विद्यापति पर्व समारोह मात्र औपचारिकता. - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 2 मई 2011

विद्यापति पर्व समारोह मात्र औपचारिकता.

 आज अचानक लल्लन जी लिखी हुई एकांकी "विद्यापतिक दुर्दशा" याद आ गई. आज से २० साल पहले लल्लन जी ने मैथिलि में लिखी अपनी रचना के माध्यम से समाज को एक सन्देश देने की कोशिश की थी. 

लल्लन जी अपने हर नाटक के मंचन से पहले अपनी ही लिखी हुई एकांकी का मंचन बच्चों से करवाते थे. "विद्यापतिक दुर्दशा" के माध्यम से उन्होंने जो कहना चाहा था वह आज अचानक "मिथिला सांस्कृतिक परिषद्"  द्वारा आयोजित विद्यापति पर्व समारोह को देख मुझे याद आ गई. 

मिथिला के सर्वश्रेष्ठ कवि " कवि कोकिल विद्यापति " एक ऐसे कवि श्रेष्ठ हैं जिनकी भक्ति से प्रसन्न हो स्वयं भगवान शिव उनके घर चाकर बन वर्षों तक उनकी सेवा की थी. ऐसे कवि को याद करने के लिए पर्व मानाने का प्रचलन है. प्रचलन इसलिए कह रही हूँ क्यों कि अपनी यादाश्त में मैं ३५ वर्षों से जमशेदपुर में विद्यापति पर्व समारोह मानते हुए देखती आ रही हूँ. इन ३५ वर्षों में यदि बदलाव की ओर देखती हूँ तो लगता है मैं कई पीढ़ी पहले की हूँ परन्तु यदि "विद्यापति पर्व समारोह" जो की प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है...... के कार्यक्रम की समीक्षा करती हूँ तो पाती हूँ आज भी उसके आयोजन में कोई बदलाव नहीं आया है. 

अपने संस्कार, अपने कवि अपनी विभूतियों को याद करने के नाम पर, अपने समाज का कल्याण करने के नाम पर, उद्धार करने के नाम पर संस्था का क्या औचित्य है कितना औचित्य है यह मेरी समझ के बाहर है. हाँ एक मंच अवश्य जरूरी होता है जहाँ अपनी भावनाएँ अपने विचार रखा जा सके, समाज को सन्देश दिया जा सके, जरूरत मंदों की सहायता की जा सके, कला एवं संस्कृति को प्रोत्साहित किया जा सके. 

कहने को तो "विद्यापति पर्व" मनाया जाता है....परन्तु एक कोने में विद्यापति के चित्र रख बड़े बड़े नेताओं से जिन्हें यह भी मालुम नहीं होता कि विद्यापति कौन थे, न ही बताने की कोशिश की जाती है, उनसे  दीप प्रज्वलित करवा उसे पर्व नाम देने की कोशिश तो की जाती है, परन्तु उस विभूति, उस कवि श्रेष्ठ के बारे में कम से कम संक्षिप्त परिचय देने की किसी को सुध कहाँ ? आयोजक को चिंता रहती है आयोजन सफल कैसे हो. आयोजन के सफलता की भी परिभाषा मेरी समझ में तो नहीं आती. जिस बार जितने बड़े बड़े नेता और जितने ज्यादा पत्रकार आएं उस बार का आयोजन उतना सफल माना जाता है. चाहे दर्शक उन नेताओं और आयोजक के भाषण ही सुनकर वापस क्यों न चले जाएँ. इसके लिए आयोजक साल भर एड़ी चोटी लगाने में कोई कसर नहीं छोड़ते.  आखिर एड़ी चोटी क्यों न लगाएँ ? साल भर इंतज़ार जो करते हैं उस पल का,  नेताओं के साथ मंच पर बैठ गौरवान्वित होने का, नेताओं के मुख से अपने नाम और अच्छे कार्यक्रम की तारीफ़ सुनने का. 

यह विद्यापति की दुर्दशा नहीं तो और क्या है ?


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