पूरी दुनिया लक्ष्मी मैया को अपनी तिजारी, अपने परिसरों में कैद रखने के जतन में भिड़ी हुई है। लक्ष्मी रिझाने के फेर में हर कोई किसी न किसी अनुष्ठान में रमा हुआ है। कोई एनजीओ चला रहा है तो कोई बीमा एजेंसी, फाइनेन्स स्कीम, गिफ्ट स्कीम, प्लाटों की दलाली, पत्रकारिता, नेतागिरी, काले कारनामों में जुटा हुआ है। पिछले कुछ बरस से सरस्वती के मंदिरों में लक्ष्मी की जबरदस्त सेंधमारी जारी है। यह एजूकेशन के दफ्तरों से लेकर ट्यूशन सेन्टरों और प्राइवेट स्कूलों नर्सिंग संस्था मायावी नेटवर्क तक फैली हुई है।नाम सरस्वती का और सारा काम धाम अनुष्ठान लक्ष्मी का। अपने यहां सबसे ज्यादा मुनाफे, अंधी कमाई वाला सबसे लोकप्रिय धंधा है - स्कूल चलाना। इस धंधे में हींग लगे न फिटकेरी, रंग चोखा।
सरस्वती के मंदिरों में लक्ष्मी की सेंधमारी का जो दौर हॉल के वर्षों में शुरू हुआ है, वह अपने परवान पर है। इस धंधे में यश प्रतिष्ठा के साथ ही अंधाधुन्ध कमाई के कई ऐसे रास्ते हैं जिन्हें समझना आम आदमी के बूते में नहीं है। शिक्षा के मिशन को मुद्दा की मशीनरी और बच्चों की बजाय सिक्के और रूपए ढालने की टकसाल बनाना कोई सीखे तो इनसे। और धंधों में मुनाफा हो न हो, इसमें गारंटी है दो सौ फीसदी मुनाफे की। हकीकत ये कि अंधी कमाई से स्कूल की पूरी बदल जाए किसी छोटी मोटी फैक्ट्री में।सरस्वती के इन मंदिरों में लक्ष्मी की जबर्दस्त घुसपेठ सीमापार से आए आतंकवादियों से भी कहीं ज्यादा हो चली है। महानगर से लेकर शहरों, कस्बों और गांवों तक एजुकेशन के नाम पर कियोस्क व शॉप से लेकर कॉम्प्लेक्स खुलते व पांव पसारते जा रहे हैं।
रोजाना भले ही इनमें सरस्वती की प्रार्थना होती हो पर यों इनका एकमेव मकसद हाऊ टू अर्न मनी ही रह गया है। सरकारी शालाओं से सरस्वती गायब है और एजुकेशन की प्राईवेट दुकानों में सरस्वती को परे धकिया कर लक्ष्मी ने कब्जा जमा लिया है। शिक्षा के नाम पर अर्थव्यवस्था का गला घोंटने वाली इन दुकानों में प्रवेश से लेकर निकलने तक बच्चे को वह दुधारू गाय समझा जाता है जिसे जब चाहे दूह लिया जा सकता है। अपने नौनिहालों को कुछ बनाने की उम्मीद पाने पेरेन्ट्स के आगे चुपचाप लुटने के सिवा और चारा ही क्या है। यहां एन्ट्री के लिए पहली से पांचवी, आठवी या बारहवी तक कक्षाएं नहीं हुआ करती बल्कि नर्सरी, एल. के. जी., यू. के. जी. या एच. के. जी जैसे कई पड़ावों से गुजर कर पहली शुरू हो पाती है। एडमिशन की मोटी फीस और डोनेशन के बाद हर तीन माही और सालान फीस की चाहत।
प्राईवेट स्कूलों में ग्रीष्मावकाश का भी शुल्क वसुला जाता है। मई माह का पहली छः माही शुल्क के साथ और जून माह का दूसरी छः माही शुल्क के साथ। भला हो घनश्याम चाचा का, जिन्होंने ग्रीष्मावकाश में भी स्कूल खोलने की परंपरा डाल कर अपुन के राजस्थान के गरीब स्कूल वालों का भाग सँवार दिया है। इसके साथ ही एजुकेशन के नाम चल रही दुकानों में ड्रेस, टाई, बेल्ट, जूते, मोजे, किताबें, कॉपियां, ज्योमेट्री बॉक्स और हर चीज बिकाऊ देने की व्यवस्था है जो बच्चे के लिए जरूरी है फिर उसी स्कूल से इन्हें लेना जरूरी है।
एजुकेशन की इन फैक्ट्रीयों और मल्टीपरपज शॉपिंग कॉम्पलेक्स को देख कौन कहेगा कि ये शिक्षा है। साल भर त्योहारों, पर्वों, उत्सवों के नाम पर कभी मिठाइयां, टॉफियां, राखियां, गरबों के लिए डांडियां, एस. यू. पी. डब्ल्यू. के नाम मोम, टूथ ब्रश, पेस्ट आदि से लेकर हर दो चार दिन में स्कूल की ओर से कुछ न कुछ फरमाईश फिर इनसे भी पेट नहीं भरे तो गुरुवंदन कार्यक्रम पन्द्रह अगस्त व 26 जनवरी की झंडियों, कभी फर्स्ट एड बॉक्स के नाम से दवाइयां, डेटोल आदि तो कभी कुछ। हर बार इनकी भीख का ग्राफ बढ़ता ही जाता है।
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