बिहार : मिड डे मील त्रासदी और बिहार विकास का सपना - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 30 अगस्त 2013

बिहार : मिड डे मील त्रासदी और बिहार विकास का सपना

bihar mid day meal
बिहार विगत कुछ वर्षों में अपने विकास की नई गाथाएं लिख रहा है। हर तरफ इसकी चर्चा हो रही है। अब वह दौर नहीं रहा जब देश के प्रगतिशील राज्यों में बिहार निचले पायदान पर खड़ा होता था। बदलते बिहार में निवेश के अवसर बढ़े हैं, पूंजी के आने से योजनाओं को अमलीजामा पहनाने में मदद मिली है। उद्योग धंधों के खुलने से रोजगार के अवसर बढ़े हैं जिससे रोजी रोटी के लिए होने वाले पलायन में कमी आई है। सड़कों की हालत सुधरी है, तो बिजली के क्षेत्र में भी राज्य सरप्लस हो रहा है। विगत कुछ वर्षों में बिहार प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश के सभी राज्यों को पीछे छोड़ चुका है। प्रशासनिक ढ़ांचा मजबूत हुआ है हालांकि इसमें अभी भी सुधार की आवश्यकता है। नागरिकों को शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली और सड़क जैसी बुनियादी आवश्यकताओं में पूर्व की अपेक्षा संतोषजनक हुई है। शिक्षा के क्षेत्र में धीरे धीरे ही सही बिहार विकास के अपने लक्ष्य की प्राप्ति की ओर है। 2011 की जनगणना के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर 74 फीसदी साक्षरता दर के मुकाबले बिहार में यह दर कुछ ही कम 63.8 फीसदी है। बच्चों के बुनियादी शिक्षा से लेकर उच्च शिक्षा के ढ़ांचे को मज़बूत बनाने पर विशेष जोर दिया जा रहा है। अति पिछड़ा जिला किशनगंज में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शाखा की बात हो या नालंदा में अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की चर्चा की जाए। आईआईटी और लाॅ यूनिवर्सिटी जैसी संस्थानों का जि़क्र करें या फिर सुपर 30 और रहमानिया इंस्टीट्यूट जैसी निजी संस्थानों की बात की जाए। यह सभी राज्य में शिक्षा के प्रति सरकार द्वारा उठाए जा रहे गंभीर प्रयासों का ही परिणाम है।

प्राथमिक स्तर पर नई पीढ़ी में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ाने और उन्हें स्कूल तक लाने में केंद्र की मिड डे मील योजना को बिहार सरकार ने भी शत-प्रतिशत लागू किया है। जिसका एक मकसद यह भी था कि पोषणयुक्त आहार प्रदान कर आर्थिक रूप से कमजोर बच्चों में कुपोषण की कमी को दूर किया जाए। लेकिन भ्रष्टाचार के दीमक ने योजना को इस कदर खोखला कर दिया कि यह बच्चों को कुपोषण से मुक्ति दिलाने की बजाये उनकी जान का दुश्मन बन गया है। दोपहर का भोजन से जुड़ी घटनाएं आम हो चुकी हैं। खाने के बाद छात्रों को उल्टी की शिकायत होना, चक्कर आना या बेहोश हो जाने की खबरों से अखबार भरे होते हैं। इतना ही नहीं कई बार मिड डे मील के खाने में छिपकली अथवा कीड़े-मकौड़ों के निकलने की खबरें भी पढ़ने को मिल जाती हैं। पिछले महीने सारण में मिड डे मील से होने वाली मौत इसी की एक कड़ी है। केवल बिहार ही नहीं बल्कि देश में मिड डे मील खाने से पहली बार इतना बड़ा हादसा हुआ है। जिसमें प्राथमिक स्कूल के 23 बच्चों की मौत हो गई थी। इस त्रासदी के बाद यह सवाल उठने लगा है कि आखिर इसका जिम्मेदार कौन है? खाना पकाने के लिए जिस तेल का प्रयोग किया गया उसमें खेतों में डालने वाले कीटनाषक दवा मिली हुई थी, वह खाना बनाने की जगह पर कैसे पहुंची? बात केवल सारण के घटना की नहीं है। राज्य के अलग अलग जिलों से बार बार मिड डे मील से संबंधित शिकायतें आती रहती हैं। सारण की घटना के बाद एक स्थानीय अखबार ने इसकी हकीकत को जानने के लिए जब राज्य भर के जिलों में सर्वे कराया तो जो सच्चाई सामने आई वह बहुत ही चैंकाने वाली थी।

बिरौल के जगन्नाथपुर गांव के लोगों का आरोप है कि यहां मध्य विद्यालय में परोसे जाने वाले खाने में पिल्लू निकलते हैं। मेन्यू के अनुसार बच्चों को खाना परोसा नहीं जाता है। कई बार उच्चाधिकारी से शिकायत की गई लेकिन जांच के लिए आज तक कोई अधिकारी नहीं आया है। सिंघवाड़ा प्रखंड के भरगुली गांव के लोगों का आरोप था कि उनके नौनिहालों को परोसे जाने वाला मिड डे मील पोषणयुक्त नहीं बल्कि बीमार बनाने लायक है। कई गांव तो ऐसे भी पाए गए जहां मिड डे मील संचालित ही नहीं हो रहा था। हनुमान नगर प्रखंड के मोरो पंचायत अंतर्गत वार्ड नंबर 16 के निवासियों ने प्रधानाध्यापक पर मनमानी का आरोप लगाते हुए कहा कि यहां 6 माह से प्राथमिक विद्यालय में मिड डे मील योजना बंद है। दरभंगा स्थित लहेरियासराय में भी मिड डे मील में गड़बडि़यों की ऐसी ही शिकायतें मिलीं हैं। प्रश्न उठता है कि जब बार बार शिकायतें की जाती हैं तो किसी ने भी इसपर संज्ञान क्यूं नहीं लिया? इस प्रकार की लापरवाही को रोकने के लिए उचित व्यवस्था क्यूं नहीं बनाई जाती है?

गुणवत्ता में कमी के कारण यह योजना धीरे धीरे संदेह के घेरे में आ गई है। सरकार को मिड डे मील को लेकर एक ऐसा प्रबंध करना चाहिए कि ऐसी घटना भविष्य में दुबारा न हों। इसके लिए एक ठोस प्रणाली एवं दिशा निर्देष बनाई जाए जिससे इस योजना का संचालन उचित ढ़ंग से हो। समय की जरूरत यह है कि इस योजना का उल्लंघन करने और धांधली करने वालों पर आपराधिक मामले दर्ज किए जाएं। सरकारी स्कूलों में आने वाले अधिकतर बच्चे गरीब परिवार से होते हैं जहां दो जून रोटी का भी मुश्किल से जुगाड़ हो पाता है। ऐसे मां बाप केवल इसलिए बच्चों को स्कूल भेजते हैं कि उन्हें शिक्षा के साथ साथ पेट भर भोजन भी मिल जाएगा न कि उनकी जिं़दगी छीन ली जाएगी। यह घटना बिहार के विकास के लिए भले ही कोई बड़ी बाधा न हो परंतु इसकी छवि को अवश्य धूमिल करता है। हम यह क्यूं भूल जाते हैं कि बच्चे देश का भविष्य होते हैं। केवल निजी और महंगी फीस देकर स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों में ही टेलेंट नहीं होता है बल्कि सरकारी स्कूलों में भी प्रतिभा छुपी होती है। इतिहास इस बात का साक्षी है कि बिहार के सरकारी स्कूलों में पढ़े छात्रों ने भी विश्व मानचित्र पर अपनी प्रतिभा से राज्य का नाम रौशन किया है। फिर इस प्रतिभा को जहरीला खाने में क्यूं मिला रहे हैं। नई पीढ़ी को मौत का सौगात देकर हम किस विकास को अपना रहे हैं।




इश्तेयाक अहमद
 (चरखा फीचर्स)

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