मोदी को भाजपा में अंदरूनी जितनी चुनौतियां मिल रही हैं, उतनी उन्हें बाहरी नहीं। दरअसल कांग्रेस तो चाहती ही है, कि मोदी ही भाजपा का असली चेहरा हों, तो उन्हें यह आसान हो जाए कि दंगों को फैलाने में किस तरह से भाजपा आगे है। विकास के मॉडल को तो खैर पैरेलल कुछ टेढ़ी मेढ़ी बातें करके भटकाया ही जा सकता है। खासकर दिज्विजय सिंह जैसे लोग तो इसके लिए ही बने हैं। उन्हें तो इसमें पीएचडी है कि वे कैसे किसी पर पर्सनल अटैक कर दो, कैसे उसके जीवन के अन्य पहलू पर आ जाओ ताकि वह मुख्य मुद्दे से भटक जाए। बाकी कसर पूरी करने के लिए अभिषेक मनु सिंघवी हैं ही। और रही सही तो मनीष तिवारी कपिल सिब्बल के साथ मिलकर कसर पूरी कर ही देंगे। राहुल मोदी के सामने उम्र, सोच, सियासी डायनेस्टी और पारंपरिक फॉलोअर्स जैसे राजनैतिक मानदंडों पर पहले ही भारी हैं।
अब मोदी को जो चुनौतियां हैं जरा उन्हें समझा जाए। पहली तो दंगाई वाली छवि को दूर करना, दूसरी मैं और सिर्फ मैं की सुपर आई इमेज से हम में आना, तीसरी मुस्लिम केंद्रित राजनीति करने वाली क्षेत्रीय पार्टियों को सिंकदरों को अपने में समाना। इन तीन के बाद चुनौतियां खत्म नहीं हो जाती, बल्कि दो और हैं, जो बिल्कुल ही जुदा हैं। इनमें एक्पीरिएंस या भाजपा को जीवन देने वाले सियासतदां के आगे कैसे इतनी सीनियर होकर खड़े हो जाएं, कि उनका अक्स ही गायब हो जाए। वहीं अंग्रेजी भी उनकी एक कमजोरी में शुमार है।
बहरहाल मोदी के दो दिन में हुए तीन भाषणों पर जरा गौर किया जाए। पहला फिक्की, जहां पर वह महिला आरती गाते नजर आए। यह कोई महिलाओं की चिंता नहीं थी, बल्कि दूसरे दिन बंगाल की तैयारी थी। एनडीए ममता को राजनैतिक घोषणापत्र में सांझा कोई कार्यक्रम के जरिए तो आकर्षित कर नहीं सकता। चूंकि बंगाल में बड़ा जनाधार ममता का मुस्लिम हैं। ऐसे में मोदी का यह कार्ड सियासी सुजान वाला कार्ड कहा जा सकता है। वह फिक्की में अस्पृहा होकर महिलाओं की तारीफ और संघर्ष की बात करते रहे। अब बात करते हैं शाम को टीवी-18 ग्रुप के कार्यक्रम डायलॉग की। यहां पर मोदी ने गवर्नेंस से जुड़ी अच्छी बातें कही। यानी टीवी को साधने वाली सब्ज बाग दिखाने वाली, वैचारिक मंथन से निकली रसभरी आत्मविश्वस्त मौजूदा संसाधनों से भी सब कुछ कर सकने की क्षमता वाली बात। यानी वह दावेदारी की वजह जो मीडिया उनकी ओर से कर रहा है। अब बात करते हैं कोलकाता की। यहां पर मोदी ने राजनैतिक बातें की। गड्ढों के जरिए गढ्ढों को मिलाकर चोटी बनाने की बात। यह भी चतुर सुजान सियासतदां ही कर सकता है। यह सच नहीं है कि वह ऐसे हैं किंतु यह सज है कि वे ऐसे हो सकते हैं। बंगाल में इकतरफा मीडिया ने यह चलाया कि ममता को साधने गए मोदी। साधा भी, किंतु ममता की कोई प्रतिक्रिया नहीं यानी वह सध गईं या नहीं। सियासत में प्रतिक्रिया मायने रखती है, अगर आप कुछ नहीं बोलते तो माना जाता है कि आपने वही बोला है जो आपने सुना है। और अगर कुछ बोलते हो तो बात स्पष्ट नहीं होती।
एक बार फिर से चुनौतियों पर आते हैं। यानी मोदी को अंदरूनी जो चुनौतियां हैं वे जरा सुनिए। अंदर के लोग कह रहे हैं, मोदी सबको लेकर नहीं चलते। वे कह रहे हैं, उनकी छवि हिंदूवादी से ज्यादा मुस्लिम विरोधी है। वाक्य के गूढ़ार्थ को समझिएगा। वे कह रहे हैं, मोदी जैसे शिवराज, रमन भी हैं। अगर सीएम लेवल पर परफॉर्मेंस अच्छा है तो फिर तो बीजेपी में कई लोग हैं। भाजपा काम तो करती ही है। इन सबको गलत साबित करना मोदी की वाणी के बसका नहीं, तो वह चल पड़े कर्मणा शक्ति के इस्तेमाल पर। यानी वे साबित करना चाहते हैं, महिलाओं की बात करके ममता साथ आ सकती है, बिहारी इतने बड़े फॉलोअर्स हैं कि नीतीश चिढ़े भी रहें तो शरद आ जाएंगे, जयललिता साथ है हीं। शिवसेना को ऐतराज नहीं, एसपी और बीएसपी की जरूरत नहीं न वे विश्वनीय हैं। पवार तक को मोदी अपने साथ लेकर चलने की बात को साबित करके बताना चाहते हैं अपनी सियासी तिकड़म, इसके साथ ही मोदी सरप्राइज देना चाहते हैं कि येदियुरप्पा सिर्फ मोदी के कारण भाजपा के साथ आएंगे।
---वरुण के सखाजी---

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