आज चारों तरफ परशुराम जयन्ती का उल्लास है। भगवान परशुराम ने समाजसुधार, धर्म स्थापना और परिवेशीय प्रदूषणों तथा खर-दूषणों को समाप्त करने का जो ऎतिहासिक काम कर दिखाया है, समूचे ब्रह्माण्ड में महापरिवर्तन का युगीन इतिहास रचा और नई दृष्टि और सृष्टि से रूबरू कराया, वह अपने आप में भारतीय इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है जिसे सृष्टि रहने तक याद किया जाता रहेगा। भगवान परशुराम किसी एक जाति, सम्प्रदाय या वर्ण के नहीं बल्कि ब्रह्माण्ड भर के अपने हैं। ये अलग बात है कि हमने अपनी पहचान को बनाये रखने या कि संगठन क्षमता को धारण कर रखने के लिए इन देवी-देवताओं, अवतारों और महापुरुषों को जातियों, संप्रदायों, मत-मतान्तरों और पंथों से लेकर वर्णों व संकीर्ण परिधियों बांध दिया है और यही कारण है कि जो विचार या उपदेश, जीवन पद्धति और कर्मयोग वैश्विक होना चाहिए वह संकीर्ण परिधियोें में कैद होकर रह गया है।
यह उन सभी महान युगपुरुषों, देवी-देवताओं, अवतारों का अपमान है कि हमने अपने स्वार्थों के लिए उनको अपने संकीर्ण दायरों से बाँध रखा है। आज अक्षय तृतीया का दिन भगवान परशुराम जयन्ती को समर्पित है और इसीलिए हम सभी उन्हेंं याद कर रहे हैं। भगवान परशुराम को याद करने का अर्थ यह होना चाहिए कि हमारी उनमें अगाध आस्था है और उनके अनुगामी या भक्त हैं। सभी तरह ‘जय परशुराम’ के जयकारों ने आसमान गूँजा रखा है। भगवान परशुराम के जयकारे लगाने वालों में से अधिकांश लोगों को उनके उपदेश, कार्यों से कोई सरोकार नहीं होता। बल्कि एक दिन संगठन और एकता का शक्ति प्रदर्शन दिखाना भर रह गया है। भगवान परशुराम का जयकारा अब उस वर्ग के लिए स्टेटस सिम्बोल ही बनकर रह गया है जिसे आदिकाल से समाज को नेतृत्व प्रदान करने वाला, निर्देशक और श्रेष्ठ कहा जाता रहा है। पर आज हम कहाँ हैं, इसे कोई नहीं सोचता। जयकारे लगाकर एकता का दिग्दर्शन कराना अलग बात है और वास्तव में एकता के सूत्र में बंधकर समाज और राष्ट्र के लिए समर्पित होना दूसरी बात है।
आज हममें से कितने लोग परशुराम के कार्यों और उपदेशों पर चल रहे हैं? आज हम जो काम कर रहे हैं, उनमें और भगवान परशुराम के कार्यों और जीवन व्यवहार में क्या समानता है? इन प्रश्नों का उत्तर हम अपने आप सोचने लग जाएं तो हमें अच्छी तरह पता लग जाएगा कि हमारे वर्तमान कर्मों और जीवन व्यवहार को देखते हुए भगवानश्री परशुरामजी का स्मरण करने और ‘जय परशुराम’ का नारा लगाने का हमें कोई अधिकार नहीं रह गया है। उन लोगोें को भगवान परशुराम के नारे लगाने और ब्रह्मवर्चस का कोई अधिकार नहीं है जिनमें ब्रह्मत्व का लेश मात्र भी शेष नहीं बचा है। आज कितने लोग ब्रह्मत्व की सिद्धि के पात्र हैं या इस दिशा में प्रयत्नशील हैं? इस प्रश्न का उत्तर भी हमें ही अपने आप से तलाशना है। आज जो लोग भगवान परशुराम का नाम ले लेकर ब्राह्मण एकता की बातें कर रहे हैं, शक्ति प्रदर्शन कर रहे हैं उन सभी के लिए असंख्य यक्ष प्रश्न हैं जो यह बताते हैं कि हमारी वृत्तियाँ ऎसी हो गई हैं कि चिरंजीवी भगवान परशुराम स्वयं भी इन्हें देख कर उतने क्रोधित होते होंगे जितने शिव धनुष को तोड़ते वक्त भी नहीं हुए होंगे। हमारे पुरखे और पितर भी हमसे नाखुश होंगे ही।
समाज को नेतृत्व देने वाले हमारे अपने कहे जाने लोग आज दूसरों के पिछलग्गू, अनुचर और चापलुस बने हुए हैं और अपनी नेतृत्व क्षमता खो कर छोटे-छोटे स्वार्थों और संरक्षण के लिए अपात्र लोगों का जयगान और परिक्रमाएं कर रहे हैं जो मनुष्यता के लिए कलंक और अभिशाप है। हम अपने लोगों पर ढाए जा रहे अत्याचारों पर खामोश होकर बैठे रहने लगे हैं। हमारे अपने ही बीच के कई सारे ढपोड़शंखी लोग समाज का नेतृत्व करने की मिथ्या डींगे हाँकते हुए एक दिन हमारे अपने समाज के लिए विकास और संरक्षण की बेतुकी और कभी न होने वाली बातों को लेकर मंच तलाश लेते हैं और हर साल इनका मंचीय मोह बढ़ता चला जाता है। कई लोग तो ऎसे हैं जो मंचीय ब्राह्मण ही होकर रह गए हैं। फिर साल भर न इनसे ब्राह्मणों के लिए कुछ होते बनता है, न समाज और देश के लिए। लफ्फाजी, लच्छेदार भाषण, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी और बेईमानी जैसी बातें हममें कितने गहरे तक आ गई हैं।
हम नित्य कर्म भूल गए हैं, हमारे आचरण और व्यवहार में पाश्चात्य प्रभाव घुस आया है, मां-बाप और गुरुजनों के प्रति हमारा सम्मान रहा नहीं, जमीन-जायदाद और अवैध काम-धंधों में हम अपना भविष्य आजमा रहे हैं, सुरा-सुन्दरी और धन-दौलत के मोह में हमने कुटुम्ब, समाज और देश की जो उपेक्षा की है वह अपने आप में सोचने लायक है। हम अपने स्वार्थ और लोभ-लालच में आज क्या नहीं कर रहे हैं? इसे किसी को बताने की जरूरत नहीं है, सब जानते हैं। हमने वो सारे कर्म छोड़ दिए जिनसे ब्रह्मवर्चस्व की प्राप्ति होती थी। वैदिक संस्कृति का परित्याग कर दिया। सिर्फ कहने भर के लिए नाम मात्र के ब्राह्मण रह गए हैं। यह तो ठीक है कि पुरानी पीढ़ी के कुछ लोग अभी हमारे बीच मौजूद हैं वरना आने वाले समय में हमारी उत्तर क्रिया भी ढंग से हो पाएगी या नहीं, कुछ नहीं कहा जा सकता। ब्राह्मण का शरीर पाना अलग बात है और ब्राह्मण धर्म का पालन करना दूसरी बात है।
हम सभी को गंभीरता के साथ यह सोचना होगा कि हम कहाँ जा रहे हैं, हम जो कुछ कर रहे हैं उसमें कहीं ब्राह्मणत्व झलकता भी है या नहीं? हमने सर्वशक्तिमान की आराधना छोड़ कर उन लोगों को ईश्वर मान लिया है जिनसे हमें कुछ मिल जाए, और हमारे जीवन की आवश्यकताएं पूरी होती रहें। हमें जायज-नाजायज कामों के अपराधों में संरक्षण और अभयदान मिल जाए। ब्रह्मत्व के मार्ग से भटके हुए लोगों को ‘जय परशुराम’ कहने का कोई अधिकार नहीं है। ‘जय परशुराम’ कहने का अधिकार पाने के लिए हमें अभी तपस्या करनी होगी, हमारी वृत्तियां सुधारनी होंगी, ब्रह्मत्व पाने के मार्गों को अपनाना होगा तभी हम ब्रह्मज्ञानी और ‘जय परशुराम’ कहने के अधिकारी हो पाएंगे। हे परशुराम! हमें माफ करना, क्योंकि हम जो कुछ कर रहे हैं वह केवल दिखावे भर का है और इसे आप अच्छी तरह जान गए होंगे। वरना हम वाकई आपके भक्त होते तो आज हमारा समाज, क्षेत्र और भारतवर्ष कैसा सुनहरा और अखण्ड होता? सत्यं शिवं सुंदरं का माहौल होता, और ‘जय परशुराम’ सिर्फ होंठों का विषय नहीं होकर हृदय की आवाज बन चुका होता।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

1 टिप्पणी:
Aaryavart ka lekh Parshuram pada bahut hi accha aur thyapark laga.Writer Dr.Depak pande ko badhai.sachmuch humne apne avtar aur mahapurusho ko sankeernntao ke dayare main bandh diya hai samaj ki tamam samshyo ke liye hum hi jimedar hain...
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