया होता। डिजाइनर की भारतीयता ने ही उस डिजाइन में खास मायने पैदा किए हैं।
मुझे इस बात पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ कि ब्रिटेन के समाचार पत्र गार्जियन ने लंदन के किसी फैंसी डिजाइनर के हवाले से उदय कुमार को इस डिजाइन के लिए बी अथवा बी प्लस देते हुए कहा कि डिजाइन में कल्पनाशीलता का उतना प्रयोग नहीं किया गया है। मैं व्यक्तिगत रूप से बेहद खुश हूं कि आरबीआई ने किसी फैंसी पश्चिमी डिजाइनर की राह नहीं तकी और उदयकुमार के भारतीय संस्कृति के परिचायक डिजाइन को चुना।
रुपये के नए प्रतीक चिह्नï का उत्सव मनाते हुए हमें इसके भारतीय डिजाइन का भी उत्सव मनाना चाहिए। यह दुखद है कि देश के तेज आर्थिक विकास के बावजूद डिजाइनिंग को वह दर्जा नहीं मिला है। चीन और जापान जैसे देशों में डिजाइनिंग का लंबा अलग महत्व रहा है। सिंगापुर जैसे छोटे से देश में भी दो विश्वस्तरीय डिजाइनिंग संस्थान हैं जबकि हमारे देश में डिजाइनिंग के छात्रों को अहमदाबाद स्थित नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ डिजाइन और कुछ निजी संस्थानों में महज कुछ सीटों के लिए आपस में प्रतिस्पर्धा करनी पड़ती है।
निश्चित रूप से संपन्न सांस्कृतिक विरासत के बावजूद देश में डिजाइनिंग क्षेत्र की इस उपेक्षा के बीच कुमार जैसी स्वदेशी प्रतिभाओं की मुखर अभिव्यक्ति और उन्हें पुरस्कार मिलना निश्चित रूप से चकित करने वाला है। कुमार किसी फैंसी यूरोपीय डिजाइन इंस्टीट्यूट के छात्र नहीं हैं, इसके बावजूद वह एक ऐसे विचार के साथ सामने आए जो इतिहास में दर्ज होगा और जिसे सारी दुनिया महसूस करेगी।

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