जो कुछ करें अपने क्षेत्र के लिए... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।


शुक्रवार, 7 सितंबर 2012

जो कुछ करें अपने क्षेत्र के लिए...


फिर बाहर की ओर करें रुख !!!


आजकल हर कहीं किसी न किसी के नाम पर कुछ न कुछ होने लगा है। कोई दान-धरम और पुण्य के नाम पर पैसा इकट्ठा कर रहा है, कोई चन्दे के नाम  पर  पुण्य का लाभ देने की बातें कर रहा है। हर क्षेत्र में ऐसे कई समूह भी बने हुए हैं जो धरम और सेवा के नाम पर दूसरों से पैसा लेने के सारे कौशल और हुनरों में माहिर हैं। कभी चन्दे के रूप में धन संग्रह किया जाता है कभी अन्न, वस्त्र और दूसरी-तीसरी सामग्री स्वीकारी जाती है। इस मामले में दो तरह के काम होने लगे हैं। एक तो हम जहां रहते हैं वहीं के लिए चन्दा या सामग्री एकत्रित की जाती है। दूसरे अपने इलाके में बाहर से आए लोग दूसरी जगहों पर कभी मन्दिर, कभी गौशाला और कभी अन्न क्षेत्र,
वृद्धाश्रम, निःशक्तजन छात्रावास आदि के लिए पैसा और सामग्री जमा करते हैं और पुण्य पाने की बातें कहकर लोगों की जेब से कुछ न कुछ निकलवा ही लेते हैं। आज हर इलाके का रुपया-पैसा धरम और सेवा के नाम पर अपने इलाकों से बाहर जा रहा है जबकि इतना ही पैसा अपने इलाके में ही धर्मार्थ और सेवार्थ कार्यों पर खर्च हो तो अपने क्षेत्र का कायापलट ही हो जाए और स्वर्ग बनने लगे। लेकिन यह हमारी मानसिकता ही बन गई है कि अपने क्षेत्र की बजाय दूसरे इलाकों के लिए चन्दा और सामग्री प्रदान करें और पुण्य कमाएं। इस मामले में संसार को त्याग बैठे वैराग्य की महामूर्त्तियां बन बैठे हमारे देश के संत-महंत और महात्मा कहे जाने वाले लोग भी पीछे नहीं हैं जो अपने आश्रमों और दूसरी-तीसरी संस्थाओं व ढांचों के नाम पर देश के कोने-कोने  से भक्तों का दोहन करने में सिद्ध हो चुके हैं।

जबकि वो काहे के बाबा या संन्यासी जो आश्रमों और भोग-विलासिता के संसाधनों में रमे हुए हैं। ऐसा ही था तो फिर संसार छोड़ने की क्या जरूरत थी उन्हें। हकीकत तो यह है कि कुछेक को छोड़ दिया जाए तो शेष सारे के सारे संसार को पाने के लिए ही संसार छोड़ बैठे हैं ताकि इस बहाने ही लोग धरम के नाम पर उनकी ओर रुख करेंगे। और ऐसा होने लगता है तो फिर  बात ही क्या है। लोभी-लालचियों का तांता उनकी ओर बंध जाता ही है। फिर जो बाबाजी के पास आएगा , वह कोई खाली हाथ थोड़े ही आएगा। गलती अपनी भी है। वे कहें तो उनके झांसे में आकर उनके नाम पर लाखों लुटा दें, और अपने  क्षेत्र में किसी जरूरतमन्द को एक आना तक देने में हिचकते हैं। किसी भी प्रकार की भीषण प्राकृतिक आपदा से पीड़ितों को मदद की बात अलग है लेकिन आम तौर पर हम अपने इलाकों के प्रति उपेक्षा का रवैया अपनाते हैं। ऐसा करना न हमारे लिए  अच्छी बात है न हमारी आने वाली पीढ़ियों के लिए। कई विदेशी संस्थाएं और संगठन अपने यहां से किसी न किसी प्रतिष्ठापूर्ण ओहदे या नाम के लिए अनाप-शनाप पैसा  जमा कर रही हैं और सहायता के नाम पर इसका हजारवां हिस्सा वापस हम तक पहुंचा कर सेवा के नाम पर इठलाती रही हैं।

हम तहेदिल से सोचें कि मिथ्या प्रतिष्ठा और झूठी शौहरत पाने के फेर में हम विदेशी संस्थाओं के बैनरों के नीचे भीड़ की तरह  जमा हो जाते हैं और अपनी पहचान को वैश्विक मानते हुए अहंकार और पाश्चात्य अप-संस्कृति के झण्डाबरदार के रूप में स्थापित हो जाते हैं। यही पैसा यदि हम हमारी मातृभूमि के कल्याण और हमारे अपने बंधुओं-भगिनियों के लिए खर्च करें तो भारतवर्ष फिर से विश्वगुरु बनने के सारे सामर्थ्य रखता है। लेकिन हमारी मानसिकता ही ऐसी होती जा रही है कि विदेशी हमारे आराध्य होते जा रहे हैं और हमारी पक्की धारणा हो  चली है कि  वे जो कहते हैं वही दुनिया या कि ब्रह्माण्ड का सर्वोपरि सत्य है। हमारी अंधानुकरण की यही  प्रवृत्ति हमें मूर्ख बनाते हुए हमारे  सर्वांग शोषण के लिए उत्प्रेरित करती रही है। जितना पैसा हम हमारे वैश्विक स्वरूप को प्रकटाने के लिए विदेशों में भेजते हैं उसे ही यदि मात्र एक साल तक इकट्ठा कर अपने देश में ही  खर्च कर  दिया जाए तो  भारतीय  परिवेश सुनहरे रंगों से भर  जाए। लेकिन हम ऐसा कभी नहीं कर पाते  क्योंकि हम अपनी परम्परागत  पहचान और गौरव  को तो भुला ही बैठे हैं और हमें अपनी वैश्विक पहचान बनाने के लिए ऐसे ही संगठनों पर निर्भर रहने की विवशता है। हमारे देश में ऐसे लोगों की संख्या अनगिनत है जो यही काम कर रहे  हैं। सेवा के इसी धर्म का यदि गंभीरतापूर्वक राष्ट्रहित में चिंतन करें और सोचंे तो यह सच सामने आएगा कि इन वृत्तियों का यदि पूर्णतः स्वदेशीकरण कर दिया जाए तो आज भारत की कई समस्याएं अपने आप समाप्त हो जाएं। 

बात चाहे विराट और व्यापक स्तर की हो या ग्राम या शहर के स्तर की। यह अच्छी तरह स्वीकारा जाना चाहिए कि अपना पैसा, श्रम और समय अपने इलाकों पर लगाने  की मनोवृत्ति अपनाएं और सदैव अपनी मातृभूमि या कर्मभूमि के लिए जितना हो सके, उतना  करें,  तभी हम अपनी जमीं के कर्ज से उऋण हो सकते हैं। इसके अलावा हम बाहर कहीं भी करोड़ों-खरबों खर्च कर दें, अपनी मातृभूमि के कर्ज से मुक्त नहीं हो  सकते। जहां हम  पैदा हुए, जहां पले-बढ़े और कर्म क्षेत्र में हुनर आजमाया, वहां की सेवा का भाव हमारे जीवन में सर्वोपरि प्राथमिकता पर होना चाहिए। यह बात सभी पर लागू होती है, आम हों  या ख़ास। हमें तय  करना होगा कि हम दान-धरम या सेवा व्रतों के लिए जो कुछ करें उसमें सबसे ऊपर हमारे अपने क्षेत्र को प्राथमिकता देंगे। ऐसा सभी का भाव जागृत हो जाने  पर किसी को भी धनसंग्रह या चन्दा उगाहने के लिए कहीं बाहर जाने की जरूरत नहीं रहेगी। पहले अपने क्षेत्र में सेवा के सरोकारों को मजबूती दें, उसके बाद आस-पास की ओर ध्यान दें तथा इसके उपरान्त बाहर की ओर रुख करें।

अपने क्षेत्र में अन्न क्षेत्र, विशेषज्ञ डॉक्टरों और संसाधनों से भरपूर अस्पतालों, बेरोजगारी मिटाने के लिए स्थानीय मांग के अनुरूप स्थानीय उत्पादन केन्द्रित उद्योग-धंधों और सहकारिता क्षेत्रों के विस्तार पर विशेष ध्यान दिये जाने की जरूरत महसूस हो रही है। अव्वल बात यह है कि हमारे अपने क्षेत्र के लोग जिस किसी काम में पिछड़ा महसूस कर रहे हैं उन्हें संबल और निर्देशन देकर आगे लाने में अपनी ऊर्जा लगानी होगी।  मातृभूमि व अपने क्षेत्र की सेवा का ज़ज़्बा जग जाने के बाद फिर कुछ प्रेरणा संवहन का कार्य शेष बचता ही नहीं।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

कोई टिप्पणी नहीं: