आजकल बहुत ज्यादा पैमाने पर जो शब्द प्रयुक्त हो रहे हैं उनमें प्रबुद्धजन और बुद्धिजीवी शब्द अधिक से अधिक प्रचलन में आ रहे हैं। बुद्धिजीवी होने का अर्थ अब ज्ञान या किसी क्षेत्र विशेष में योग्यता या विद्वत्ता का पर्याय नहीं रहा है बल्कि बुद्धिजीवी या प्रबुद्धजन होने का अर्थ सीधे तौर पर यह रह गया है कि वह व्यक्ति जो समाज और देश के लिए जीने मरने और कुछ कर गुजरने की बजाय अपने आपको दार्शनिकता के मिथ्या लबादों में ढंका रहे और देश-समाज या अपने आस-पास जो कुछ हो रहा है उस तरफ स्थितप्रज्ञ होकर तटस्थ बैठा रहे। न कुछ क्रिया करे, न प्रतिक्रिया। बल्कि वहीं पर प्रतिक्रिया करे जहां उसका कोई स्वार्थ सध रहा हो अथवा पूरा न हो रहा हो। सब कुछ तटस्थ होकर अपने हक में चुपचाप देखते रहना और अपने काम में मस्त रहना। यों देखा जाए जो बुद्धिजीवी या प्रबुद्धजन वही हो सकता है जो समाज और देश के प्रति संवेदनशील हो। संवेदनहीन लोगों के लिए न बुद्धि का कोई उपयोग है, न और किसी उत्प्रेरक का।
आजकल ऎसे लोगों की खूब बाढ़ आ गई है जो अपने आपको बुद्धिजीवी या प्रबुद्धजन की श्रेणी में रखने को अपना गौरव समझते हैंं। ऎसे बुद्धिजीवियों से तो वह मजदूर अच्छे हैं जो समाज के किसी न किसी काम तो आ रहे हैं। छद्म बुद्धिजीवियों की यह जमात तो ऎसी है कि कुछ भी होता रहे, उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि कभी कभार ये उच्चस्तरीय और गुणी तमाशबीन की भूमिका में भी नज़र आ ही जाते हैं। ये तब तक ही सुप्त पड़े रहते हैं जब तक कि इनका कोई स्वार्थ सामने नहीं हो। इनका स्वार्थ पूरा हो जाए तो जयगान करने से लेकर चरण स्पर्श और परिक्रमाओं और इनसे भी कहीं आगे बढ़कर सर्वस्व समर्पण तक से नहीं हिचकते। और स्वार्थ पूरा न हो तो पूरा आसमान ऊपर उठा लेने का सामथ्र्य रखते हैं ये। हालांकि समाज में असली बुद्धिजीवियों की भी कोई कमी नहीं है जिन्हें पता है कि उनकी बुद्धि का कौनसा प्रयोग जायज है और कौनसे प्रयोग से बुद्धि लज्जित होगी। लेकिन बहुसंख्य लोग ऎसे नहीं हैं। बुद्धिजीवी होना अलग बात है और बुद्धिजीवी होकर जीना अलग बात है। बुद्धिजीवी होने का यह अर्थ नहीं है कि अनुभवों और ज्ञान के लबादों में धँस कर किसी माँद में पड़े-पड़े चिंतन करते रहें और इसी फिराक में बैठे रहें कि जमाना हमें धीर-गंभीर और विद्वान मानकर आदर करे, सदा मुख्य अतिथि, विशिष्ट अतिथि, अतिविशिष्ट अतिथि या अध्यक्षता का सुख अपने आप मिलता रहे, हमारी लोकप्रियता में बढ़ोतरी हो और हमारे अपने स्वार्थ बिना किसी की जानकारी में आए चुपचाप पूरे होते रहें। ऎसा सोचना उस समाज और देश के साथ गद्दारी है जिसमें हम रहते हैं और हमारे पुरखे जिसे विकसित करते आए हैं।
असल में बुद्धिजीवी वही है जो समाज की चिंता करता है और समाज के लिए जीने-मरने का माद्दा रखता है। बुद्धिजीवी वह नहीं जो अपनी प्रतिष्ठा को बचाये रखने के लिए बुद्धि को बाजारू और बिकाऊ मानकर समाज और देश की प्रतिष्ठा मिट्टी में मिलते हुए चुपचाप देखता सुनता रहता है और नपुंसकों, तमाशबीनों की तरह सिर्फ अपनी ही मौज-मस्ती में रमा रहता है। बुद्धिजीवी वही है जो समाज और देश के हितों की सोचे और उस दिशा में काम भी करे। हम कुछ न कर सकें तो कम से कम समाज को जगाने और देश की अस्मिता को बचाये रखने के लिए वैचारिक क्रांति का तो सहारा ले ही सकते हैं। उन लोगों को लानत है जो इस देश का पानी पीते हैं, इस देश का अन्न खाते हैं लेकिन देश की मिट्टी से प्यार नहीं करते, हरामखोरों की तरह बुद्धिजीवी होने का भ्रम पाले हुए अपने दड़बों में दबे रहते हैं। आज नहीं तो कल लोग ऎसे निर्वीर्य, नपुंसकों और कायरों पर थुकेंगे।
हमें किसका भय क्यों होना चाहिए। हमारा तन-मन और धन मातृभूमि के लिए है और इसके लिए कुछ भी करना पड़े, हमें तैयार रहना ही चाहिए। यह सिखाने के लिए विदेशियों की सीख का इंतजार क्यों रहता है हमें.....। हमें अपने बुद्धिजीवी होने पर तभी गर्व का अहसास हो सकता है जबकि हम तन्द्रा छोड़ें और कुछ करें। समाज और देश के लिए कुछ करना ही चाहते हों तो समय का सदुपयोग करें और सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, वैकासिक तथा परिवेशीय स्थितियों, सम सामयिक हालातों पर अपनी सुस्पष्ट, बेबाक और निर्भीक टिप्पणी दें, समुदाय और परिवेश से जुड़ी रचनात्मक गतिविधियों में हिस्सेदारी अदा करें, अपने ज्ञान और हुनर से समाज को लाभान्वित करें, ताकि समाज को नई जानकारी तथा अनुभवी राय से रूबरू होने का मौका मिल सके। हमारी उस बुद्धि के प्रयोग का असर समाज के सामने आना चाहिए जिस बुद्धि के बूते हम कमा-खा रहे और घर भर रहे हैं। वो समय चला गया जब हम तटस्थ बने रहकर सब कुछ चुपचाप देखते रहने के आदी हो चले थे। तटस्थता तोड़ें और समाज एवं देश के लिए जीने मरने के जज्बे के साथ काम करें।
सम सामयिक विषयों के प्रति संवेदनहीनता और तटस्थता, हद दर्जे की कायरता जैसी स्थिति यथास्थितिवाद और नपुंसकता से ज्यादा कुछ नहीं है। यह स्थिति हम सभी के लिए शर्मनाक है। यह देखें कि हमारे बाद स्वतंत्र हुए राष्ट्र आज कितनी तरक्की कर चुके हैं। जिस देश में विवेकानंद पैदा हुए हैं, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस पैदा हुए हैं, उस देश में कायरों और तटस्थ लोगों का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। समाज और देश की घटनाओं तथा गतिविधियों के प्रति उदासीनता, संवेदनहीनता और तटस्थता यही सिद्ध करती है कि हमारा रक्त शुद्ध नहीं है, कहीं न कहीं बीज तत्व में कोई प्रदूषण है वरना हम जो हरकतें कर रहे हैं, टाईमपास कर रहे हैं, वह हमारे पुरखों को और वंश को लज्जित करने वाला ही है। हम सभी असली-नकली और तथाकथित बुद्धिजीवियों को चाहिए कि उठें, जगें और तब तक कर्म करते रहें जब तक कि लक्ष्य प्राप्त न हो जाए। इतना सब कुछ शर्मनाक दृष्टांत पढ़ने और सुनने के बाद भी अपने क्षेत्र या समुदाय के लिए कुछ न कर सकें तो अपनी हवेलियों और प्रासादों में तसल्ली से आराम फरमाते हुए उस दिन की प्रतीक्षा करनी होगी जब धरती हमारे भार से मुक्त होने का सुकून पाकर प्रसन्न हो उठे। आज नहीं तो कल, एक न एक दिन तो वह पावन घड़ी आएगी ही।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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