पिछले कुछ दिनों से यूँ लगता है कि हमारे राजनीतिक वर्ग को एक पंसदीदा बलि का बकरा मिल गया है और वह है अंग्रेजी भाषा। कुछ दिग्गज नेताओं को अचानक यह अहसास हुआ है कि हमारी संस्कृति के भव्य खंभे को अगर किसी से खतरा है तो वह है अंग्रेजी। हाल ही में भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने हमारी संस्कृति को दुषित करने के लिए अंग्रेजी को जिम्मेदार ठहराया है और आरोप लगाया कि यह युवाओं को हिन्दी से दूर कर रही है। इस आरोप को आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत की सहमती मिली जब उन्होंने गया में कहा कि अंग्रेजी को प्रगती का ज़रिया बताना एक भ्रम है। हमारे नेता बिना किसी गहन चिंतन के इस तरह का बयान क्यों देते हैं सवाल उठता है कि क्या हमारी संस्कृति का स्तम्भ इतना कमज़ोर है कि किसी विदेशी भाषा के आक्रमण से ढ़ह जाए इतिहास गवाह है कि सदियों से हमारी संस्कृति बिना अपनी पहचान खोए अंगिनत भाषाओं को अपने आगोश में लेकर आगे बढ़ी है ।
दायरा बढ़ा है। अंग्रेजी ने हकिकत में हिन्दी को और सशक्त तथा समृद्ध होने में मदद की है। दरसल में युवा पीढ़ी ने अंग्रेजी का ज्ञान हासिल कर भारतीय संस्कृति, सभ्यता, नैतिकता तथा मुल्यों का प्रचार -प्रसार किया है और उन्हें विश्व स्तर पर व्यापक दर्शकों तक पहुँचाया है। आज के वैश्विकरण के युग में अंग्रेजी का महत्व को नकारना एक बचकानी बात मानी जाएगी, खास कर भारत जैसा एक बहुभाषी देश में जहाँ आजादी के पूर्व एवं पश्चात यह भाषा लोगों को जोड़ने का काम किया है। आज हमारे देश में लगभग 800 भाषाएँ प्रचलन में है। परन्तु हमारी लिंक लैंग्युवेज क्या है प्रथम प्रधनमंत्राी पंडित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में यह निर्णय लिया गया था कि हिन्दी ही हमारी सम्पर्क एवं राष्ट्रभाषा रहेगी। सभी सरकारी दस्तावेज का हिन्दी अनुवाद 13 वर्षों के अन्दर कर लिया जाएगा। लेकिन ऐसा हो नहीं सका। उत्तर दक्षिण की भाषाई लड़ाई में अंग्रेजी सशक्त बनती गयी और यह आज लोगों की रोजी-रोटी से जुड़ गयी है। अब इसे एक भाषा ही नहीं बल्कि एक स्किल की संज्ञा दी गयी है। अंग्रेजी विविध्ता के बीच एकता को बनाए रखने में मदद की है। हमारे उच्चतम न्यायालय की कामकाजी भाषा सदा के लिए अंग्रेजी है। यह सोचने का विषय है कि बंगला के प्रसिद्द लेखक शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय या हिन्दी के प्रख्यात लेखक मुंशी प्रेमचन्द को कभी नोबेल पुरस्कार क्यों नहीं मिला, जबकि गुरूदेवरविन्द्रनाथ टेगोर को यह सम्मान प्राप्त हुआ। स्पष्ट कारण है, और शायद सबसे ठोस भी, कि शरतचन्द तथा प्रेमचन्द की पहुँच सीमित थी, परन्तु टेगोर के ‘गीतांजली‘ का अंग्रेजी अनुवाद विश्व भर में पहुँचा तथा उन्हें नोबेल का ताज पहनाया गया। अतः यह कहा जा सकता है कि जिन लेखकों की रचनाओं को अंग्रेजी में अनुवाद किया गया, वे अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुँचे।
यह भी नहीं भूलना चाहिए कि महात्मा गाँध्ी ने अंग्रेजी भाषा पर महारत हासिल कर अंग्रेजों को भगाया। भीमराव अंबेदकर ने कहा था कि अंग्रेजी एक शेरनी की दुध् की तरह है जिसे पीने से कोई शेर की शक्ति पा सकता हैै। जरूरत है अंग्रेजी सिखकर दुनिया जितने की। आज बोलचाल की अंग्रेजी को एक कौशल माना जा रहा है। यह शब्द भारत सरकार के श्रम एवं प्रशिक्षण विभाग के मंत्रालय द्वारा अपने माॅड्यूलर रोजगार कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम के तहत किया जा रहा है। बिहार सरकार ने भी हाल ही में कौशल विकास परियोजना के तहत महादलित युवाओं को बोलचाल की अंग्रेजी सीखाने का एक कार्यक्रम का प्रारंभ किया है। राज्य सरकार की इस कोशिश को सराहा जा रहा है। भारतीय माध्यमिक शिक्षा प्रणाली में त्रिभाषा पद्दति को अपनाया गया है जिसमें कि दसवीं कक्षा तक हर बच्चे को अंग्रेजी का ज्ञान होना जरूरी है। अब यह सोचने की बात है कि अपनी शिक्षा प्रणाली में अंग्रेजी को अनिवार्य बताने के उपरान्त, क्या यह सही होगा कि बच्चों को इससे दूर रखा जाए हमारे नेता ऐसे सामन्य मुद्दों को उछाल कर जनता को क्यों भ्रमित करते हैं जबकि कहीं गंभीर मुद्दें हमारे सामने मुँह बाये हुए है। यह दिखावा क्यों क्या हमारे नेता अपने बच्चों को अंग्रेजी माध्यम के स्कुलों में नहीं भेज रहे हैं क्या वे इस सच्चाई से अंजान हैं कि आज का रोजगार का बाजार मुख्यतः अंग्रेजी पर निर्भर है
डॉ बीरबल झा
प्रबंध् निदेशक
ब्रिटिश लिंग्वा
09810912220

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