शिशुपालों का अंत होना ही है ... - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।


मंगलवार, 2 अक्टूबर 2012

शिशुपालों का अंत होना ही है ...


शतकीय पारी का इंतजार करें !!


समाज में सत् और असत् का संघर्ष युगों से चला आ रहा वह शाश्वत सत्य है जिसे कभी भी न टाला जा सकता है न अस्वीकार किया जा सकता है। हर युग में दैवीय और पैशाचिक शक्तियों में संघर्ष रहा है और हर युग में उदासीनों का भी अस्तित्व रहा है। ऎसे में सत्यासत्य के बीच खिंचाव और टकराव अवश्यम्भावी है और इन्हें ही नियति मानकर चलने के सिवा और कोई चारा है ही नहीं। आजकल कलियुग का प्रभाव कुछ ज्यादा ही बढ़ता जा रहा है और ऎसे में स्वाभाविक रूप से आसुरी शक्तियों का प्रभुत्व और प्रचार अपेक्षाकृत ज्यादा हो चला है। अच्छे लोगों की पूछ रही नहीं, वे सारे के सारे हाशिये पर धकेले जा रहे हैं, बुद्धि और कर्मयोग का स्थान दुर्बुद्धि और निकम्मेपन ने ले लिया है। जिन लोगों को फुटपाथ पर हाथ पसारे बैठा होना चाहिए वे दोनों हाथों से लूटने का मौका पाते जा रहे हैं और जिन लोगों को अपार सम्पदा का स्वामी होना चाहिए वे लोग आज मौकों की तलाश में इधर-उधर की खाक छान रहे हैं।

समाज आज विषम परिस्थितियों के दौर से गुजर रहा है। जो किसी काम के नहीं हैं वे समृद्धि की मुख्य धारा का स्वाद पा रहे हैं, मनमर्जी से लूट-खसोट करने वालेे ईमानदारी और लोकप्रियता का प्रमाण पत्र पा रहे हैं, जिन्हें दुत्कारा जाकर हतोत्साहित किया जाना चाहिए उन लोगों को सम्मान दिया जा रहा है। एक नई प्रजाति विकसित होती जा रही है एक-दूसरे के लिए जीने की, और इस जीने के लिए किसी को भी मार डालने की आजादी के रास्ते खुलते जा रहे हैं। संबंधों का आधार खून या कुटुम्ब न होकर स्वार्थों की परस्पर पूर्ति ही रह गई है।

‘‘उष्ट्राणाम विवाहेषु गीत गायन्ति गर्दभाः ’’ आज समाज और क्षेत्र में चारों ओर प्रतिदर्शित एवं प्रतिध्वनित हो रहा है। मूर्खों की एक प्रजाति अपने जायज-नाजायज कामों की सफलता के लिए दूसरी प्रजातियों के मूर्खों और नुगरों का प्रशस्ति गान करने लगी है। प्रशस्तिगान भी ऎसा हास्यास्पद कि हर किसी को अचंभा हो ही। गधे घोड़ों के रूप में पूजे जा रहे हैं, खच्चरों के भाव बढ़ गए हैं, उल्लुओं और चिमगादड़ों को रेफरी मान लिया गया है, लोमड़ों के सर पर ताज फब रहे हैं, सियार शेरों की खाल  ओढ़े विचरण करने लगे हैं और जो लोग कहीं से आदमी होने लायक नहीं हैं वे महापुरुष होने लगे हैं। दोनों ही प्रजातियां एक-दूसरे की कमियों और दुर्गुणों को जानते-बूझते हुए भी मिथ्यागान करते नहीं अघाती। एक जमाना था जब लोग अच्छे गुणों और कर्मों से जाने-पहचाने जाते थे। आज आदमी अपने आप से नहीं, उन लोगों से जाना जाने लगा है जिनका जयगान करते हुए जिन्दगी भर परिक्रमा करता रहता है, पिछलग्गू की तरह पीछे-पीछे चलता रहता है और हाँ में हाँ मिलाता हुआ आगे बढ़ता रहता है। आजकल बहुत बड़ी संख्या ऎसे लोगों की हो गई है जो लोगों का दिल दुःखाने के साथ ही अपराध पर अपराध करते जा रहे हैं,  उनके जीवन में मर्यादाओें और अनुशासन, धर्म या आदर्शों का कोई महत्त्व नहीं रह गया है बल्कि अपने अंधे स्वार्थों को पूरा करने के लिए वे किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हैं। अपने काम को अंजाम देने के लिए वे उन सभी आसुरी वृत्तियों का अवलम्बन करते हुए दिन-रात भिड़े हुए हैं जिनसे पुराने युगों में देवताओं ने लोहा लिया। शरीर चाहे किसी भी कुल में अवतरित हुआ हो, मगर इन आसुरी लोगों की आदतों का भी पूरी तरह आसुरीकरण हो गया है।

आज समाज के सामने राक्षसी स्वभाव वाले लोगों की संख्या कुछ ज्यादा ही बढ़ी हुई है और ऎसे में जगह-जगह ऎसे लोगों के समूह बन गए हैं जैसे कि पुराने जमाने में दस्युओं का काम करने वाले कबीले हुआ करते थे। कहीं खूब संख्या हो गई तो कबीला बहुत बड़ा हो गया, कहीं छोटा। इन कबीलों की वजह से शेष सृष्टि पर हमेशा खतरा मण्डराता रहा है।

तकरीबन यही हालात महाभारतकाल में पैदा हो गए थे जब धर्म संस्थापनार्थाय भगवान श्रीकृष्ण को अवतार लेना पड़ा था। आज की सारी परिस्थितियों को देखते हुए यह निश्चय जान लेना चाहिए कि महाभारत के उन सभी पात्रों का पुनर्जन्म हो चुका है जिनकी वजह से महाभारत हुआ। आज हमारे सामने धृतराष्ट्र, गांधारी, भीष्म, द्रोण, शकुनि और सारे के सारे पात्र किसी न किसी नाम और रूपों में नज़र आते हैं। इनकी हर वृत्ति को देख-सुन कर हमें याद आ जाती है महाभारतकाल की। तब और आज में अन्तर सिर्फ इतना आ गया है कि उस जमाने में जो पात्र थे उनमें से बुरे पात्र आजकल बहुगुणित होकर यहाँ-वहाँ छितरा गए हैं और वे उस युग से भी कहीं ज्यादा उन्मुक्त और सार्वजनीन प्रतिष्ठा पा चुके हैं। इन्हीं में शिशुपालों की संख्या भी बेतहाशा बढ़ी हुई है। अन्तर सिर्फ इतना आ गया है कि उस जमाने में सौ अपराधों पर शिशुपाल का उन्मूलन हुआ था और आज के शिशुपालों को सहस्र अपराध करने का लाइसेंस मिला हुआ है। आज के शिशुपालों को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि उनके लिए अपराधों की कोई सीमा नहीं है। हमारे आस-पास से लेकर अपने क्षेत्र में भी शिशुपालों की संख्या कोई कम नहीं है। थोड़ी सी सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर लेने पर हमें ज्ञात हो जाता है कि कौन शिशुपाल कहाँ बैठा है।

समाज में हर तरफ व्याप्त ये शिशुपाल इतने अमर्यादित और उन्मुक्त-स्वच्छन्द हैं कि इनकी हरकतों ने लोक जीवन में अशांति और असुरक्षा का जहर घोल दिया है। सारी लज्जा और मर्यादा के साथ ही अपने मनुष्य होने का भान भुला बैठे ये शिशुपाल भांति-भांति के परिधानों में निरन्तर नए-नए अभिनयों के जरिये कमा खा रहे हैं,और अपनी चवन्नियां चला रहे हैं। कोई चमड़े के सिक्के चला रहा है, कोई बाहुबल, धनबल और राजबल का प्रयोग कर रहा है। पहले एक ही शिशुपाल अपने होने का दम भरता था, आज शिशुपाल समूहों के रूप में गलबहियां करते हुए समाज में भय और आतंक फैला रहे हैं। इन शिशुपालों ने अपने षड़यंत्रों से पूरे समाज को स्तब्ध कर रखा है जहां लोगों को हर कहीं निराशा ही दिखाई देने लगी है। प्रकृति कभी भी शिशुपालों को ज्यादा दिनों तक बर्दाश्त नहीं करती। अब समय आता जा रहा है, शिशुपालों को भी अब चुनौतियाँ मिलने लगी हैं। इन्तजार है तो बस इनके अपराधों की संख्या पूर्ति का। मौका जल्द आ रहा है, तैयार रहिये शिशुपालों की अन्त्येष्टि का आनंद पाने।


---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

कोई टिप्पणी नहीं: