हम में ही है कोई कमी !!!!
लोगों की पसंदगी और नापसंदगी का आधार सिर्फ हमारा अच्छा या बुरा होना ही नहीं है बल्कि यह कई कारकों पर निर्भर करता है। वो बीते जमाने की बात हो गई है जब संबंधों और पसंदगी या नापसंदगी का एकमात्र आधार किसी का भी अच्छा या बुरा होना माना जाता था। जो अच्छा होता था, समाज के लिए उपयोगी और समाज के हितों का चिंतन करने वाला होता था उसे सभी लोग पसंद किया करते थे। अच्छे काम करने वालों का सम्मान और आदर भी हुआ करता था और इस किस्म के लोगों को समाज तथा क्षेत्र की ओर से भरपूर प्रोत्साहन भी प्राप्त होता था। दूसरी ओर बुरे काम करने वाले उस जमाने में भी कोई कम नहीं थे मगर उन दिनों ऎसे लोगों को न आदर-सम्मान प्राप्त था न इन्हें कोई प्रश्रय प्रदान करता था। उलटे ऎसे लोगों को तिरस्कृत करना ज्यादा श्रेयस्कर समझा जाता था और यह कार्य दूसरे लोग पूरी निर्भीकता के साथ किया करते थे।
आज स्थिति ठीक इसकी उलट है। जब आदमी में सच को कहने और सुनने तक का साहस नहीं रहा, आदमी वही सुनना और कहना चाहता है जो उसे पसंद है, भले ही वह सौ फीसदी झूठ या कल्पना ही क्यों न हो? आज लोग दोहरे-तिहरे चरित्र वाले हो गए हैं, कथनी और करनी में भारी अंतर आ गया है, आदमी सोचता कुछ और है, सुनता कुछ और, तथा करता कुछ और है। ऎसे में कुछ बिरलों को छोड़ दिया जाए तो आज का आदमी अपने स्वार्थ के फेर में कुछ भी कर लेने को स्वतंत्र ही नहीं बल्कि स्वच्छंद लगता है। आदमी पूरी उन्मुक्तता के साथ, बिना किसी मर्यादा रेखा के जीना और सब कुछ कर गुजरना चाहता है। अपने घर-परिवार, कर्मक्षेत्र या कहीं और की बात हो, हम हर कहीं चाहते हैं कि लोग हमें पसंद भी करें और हमारा आदर-सत्कार भी। लेकिन हम यह भूल जाते हैं कि हम जो स्वागत-सत्कार और अभिनंदन चाहते हैं उसके हम हक़दार हैं भी या नहीं। आमतौर पर स्वागत और सत्कार दो प्रकार से होता है। एक तो औपचारिक होता है जिसमें हृदय की गंध तक नहीं होती और न कोई महक या भावनाएं, बल्कि यह रस्म अदायगी मात्र होती है। दूसरी ओर दिली भावनाओं और श्रद्धा के साथ स्वागत सत्कार होता है।
लेकिन यह तभी संभव है जब हम किसी को दिल से चाहें। हमारा हृदय जिसे स्वीकार नहीं करता है उसके लिए हम कुछ भी ढोंग कर लें, इसका कोई अर्थ नहीं है। किसी भी अच्छे या बुरे आदमी के लिए यह कोई जरूरी नहीं है कि उसे सभी लोग पसंद या नापसंद करें।
इसके पैमाने देश, काल और परिस्थितियों तथा संबंधों की प्रकृति के अनुरूप निरन्तर बदलते रहते हैं। कई बार हम कितने ही अच्छे हों, लोग हमसे ईष्र्या और द्वेष की वजह से भी जलते रहते हैं, वे अपने कर्म क्षेत्र के तथाकथित सहयोगी हो सकते हैं, सहधर्मी भी, सहकर्मी भी, या फिर अपने तथाकथित मित्र और परिचित भी। कई बार यह देखा जाता है कि कोई कितना ही बुरा क्यों न हो, लोग अपने स्वार्थों की पूत्रि्त की खातिर उसे अच्छा ही कहेंगे, मजबूरी में या और किसी कारण से। कई लोग ऎसे होते हैं जिन्हें पसंद या नापसंद करने वालों की संख्या न्यूनाधिक घटती-बढ़ती रहती है। इन सभी का किसी भी व्यक्ति के जीवन पर कोई असर नहीं पड़ता।
कई मर्तबा होता यह है कि अच्छे-अच्छे लोगों की हम या हमारे आस-पास के लोग बुराइयां करने लगते हैं। ऎसे में यह देखना चाहिए कि जो बुराइयां कर रहे हैं वे स्वयं भी दूध के धुले हुई नहीं हैं तथा ऎसे लोग सभी की बुराइयां करने वाले हैं। आज इसकी, कल उसकी। इनका तो धंधा ही है बुराई करना। इसमें वे किसी को भी छोड़ते नहीं। ऎसे लोगों की क्रियाओं और प्रतिक्रियाओं की ओर ध्यान देना मूर्खता और अपना समय गंवाने से ज्यादा कुछ नहीं है। लेकिन यह बात हमेशा ध्यान में रखनी चाहिए कि जब अच्छे लोग बहुसंख्या में हमें पसंद नहीं करें तब गंभीर चिंतन करना चाहिए क्योंकि दो-चार लोग अपने लिए बुरे हो सकते हैं या हमें नापसंद कर सकते हैं लेकिन जब ज्यादा संख्या में अच्छे लोग हमें नापसंद करने लगें, तब हमें अच्छी तरह भान हो जाना चाहिए कि हमारे भीतर कोई न कोई कमी है अथवा कमी की शुरूआत हो गई है।
यह कमी कभी अहंकार के रूप में सामने हो सकती है, कभी अपने को ऊँचा समझने और उच्चाकांक्षाओं को पालने दूसरों को हीन मान लेने की वृत्ति। क्योंकि सारे अच्छे माने जाने वाले लोगों की धारणा हमारे लिए नकारात्मक होने का सीधा मतलब है कि हम उन लोगों की नज़रों में कहीं न कहीं गिरे हुए हैं। यहाँ अच्छे लोगों से मतलब प्रभावशाली और सम सामयिक आकाओं या किसी ध्ांधेबाज आदमी से नहीं है बल्कि उन लोगों से है जो जीवन जीने का मर्म समझ गए हैं, जिनका चरित्र उत्तम है और जिनके जीवन और उपदेशों का लोग अनुकरण करते हैं। और इन लोगों से हमारा किसी भी प्रकार का परोक्ष या अपरोक्ष स्वार्थ नहीं हुआ करता है। ऎसे निरपेक्ष लोगों में ही हुआ करती है मूल्यांकन की स्वस्थ और निर्विकार दृष्टि।
ह
म अपने आपको कितना ही महान और प्रभावशाली क्यों न मानते रहें, जब तक अच्छे लोग हमें अच्छा नहीं स्वीकारें, तब तक हम न अच्छे हो सकते हैं और न ही हमें अच्छा कहलाने का अधिकार है। बल्कि हम अपने अहंकार में इतने फुल कर कुप्पा हुए जा रहे हैं कि हमें ही पता नहीं है कि आखिर इन गुब्बारों को कहाँ जाना है और इनका हश्र क्या होना है? अच्छा हो हम समय पर चेत जाएं वरना गुब्बारों का अंतिम हश्र तो सभी जानते हैं, आस-पास के लोग भी सूई चुभो सकते हैं या परिवेशीय काँटों का स्पर्श भी कर सकता है फुस्स। फुस्स होने का इंतजाम तो ईश्वर गुब्बारों के भरने के समय ही कर दिया करता है। इससे तो अच्छा है हम समय-समय पर शांति चित्त होकर अपना आत्म मूल्यांकन करते रहें और जहां कहीं कोई कमी नज़र आती है उसे दूर करें। इसी का दूसरा नाम है मनुष्यता। थोड़े से भी बीज हमारे भीतर हों तो कोई कारण नहीं कि हम अपने आपको सुधार पाने के सफर में कुछ डग आगे बढ़ा सकें। सत्य को स्वीकार कर आत्मावलोकन करने भर की जरूरत है।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com
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