किताबों में सबने बचपन से पढ़ा है नालंदा के बारे में। करीब 16 सौ साल पुराना यह विश्वविद्यालय अब नई जगह पर, नए सिरे से आकार ले रहा है। नालंदा से बीस किलोमीटर दूर राजगीर के पास आठ किमी लंबी दीवार का काम अभी शुरू हुआ ही है। नालंदा का नाम जुड़ा होने से शिक्षा जगत की निगाहें यहां के कोर्स और फेकल्टी पर हैं।
विश्वविद्यालय में सात स्कूल स्थापित होने हैं। शुरुआत में दो स्कूल-पहला, इतिहास की शिक्षा और दूसरा, एनवायरनमेंट एंड इकोलॉजी पर। पहला शैक्षणिक सत्र 2013 से शुरू करने की घोषणा फरवरी 2011 में जोरशोर से हुई। पहले बैच का दाखिला कब होगा? कुलपति डॉ. गोपा सभरवाल के पास कोई जवाब नहीं है। न सिलेबस है, न स्टाफ। इनके लिए अलग-अलग एडवायजरी बोर्ड बनने हैं, जो इस विश्वस्तरीय परिसर में पढ़ाई-लिखाई की रूपरेखा तय करेंगे। यानी इंतजार लंबा हो सकता है। कोर्स सेल्फ फाइनेंशिंग होंगे या नहीं, यह भी तय नहीं है। भावी स्वरूप पर उनका कहना है, ‘केंद्र सरकार ने इसके लिए स्पेशल एक्ट बनाया है। यह एक अंतरराष्ट्रीय स्तर का विश्वविद्यालय होगा, जिसमें चीन और सिंगापुर मदद दे रहे हैं।’
राजगीर में निर्माण शुरू होने के साथ ही दो मंजिला सरकारी इमारत भी विश्वविद्यालय को दे दी गई है। बिहार के लिए यह पल यादगार है। हर दिन दुनिया भर से नालंदा आने वाले दस हजार लोगों में ज्यादातर बौद्ध देशों के हैं। वे इस ऐतिहासिक पहल से उत्साहित हैं। स्विटजरलैंड से आईं तिब्बत मूल की यांकी कहती हैं, ‘यहां की एक-एक ईंट हमारी श्रद्धा का केंद्र है। हमने नालंदा का वैभव खंडहरों में देखा। हमारे बच्चे इसे वापस सांस लेता हुआ महसूस करेंगे।’
आरके पुरम्। सेक्टर-6। इंडियन बिल्डिंग कांग्रेस की इमारत। बाहर नालंदा विश्वविद्यालय का कोई साइन बोर्ड नहीं। ऑफिस पहली मंजिल पर जरूर है। किसी नए एनजीओ जैसा यह दफ्तर देश में सबसे ज्यादा वेतन प्राप्त कुलपति (पांच लाख रुपए महीना) डॉ. गोपा सभरवाल का है। 1100 किलोमीटर दूर महान् नालंदा विश्वविद्यालय के बारे में दिल्ली में बैठकर उन्हें ज्यादा चिंता यह है कि पटना से नालंदा 90 किमी जाने में चार घंटे बरबाद होते हैं। ऐसे में विश्व के विशेषज्ञों को लोकेशन तक ले जाना भारी चुनौती है। आखिर कोई कैसे इस इंटरनेशनल यूनिवर्सिटी में ज्वाइन करने आएगा?
नालंदा को वापस खड़ा करने का मूल विचार 2006 में तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम का था। बिहार सरकार ने इसे साकार करने का जिम्मा नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री डॉ. अमत्र्य सेन को दिया। सेन की अध्यक्षता वाले गवर्निग बोर्ड के फैसलों ने विवाद खड़े कर दिए हैं। बिहार के शिक्षाविद् एवं बुद्धिजीवी इस प्रोजेक्ट से दरकिनार हैं। शुरुआत कुलपति के चयन से हुई। डॉ. कलाम भी प्रोजेक्ट से अलग हो गए। पटना विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ. शंभुनाथ सिंह ने कहा, ‘बेहतर होता बिहार एवं विश्व के विशेषज्ञों की भागीदारी से सर्वसम्मत विजन-प्लान बनता।’
बिहार के एक वरिष्ठ मंत्री ने बताया कि प्रधानमंत्री की बेटी उपेंदरसिंह से नजदीकी के चलते डॉ. सभरवाल को कुलपति बनाया गया। हमारी परेशानी यह है कि इन विवादों से यह प्रोजेक्ट नकारात्मक प्रचार के हवाले हो गया। डॉ. सभरवाल ने एक असिस्टेंट प्रोफेसर अंजना शर्मा को ओएसडी (वेतन सवा तीन लाख रुपए महीना) बना कर विवादों को और हवा दे दी।
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