मुर्दों को न घर वाले बर्दाश्त करते हैं, न पड़ोसी और न ही गांव-शहर के लोेग। नदियां और समन्दर भी मुर्दों को एक क्षण भर बर्दाश्त नहीं कर किनारे लगा देते हैं। बात यहाँ जानदार मुर्दों की हो रही है। जीवन भर हमारी मुलाकात ऎसे ढेर सारे लोगों से होती है जिनका मन कहीं और अटका रहता है और शरीर कहीं और। ऎसे लोग जीवन भर आधे-अधूरे रहते हैं और कोई काम पूर्ण नहीं कर पाते। यहाँ तक कि अपने जीवन के उद्देश्यों में भी ये लोग विफल रहते हैं। खूब सारे लोग हमारे सम्पर्क में ऎसे आते हैं जो सशरीर तो हमारे पास होते हैं लेकिन उनका मन कहीं और अटका या भटका होता है। ऎसे लोग जिनका मन और शरीर अलग-अलग होने के आदी हो जाते हैं वे लोग ही असल में मुर्दों के बराबर होते हैं। ये लोग कभी निन्यानवें के फेर में अटके होते हैं, कभी चार सौ बीस के आँकड़ों में उलझे, कभी धन-दौलत, ऎषणाओं की पूर्ति, प्रतिष्ठा पाने या और कभी किसी सांसारिक चक्कर में। दिन-रात ऎसे उलझे रहते हैं कि इनका मन कहीं दूर लगा होता है और शरीर यहाँ। ऎसे लोग हर जगह मिल जाते हैं। किसी भी दफ्तर से लेकर दुकान तक और गलियारों से लेकर राजपथों तक।
जब ये सशरीर हमारे सामने होते हैं तब भी कोई बात सुनते नहीं हैं और न इन्हें कुछ सुनाई देता है। यानि कि इनकी अपनी धुन के आगे परिवेशीय स्पन्दन तक गौण हो जाते हैं। ऎसे लोग जीते जी मुर्दाे जैसे ही रहते हैं। जिन लोगों से हमारा अक्सर काम पड़ता रहता है उनमें भी खूब सारे लोग ऎसे हैं जिनकी रुचि उन्हीं कामों में होती है जिनमें कुछ मिलने की उम्मीद हो। इनकी वर्क कल्चर का बटन वह लार होती है जिसके टपकते ही काम शुरू हो जाता है। लार जितनी ज्यादा और लम्बी होगी, उतना काम स्पीड़ पकड़ेगा। बहुत से लोेग ऎसे हुआ करते हैं जिन्हें काम बताए जाने पर या तो वह वास्तव में व्यस्त होते हैं या बहाने बनाते हैं। फिर इन लोगों को जबरन अपने पास रोके रखने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि अपने पास रहेंगे तब भी उनका शरीर ही रहेगा, मन और बुद्धि तो कहीं और स्थानों या बिम्बों पर घूमती रहेगी। ऎसे में इन लोगों के शवनुमा शरीर को अपने पास रखने का कोई अर्थ नहीं है बल्कि इससे अपना काम भी संक्रमित होता है। इन जिन्दे मुर्दों का सामीप्य भी अपनी कार्यसंस्कृति और स्फूर्ति को सूतक लगाने वाला होता है।
हम कहीं दफ्तर में काम करते हों या बिजनैस में, अथवा और कहीं भी। जो लोग काम न करना चाहें उन्हें जबरन रोके रखने की प्रवृत्ति त्यागें, क्योंकि ये ही वे लोग हैं जिनका मन काम की बजाय कहीं और लगा रहता है और अपने पास रहेंगे तब भी मात्र उनका शरीर रहेगा। बिना मन-मस्तिष्क के ऎसे शवों को अपने पास रखने से तो बेहतर है कि खुद ही काम कर लिया जाए। जिन लोगों का अपने पर विश्वास नहीं होता, वे ही मुर्दों के समान व्यवहार करते हैं अथवा अभिनय करते हैंं। इन लोगों के चेहरों पर कभी खुशी या उत्फुल्ल होने का भाव नहीं दिखता। ऎसे लोग जब कभी मुस्कराने लगते हैं तब भी इन्हें जानने-समझने वाले इन पर शक करने लगते हैं कि आखिर ये मुस्करा क्यों रहे हैं, कहीं बीमार तो नहीं हो गए। अपने पास इस किस्म के लोगों को कभी न रखें जो मुर्दाल शक्लें लेकर घूमते हैं और हमेशा मुर्दों की तरह रहने के आदी हैं। इसके साथ ही यह भी जरूरी है कि जीवन भर जिन्दादिल रहना हो तो न सिर्फ ऎसे मुर्दों का साथ छोड़ दें, बल्कि इन जिन्दे मुर्दों की छाया तक से दूर रहें क्योेंकि मुर्दों का सूतक घातक होता है, फिर जिन्दा मुर्दों का सूतक तो और भी अधिक घातक हुआ करता है।
इन मुर्दों के लिए सुधार गृहों की आवश्यकता है जिनमें रखकर इन्हें बताया जाए कि वे जिन्दा हैं और जिन्दा रहकर काम करने के लिए आए हैं। इन मुर्दों को यह भी बताया जाना जरूरी है कि मन-बुद्धि और शरीर तीनों एक साथ होने पर ही पूर्ण जीवित माना जा सकता है। हमारे आस-पास तो ऎसे मुर्दों की भरमार है ही, हमारे अपने इलाकों में भी ऎसे लोग खूब हैं जिनके सूतक के मारे समाज के कई काम बाधित हो रहे हैं, दुर्गन्ध के भभके आ रहे हैं और आने वाली पीढ़ियों के लिए जो काम अब तक हो जाने चाहिए थे वे भी अवरूद्ध हो चले हैं। इन सूतकिया मुर्दों के मुख्य धारा में रहने तक समाज का भला नहीं हो सकता। इसलिए इन्हें तथास्तु कहकर ठिकाने लगाएं या किनारे। ये मुर्दें संक्रमण भी एकदम तेजी से फैलाते हैं इसलिए यह ध्यान रखें कि कोई मुर्दा हमारा मित्र या सम्पर्कित न हो, वरना संक्रमण का खतरा बरकरार है। इसलिए आज ही अपने परिचितों में से मुर्दों को छाँटें और उनसे मुक्ति पाएं।
जीवन में प्रत्येक कर्म की सफलता का आधार है जहां रहें वहां पूर्ण रहें। चाहे कोई सा काम करें, सभी ज्ञानेन्दि्रयों और कर्मेन्दि्रयों के साथ एकाग्र रहें। प्रत्येक क्षण पूर्णता का अनुभव करें और पूर्ण रहकर काम करें, तभी हम भी मुर्दा कहलाने से बच पाएंगे। मुर्दों की हरकतों से समाज पर पड़ रहे नकारात्मक प्रभावों की वजह से मुर्दों को दूर रखने या मुर्दों से दूर रहने का यह अर्थ नहीं है कि ऎसे लोगों को माफ कर दिया जाए अथवा उपेक्षित कर दिया जाए। बल्कि शवों की उत्तर क्रिया करनी बहुत जरूरी है। ऎसे लोगों को दण्डात्मक रास्ता इखि़्तयार कर हरसंभव दण्ड देना जरूरी है क्योंकि मुर्दों में प्राण फूंकने का काम इंसान ही कर सकता है और मुर्दों को ठिकाने लगाने का काम भी।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
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