अपने घर के एक छोटे से कमरे में चारपाई पर बैठे 80 वर्षीय श्यामलाल शर्मा टीवी सेट पर नजरें जमाये पाकिस्तान में हो रहे राष्ट्रपति पद के चुनाव संबंधी हलचल का जायज़ा ले रहे थे। प्रोग्राम खत्म होने के बाद उन्होंने टीवी बंद कर दिया और एक गंभीर स्वर में कहा कि हमारी समस्या को दोनों देशों के किसी भी राजनीतिक दलों के चुनावी घोषणा में कभी जगह नहीं मिल पाएगी। हमें अपने बाप-दादा की जमीन से बेदखल करने वाले पाकिस्तान को हमारी सुध कभी नहीं आएगी और भारत ने भी हमें पनाह देकर भुला दिया है। श्यामलाल शर्मा पाक अधिकृत कश्मीर के शरणार्थी हैं। जो जम्मू एयरपोर्ट के निकट भोर कैंप में अपने परिवार के साथ रहते हैं। इस कैंप में उनके अतिरिक्त 17,000 और परिवार आबाद है। इन लोगों ने अक्टूबर 1947 में अपने गृह नगर पलन्द्री (पाक अधिकृत कश्मीर के सुधनोती जिला का शहर मुख्यालय) में पाक कबाईलियों के हमले के बाद शरणार्थी के रूप में भारत में शरण ली थी। इस विस्थापन ने न सिर्फ उन्हें अपनी जमीन से दूर किया बल्कि पुरखों द्वारा बरसों की मेहनत से तैयार किये गए जमीन-जायदाद से भी अलग कर दिया है। 1947 के उस दर्द को याद करते हुए श्री शर्मा बताते हैं कि 24 अक्टूबर की सुबह कबाईली के भेष में पाकिस्तानी फौजियों ने गांव को घेर लिया और बच्चे, बूढ़े और महिला सभी लोगों को एक बड़े से मकान में कैद कर उसे आग के हवाले कर दिया। किसी प्रकार उनका परिवार उस कैद से निकलने में कामयाब रहा और भागकर भारत की सीमा में प्रवेश कर गया। लेकिन सभी परिवार इतने खुशनसीब नहीं थे। अधिकांश लोग उस आग में जिंदा जल गए। शर्मा कहते हैं कि हादसे को गुजरे 6 दशक से भी अधिक का समय हो चुका है लेकिन आज भी मैं हवा में फैली इंसानों के जलने की वह तेज़ बू महसूस करता हूँ।
अपनी मातृभूमि से जुदा होने वाले श्यामलाल शर्मा अकेले व्यक्ति नहीं हैं बल्कि यह उन 41119 परिवारों की दास्तां है जो कश्मीर के मुज़फ्फराबाद, मीरपुर और पुंछ में अक्टूबर 1947 को होने वाले कबाईली हमलों के बाद अपना घर छोड़ कर भागे थे। वह रात इन परिवारों पर क़यामत बनकर टूटी थी। स्थानीय गैर सरकारी संस्था ‘मूवमेंट आॅफ जस्टिस फाॅर रिफ्यूजी आॅफ 1947‘ के आंकड़ों के अनुसार अक्टूबर 1947 में पाकिस्तानी कबाईली सेना ने पाक अधिकृत उन इलाकों में करीब 40,000 पुरूष और महिलाओं की हत्या की थी। हालांकि पिछले 65 वर्षों के दौरान इन विस्थापितों की आबादी में कई गुणा की वृद्धि हुई है। वर्तमान में इनकी आबादी 52 मिलियन से भी अधिक हो चुकी है। जम्मू और उसके आसपास के 39 कैंपों में करीब पांच लाख लोग रहे हैं जबकि बाकी परिवार कठुआ, उद्यमपुर, आरएसपुरा और पुंछ के विभिन्न हिस्सों में जीवन बसर कर रहे हैं। विस्थापित हुए 41119 परिवारों में से 9500 परिवारों को सरकार ने आजतक पंजीकृत नहीं किया है। श्यामलाल शर्मा कहते हैं कि सरकारी अधिकारियों ने केवल उन्हीं परिवारों को पंजीकृत किया जिन्होंने घर के मुखिया के साथ भारत में प्रवेश किया था और जिनकी मासिक आय 300 रूपये से अधिक नहीं थी। अर्थात जिस परिवार ने कबाईली सेना के हाथों मचाये गए कत्लेआम में अपने माता या पिता को खोया, उनके ज़ख्म पर मरहम लगाने की बजाये और उन्हें जीने का सहारा देने की बजाये उनके दर्द को और भी उभार दिया गया।
जम्मू रीजन के ग्रामीण क्षेत्रों में रह रहे अधिकतर शरणार्थी खेतों के किनारे आबाद हैं क्योंकि कृषि उनकी अर्थव्यवस्था का एकमात्र माध्यम है। परंतु यहां उनके पास केवल इतनी ही भूमि है जितना में वह अपने परिवार के खाने लायक उत्पादन कर सकें। सरकार ने कैबिनेट आॅर्डर संख्या 578-सी 1956 के तहत पुर्नवास नीति के अंतर्गत यह आदेश जारी किया था कि ग्रामीण क्षेत्रों में आबाद किये गए प्रत्येक परिवार को 4 एकड़ सिंचाईयुक्त भूमि और 6 एकड़ असिंचित भूमि दी जाये लेकिन करीब 84,094 परिवारों को आजतक सरकार के वायदानुसार जमीन उपलब्ध नहीं कराई गई। शरणार्थी परिवार से संबंध रखने वाले स्थानीय पत्रकार आरसी शर्मा के अनुसार ‘जमीनें हमें मुफ्त में नहीं दी गईं हैं जैसा कि राज्य सरकार दावा करती है। शरणार्थी परिवारों ने इसकी कीमत अदा की है। जब केंद्र सरकार ने रिलीफ के नाम पर पैसा दिया तो राज्य सरकार ने उसमें से 2500 रूपये जमीन की कीमत के नाम पर काट लिया गया था। श्री शर्मा का आरोप है कि एक तरफ राज्य सरकार जमीन नहीं होने के कारण शरणार्थियों को उपलब्ध करवाने में असमर्थता व्यक्त कर रही है, वहीं दूसरी ओर हजारों कनाल जमीन माफिया के कब्जे में जा रही है और सरकार आँख मूंद कर बैठी है। यहां उल्लेख करना आवश्यक होगा कि राज्य के पिछले विधानसभा सत्र में राजस्व, कर और पुर्नवास मंत्री राज्य मंत्री एजाज अहमद खान ने एक प्रश्न का उत्तर देते हुए इंगित किया था कि अवैध रूप से जमीनों पर कब्जा के मामले में जम्मू सबसे उपर है। यहां 16 लाख कनाल भूमि पर अवैध कब्जा है।
इन शरणार्थियों की शिकायतें उस समय और भी बढ़ जाती है जब उनकी तुलना कश्मीरी पंडितों के साथ की जाती है। जो 90 की दहाई में उस समय अपने घरों को छोड़कर भागे थे जब घाटी मे आंतक चरम पर था। रिफ्युजी संघर्ष मोर्चा के संयोजक डाॅक्टर नरेंद्र सिंह रैना कहते हैं कि ‘कश्मीरी पंडितों के दर्द को हम बखूबी समझते हैं लेकिन पाक अधिकृत कश्मीर से आए शरणार्थियों की तुलना में सरकार ने उन्हें अधिक सुविधाएं उपलब्ध कराईं हैं। जैसे मासिक खर्च, रिलीफ, नौकरियों और शिक्षण संस्थाओं में विशेष आरक्षण इत्यादी बुनियादी सुविधाएं शामिल हैं। जो शरणार्थियों को पूरी तरह से अबतक नहीं मिला है।‘ सरकारी आंकड़ों के अनुसार घाटी से विस्थापित प्रत्येक परिवार को रिलीफ के रूप में मासिक 6600 रूपये दिए जाते हैं। इसके अतिरिक्त उन्हें प्रति व्यक्ति 9 किलो चावल, 2 किलो आटा और प्रति परिवार एक किलो शक्कर उपलब्ध कराए जाते हैं। एक अंदाजे के मुताबिक जम्मू और कश्मीर रिलीफ आॅरगेनाइज़ेशन, जम्मू के तहत रजिस्टर 38119 परिवारों को मार्च 2012 तक 22,665 करोड़ रूपये बांटे जा चुके हैं। जबकि पिछले 65 वर्षों में एक करोड़ 25 लाख पाक अधिकृत कश्मीर से आए शरणार्थियों के बीच केवल 83 करोड़ रूपये ही खर्च किए गए हैं। वहीं 2008 में सरकार ने प्रधानमंत्री पुर्नवास विशेष पैकेज का एलान किया था जिसके तहत वर्ष 2012 तक 2169 विस्थापित कश्मीरी युवाओं को सरकारी नौकरियां दी गईं थीं। नौकरियों में पैकेज के अतिरिक्त इन्हें आवास ऋण, छात्रवृति और कृषि तथा फल उत्पादकों को आर्थिक मदद भी दी गई।
दूसरी ओर पाक अधिकृत कश्मीर के शरणार्थियों के समक्ष अपनी पहचान को साबित करना आज भी एक बड़ी समस्या है। भारत सरकार उन्हें शरणार्थी के रूप में दर्जा नहीं देती है। पाक अधिकृत कश्मीर के संबंध में सरकार की नीति काफी अलग है क्योंकि सरकार इस क्षेत्र को भारत का अंग मानती है। 22 फरवरी 1994 को संसद के दोनों सदनों में सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया था कि जम्मू कश्मीर देश का अटूट अंग है और पाकिस्तान उन अधिकृत क्षेत्रों को फौरन खाली कर दे। ऐसी परिस्थिती में पाक अधिकृत क्षेत्रों से आए लोगों को शरणार्थी का दर्जा देने का अर्थ है कि उन क्षेत्रों पर भारत के दावों को कमज़ोर करना है। इसलिए सरकारी तौर पर इन्हें विस्थापित का दर्जा दिया गया है। इस तकनीकि अड़चन के कारण अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शरणार्थियों को मिलने वाली सुविधाओं से इन्हें वंचित रखा गया है। पिछले कई वर्षों से इस दिशा में संघर्षरत एसओएस इंटरनेशनल के अध्यक्ष राजीव चुन्नी के अनुसार शरणार्थी का दर्जा प्राप्त करने के लिए उनकी संस्था ने संयुक्त राश्ट्र शरणार्थी उच्चायुक्त (यूएनएचसीआर) से भी संपर्क किया था परंतु उन्होंने यह कहकर उनके आवेदन को ठुकरा दिया कि वह लोग तकनीकि रूप से शरणार्थी का दर्जा प्राप्त करने योग्य नहीं हैं। ऐसे में उनकी ओर से यह प्रश्न उठना तर्कसंगत है कि शरणार्थी नहीं तो कश्मीरी पंडितों की तरह विस्थापन का मुआवज़ा देने में कौन सी बाधा आ रही है? क्या सिर्फ इसलिए कि इनके मुद्दे राजनीतिक रोटियां सेंकने के लिए नाकाफी हैं?
गुलज़ार अहमद भट्ट
मो. 09697111178
(चरखा फीचर्स)
(लेख ‘संजोय घोश मीडिया फेलोषिप के अंतर्गत लिखा गया है)



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