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बुधवार, 7 अगस्त 2013

खूब हैं फटे में टाँग अड़ाने वाले, आधी रोटी में दाल खाने वाले

फटे में टाँग अड़ाना  और आधी रोटी में दाल खाना अब मुहावरे नहीं रहे बल्कि मौजूदा युग की वह हकीकत हो चले हैं जो हर कहीं साकार होते देखे जा सकते हैं। हमारे यहाँ इंसानों की कई सारी रोचक, विचित्र और अत्यन्त अजीबोगरीब किस्मों में एक किस्म उन लोगों की भी है जो ‘बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना ’ से लेकर इस किस्म के तमाम प्रकार के मुहावरों पर एकदम फिट बैठते हैं। आम तौर पर आदमी अपनी घर-गृहस्थी और सामाजिक जिम्मेदारियों में इतना उलझा हुआ होता है कि उसे इसके अलावा सोचने की न फुर्सत है, न इसके लिए वह कोई समय निकाल पाता है। लेकिन हर खेत में खरपतवार की तरह इंसानी गुलशन में भी ऎसी विभिन्न प्रजातियों की खरपतवार हमेशा से रही है और रहेगी। अब तो हर इलाके में खरपतवार इतनी हो गई है कि इसने वास्तविक फसलों को ढंक रखा है और दूर-दूर तक यही नज़र आती है। खरपतवार अपनी बहुसंख्या और व्यापक वजूद की वजह से पनप रही है और खुद को जड़ी-बूटियों की तरह प्रतिष्ठित करती जा रही है।

इलाका कोई सा हो, अपना हो या पराया, बाड़े कोई से हों, साठ साला या पाँच साला, या फिर कोई और गलियां, चौबारें और जन-पथ या राज-पथ। हर जगह स्थिति एक सी है। अपने क्षेत्र में भी यही हालत है। कुल जनसंख्या में ऎसे खूब सारे लोग हैं जिनके पास कोई काम-धंधा या हुनर नहीं है। इनके पास सिर्फ एक ही हुनर है और वह है हर कहीं घुसपैठ, हर किसी के बारे में टिप्पणी करना और अपने आपको कुछ न होते हुए भी बहुत कुछ समझना। ये लोग अपने आपको अपने क्षेत्र और क्षेत्र के लोगों का भाग्य विधाता होने का भ्रम इस कदर पाले होते हैं कि हर किसी बाड़े में घुस जाते हैं। चाहे फिर वह कैसा ही पर्व-उत्सव हो या किसी भी प्रकार का कोई तमाशा। इन तमाशों में घुस कर कभी मदारी का अभिनय कर लिया करते हैं, कभी जमूरे का, और अधिकांश समय तमाशबीन होकर तालियां पीटते हैं, वाह-वाह करते हैं, जयगान और जिन्दाबाद के नारे लगाते हैं और प्रशस्तिगान करते हुए परिक्रमा करते रहते हैं।

कभी टोपियां पहन कर नारे लगाते हैं और कभी इन्हीं टोपियों का कटोरा बनाकर बेशर्म होकर भीख मांगने लगते हैं। कभी झण्डों और डण्डों के साथ डाण्डिया करते हैं, कभी बैनरों के साथ बहुरूपिये की तरह अभिनय। हर इलाके में ऎसे लोगों का वजूद रहता ही है जो खुद कुछ करें या न करें, या कर पाने की हैसियत तक नहीं रखते हों, लेकिन औरों के कामों में दखल देकर काम बिगाड़ना और काम निकलवाने के लिए भ्रमित करना इनके जीवन सबसे बड़ा धर्म बना रहता है। ऎसे लोगों का यदि कहीं समूह ही बन जाए तो उस क्षेत्र का भगवान ही मालिक होता है क्योंकि यह समूह वह हर हथकण्डे और कारनामे कर गुजरने में माहिर हो जाता है जो समाज और सज्जनों के लिए दुःखदायी बने रहते हैं। इन अंशबुद्धियों, विकृतबुद्धियों, बुद्धिहीनों या मंदबुद्धियों की हरकतों का खामियाजा समाज और क्षेत्र को अर्से तक भुगतना पड़ता है।

हमारे क्षेत्र में भी पिछले कुछ दशकों से इसी प्रकार के कई लोगों का बोलबाला रहा है जो खुद कुछ भी नहीं थे मगर कर ऎसा गए कि लोग आज भी इन्हें कोसने में कोई कंजूसी नहीं करते। कोई किसी भी कर्म क्षेत्र में रमा हुआ हो, चंद लोग ऎसे टकरा ही जाते हैं जो अपने कामों में बाधाएँ डालते हैं, फालतू की राय देने लगते हैं और हमसे ऎसी-ऎसी अपेक्षाएं रखने लग जाते हैं जिन्हें पूरी करना हमारे बस में नहीं होता। 

ऎसे फटे में टाँग अड़ाने वाले और आधी रोटी में दाल खाने वाले लोगों से समाज को जितना नुकसान भुगतना पड़ता है उतना मूर्खों और पागलों से भी नहींं। ऎसे लोग समाज पर भार हैं। इस किस्म के लोगों को जहाँ मौका मिले, सीधे और साफ तौर पर हतोत्साहित करें और इन्हें हमेशा आईना दिखाते रहें ताकि ये अपनी औकात में रहें।







---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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