मनुष्य वही जिसे, जमाना हृदय से स्वीकारे - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 4 अप्रैल 2013

मनुष्य वही जिसे, जमाना हृदय से स्वीकारे


दुनिया भर में कई प्रकार के लोग होते हैं लेकिन इनमें असली इंसान वही है जिसे जमाने के लोग हृदय से स्वीकारें और स्नेह या श्रद्धा अभिव्यक्त करें। इंसान को इंसान ही स्वीकार कर सकता है। इसलिए अपने आपको इंसान बनाने के प्रयत्नों पर सर्वाधिक जोर दिया जाना जरूरी है। शैशव से लेकर प्रौढ़ता पाने और बुजुर्गियत तक इंसानियत के भण्डार को समृद्ध करते रहना और इंसानियत के उपयोग के लिए रमे रहना हर अच्छे इंसान के लिए नितान्त जरूरी होता है। आदमी को घर-परिवार और समाज तथा क्षेत्र के सभी प्रकार के सामाजिक और परिवेशीय सरोकारों को पूरा करने के लिए जिन आदर्शों और संस्कारों की जरूरत हुआ करती है उन्हीं से मिलकर आकार लेती है इंसानियत, जो आदमी के वजूद और कद दोनों को तय करती है। लोग अपनी लोकप्रियता और प्रतिष्ठा को बनाए तथा बचाये रखने के लिए जो जतन करते हैं उन सभी का ध्येय यही होता है कि जमाना और जमाने भर के लोग उन्हें स्वीकारें। इस स्वीकार्यता को सार्वजनीन करने के लिए लोग मिथ्या दंभ, आडम्बर और झूठ का सहारा लेते हैं, बनने की कोशिशें करते हैं, डींगे हांकते हैं और अपने आपको सर्वश्रेष्ठ साबित कर दिखाने के लिए तमाम प्रकार के हथकण्डों और षड़यंत्रों का सहारा लेते हैं।

कभी प्रलोभन और कभी दबाव तथा कभी ब्लेकमेलिंग के रास्तों का सहारा लेते हैं तथा कभी ऎसे दूसरे गोरखधंधों का, जिनसे इंसानियम शर्मसार होती है। लेकिन इन सभी हरकतों और करामातों के बावजूद लोग चालबाजों, व्यभिचारियों, भ्रष्ट और शुचिताहीन लोगों को कभी नहीं स्वीकारते। इसका मूल कारण यह है कि स्वीकार्यता उसी की होती है जिसे हृदय से स्वीकारा जाए वरना किसी की स्वीकार्यता असल में होती ही नहींं। कोई कितना ही बड़ा आदमी हो, उसे भले ही लोकप्रिय और यशस्वी होने का भ्रम हो जाए, मगर वह उतना ही अलोकप्रिय और कीर्तिहीन होता है और वक्त आने पर उसका असली चेहरा और वजूद सभी के सामने आ ही जाता है। आज दुनिया में खूब लोग काम कर रहे हैं। समाज और देश के लिए, अपने लिए और घर-परिवार से लेकर सभी परिचितों और संपर्कितों के लिए। अनुचरों के लिए भी और दासों के लिए भी। लेकिन सारे के सारे लोकप्रिय हों ही सही, यह संभव नहीं है। क्योंकि लोग उसी को स्वीकार करते हैं जिसकी कथनी और करनी में अंतर न हो। वाणी और आचरण में समानता हो तथा जीवन और परिवेश के जुड़े तमाम आयामों में शुचिता के भाव हों। कथनी और करनी में जब तक समानता रहती है तभी तक चेहरा और हृदय शुद्ध-बुद्ध रहते हैं और चेहरे पर अजीब सा आकर्षण, भोलापन और ओज रहता है।

इस संतुलन के जरा से भी गड़बड़ा जाने पर चेहरा सब कुछ बयाँ करने की स्थिति में आ जाता है। चेहरे के भावों में कृत्रिमता और धूत्र्तता झलकने लगती है, ओज का स्थान अंधेरा ले लेता है और मौलिक सौंदर्य धीरे-धीरे पलायन कर जाता है। पर आजकल लोग अपने मन से लेकर आँखों और चेहरे तक को आडम्बरी बनाने में कामयाब हो गए हैंं। लोग क्या सोच रहे हैं, क्या कह रहे हैं, क्या करने वाले हैं और क्या कर गुजरते हैं इसकी झलक अब आसानी से नहीं पायी जा सकती है बल्कि आदमी का चरित्र बहुरूपिया हो चला है। वह देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप गिरगिटी हो चला है तथा भ्रमित कर देने के तमाम तिलस्मों में इतना माहिर हो चला है उसकी थाह पाना मुश्किल हो चला है। हालांकि शुचिता से परिपूर्ण लोगों के लिए ऎसे आदमियों की थाह पाना कोई असंभव नहीं है फिर भी आम लोगों के लिए कुछ खास लोग जिन्दगी भर पहेली बने रहते हैं। अपने इलाके में भी कई सारे खास लोग ऎसे हैं जो लोगों के लिए पहेली बने हुए हैं। जब कहीं कुछ नहीं करने की इच्छा हो तब ये खास लोग खेतों में खड़े बिजूकों की तरह बिना हिले-डुले पड़े रहते हैं और कभी हवाओं को अपने पक्ष में जानकर औरों को डराने के जतन करने में जुट जाते हैं।

कभी ये ही खास लोग बोलते कुछ हैं और करते कुछ। इनकी पूरी जिन्दगी दोहरे-तिहरे और बहुआयामी चौराहों, सर्कलों और रास्तों का साथ लेते हुए चुपचाप अपने लक्ष्यों का संधान करती रहती है। आज हालात बड़े विचित्र हो गए हैं। हर तरफ आडम्बरी जीवन का साया भूत-पर््रेतों और चुडैलों की तरह मण्डराने लगा है। इन सबके बावजूद जो लोग यह चाहते हैं कि दुनिया में उनका नाम हो, लोग मन से उन्हें स्वीकारें तथा उनकी यश-प्रतिष्ठा में अभिवृद्धि होती रहे, उन लोगों को चाहिए कि वे कथनी और करनी में अंतर न रखें और ऎसे काम करें जो समाज के लिए उपयोगी तथा कल्याणकारी हों, जो भी कुछ काम करें वे मानवीय आदर्शों और संस्कारों से इतने परिपूर्ण हों कि लोग उनका अनुकरण करें। किसी भी व्यक्ति को असली लोकप्रिय तभी माना जा सकता है जब आम लोगों के हृदय में उनके प्रति अच्छी भावना हो, श्रद्धा हो तथा लोग उन्हें मन से स्वीकारें। भाषणों और नारों में किया गया कीर्तिगान ओंठों तक ही सीमित नहीं रहता है बल्कि यह सब किराये के शब्द होते हैं अथवा भरमायी हुई भीड़ के। इसलिए जीवन चरित्र, कर्मयोग और व्यवहार सभी पहलुओं में शुचिता के साथ ऎसे काम करें कि जमाना हमें हृदय से स्वीकारे और दुआएं दें।







---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077

dr.deepakaacharya@gmail.com

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