पूरे विश्व में सनातन धर्मावलम्बियों द्वारा प्रकृति पूजा व मूर्तिपूजा की ऐतिहासिक परंपरा रही है। आदिकाल से लोग पूजा-अराधना कर विश्व के कल्याण की कामना किया करते थे। दुर्गापूजा की बात हो या फिर होली, दीपावली अथवा छठ पर्व की बात। तमाम पर्वों की अपनी खास विशेषताऐं रही हैं। तीनों लोकों में अपने पराक्रम के भय से देवताओं को भी भयभीत कर देने वाले दैत्यराज महिषासुर के विनाश के लिये माँ दुर्गा ने रौद्र रुप अख्तियार किया था। ईश्वर की भक्ति में लीन रहने वाले भक्त प्रहलाद की हत्या के कई एक प्रयास किये गए और इसी परिप्रेक्ष्य में गोद में प्रहलाद को बिठाकर होलिका आग के हवाले हो गई। उसे पूरा विश्वास था कि प्रहलाद मौत की नींद सो जाऐगा और वह खुद बच जाऐगी, किन्तु ईश्वर की लीला भी अजीब है। भक्त प्रहलाद बच निकले और होलिका जलकर भस्म हो गई। लंका नरेश रावन का बध कर अयोध्या लौटने की खुशी में दीपावली मनायी गई।
उपरोक्त उद्धरण इसलिये क्योंकि तमाम पर्वों के पीछे ऐतिहासिक घटनाएँ चस्पां हैं। छठ महापर्व की भी अपनी विशेषताऐं हैं- पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी के सूर्यास्त और सप्तमी के सूर्योदय के मध्य वेदमाता गायत्री का जन्म हुआ था. प्रकृति के षष्ठ अंश से उत्पन्न षष्ठी माता बालकों की रक्षा करने वाले विष्णु भगवान द्वारा रची माया हैं. बालक के जन्म के छठे दिन छठी मैया की पूजा-अर्चना की जाती है, जिससे बच्चे के ग्रह-गोचर शांत हो जाऐं और जिंदगी मे किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं आए, अतः इसी तिथि को षष्ठी देवी का व्रत होने लगा। ऐसी मान्यता है कि छठ माता भगवान सूर्य की बहन हैं और उन्हीं को खुश करने के लिए महत्वपूर्ण अवयवों में सूर्य व जल की महत्ता को मानते हुए इन्हीं को साक्षी मानकर भगवान सूर्य की आराधना करते हुए नदी, तालाब के किनारे घाट बनाकर छठ पूजा की जाती है. व्रत करने वाले जल में स्नान कर सूप अथवा डालों को उठाकर डूबते सूर्य एवं षष्टी माता को अर्घ्य देते हैं. सूर्यास्त के पश्चात लोग अपने-अपने घरों की ओर वापस लौट जाते हैं. घरों में रात भर जागरण किया जाता है. सप्तमी के दिन सुबह ब्रह्म मुहूर्त में पुनः संध्या काल की तरह सूप अथवा डालों में पकवान, नारियल, केला, मिठाई भर कर तालाब अथवा नदी घाट पर सभी जमा होते हैं. व्रत करने वाले सुबह के समय उगते सूर्य को आर्घ्य देते हैं. अंकुरित चना हाथ में लेकर षष्ठी व्रत की कथा कही और सुनी जाती है।
कथा के बाद प्रसाद वितरण किया जाता है और फिर सभी अपने-अपने घर की ओर लौट जाते हैं. व्रत करने वाले इस दिन परायण करते हैं। छठ पूजा का सबसे खास प्रसाद है ठेकुआ। गेहूं के आटे में घी और चीनी मिलाकर बनाया जाने वाला यह प्रसाद बड़ा स्वादिष्ट और लोकप्रिय होता है। चक्की में गेहूं पीसती महिलाओं के कंठ से फूटते छठी मैया को संबोधित गीत श्रम के साथ संगीत के रिश्ते का बखान करती हैं. इस पर्व का बेहद लोकप्रिय लोकगीत हैः- “काचि ही बांस कै बहिंगी लचकत जाय भरिहवा जै होउं कवनरम, भार घाटे पहुँचाय, बाटै जै पूछेले बटोहिया ई भार केकरै घरै जाय, आँख तोरे फूटै रे बटोहिया जंगरा लागै तोरे घूम, छठ मईया बड़ी पुण्यात्मा ई भार छठी घाटे जाय”. अथर्ववेद में भी इस पर्व का उल्लेख है. यह ऐसा पूजा विधान है, जिसे वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाभकारी माना गया है. ऐसी मान्यता है कि सच्चे मन से की गई इस पूजा से मानव की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं. माताएं अपने बच्चों व पूरे परिवार की सुख-समृद्धि, शांति व लंबी आयु के लिए व्रत रखती हैं. यह व्रत काफी कठिन होता है और व्रत संबंधी छोटे-छोटे कार्य के लिए भी विशेष शुद्धता बरती जाती है. लोग इस पर्व को निष्ठा और पवित्रता से मनाते हैं उसका एक प्रमाण यह है कि छ्ठ का प्रसाद बनाने के लिए जिस गेंहू से आटा बनाया जाता है उसको सुखाते समय घर का कोई न कोई सदस्य उसकी रखवाली करता है ताकि कोई पशु-पक्षी अथवा कीड़े-मकोड़े से उसे सुरक्षित रखी जा सके। .
वैज्ञानिक दृष्टि से भी सूर्य की पूजा या जलार्पण लाभदायक माना जाता है. भारत के अधिकतर राज्यों में लोग मंत्रोच्चारण के साथ प्रतिदिन सूर्य को जल चढाते हैं, लेकिन इस पूजा का विशेष महत्व है. इस व्रत में दो दिन तक निर्जला व्रत रखना होता है। उगते सूर्य को पूजने की प्रथा है. डूबते सूर्य को कौन पूछता है पर इस पर्व में प्रथम अर्घ अस्ताचलगामी सूर्य यानि डूबते को ही पूजा जाता है. इस रूप में यह पर्व सृष्टि-चक्र का प्रतीक भी है. उदय और अस्त दोनों अनिवार्य है. जन्म को उत्सव के रूप में लेते हो तो मृत्यु को भी उसी रूप में गले लगाओ. हर अस्त में उदय छिपा है, हर मृत्यु में नवजीवन. उत्थान और पतन दोनों को समान सम्मान दो क्योंकि पतन ही उत्थान का मार्ग प्रशस्त करेगा. सामान्य मनुष्य जो समझे, पर शास्त्रों ने उगते और डूबते सूर्य दोनों को महत्व दिया है.पर्यावरण संरक्षणरू छठ व्रत शुद्धि और आस्था का महापर्व है. यही एक ऐसा पर्व है, जहां समानता और सद्भाव की अनूठी बानगी देखने को मिलती है.
प्रकृति से प्रेम, सूर्य और जल की महत्ता का प्रतीक यह पर्व पर्यावरण संरक्षण का भी संदेश देता है। इस पर्व को भगवान सूर्य और परब्रह्मा प्रकृति और उन्हीं के प्रमुख अंश से उत्पन्न षष्ठी देवी की उपासना का पर्व भी माना जाता है. भगवान सूर्य प्रत्यक्ष देवता हैं, वे संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं. सर्वत्र व्याप्त हैं और रोज प्रत्यक्ष दर्शन देते हैं. ऐसी मान्यता है कि सूर्योपासना व्रत कर जो भी मन्नतें मांगी जाती हैं, वे पूरी होती हैं और सारे कष्ट दूर होते हैं. पर्व नहाय-खाय से शुरू होता है. दूसरे दिन खरना, इसके बाद अस्ताचलगामी सूर्य को अर्घ व सुबह में उदीयमान सूर्य को अर्घ देकर प्रणाम किया जाता है. इस पर्व को छोडा नहीं जाता. यदि व्रती व्रत करने मे असमर्थ हो जाती है तो इस व्रत को घर की बहू या बेटे करते हैं। भौतिक संसार में सूर्य ही एकमात्र देवता हैं जो प्रत्यक्ष रूप से विराजमान हैं। सूर्यदेव को देखकर व शरीर में महसूस अनुभव लोग किया करते हैं। सूर्य ही सृष्टि पर जीवन का स्त्रोत हैं. चाहे अपनी रोशनी से हमें जीवन देना हो या हमें भोजन देने वाले पौधों को भोजन देना सूर्य का सम्पूर्ण जगत आभारी है. हम आजीवन उनके उपकारों से लदे रहते हैं. सूर्य अंधकार को विजित कर चराचर जगत को प्रकाशमान करते हैं. इसलिए सूर्य की स्तुति में सबसे बड़ा मंत्र “गायत्री मंत्र” पढ़ा जाता है और उनकी स्तुति का सबसे बड़ा पर्व मनाया जाता है।
---अमरेन्द्र सुमन---
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