- बजट में बढ़ सकता है सेवा कर का दायरा
- मोदीनीमिक्स के सपने को अमली-जामा पहनने के लिए जेटली तैयार
- आम आदमी के लिए करना होगा विशेष प्राविधान
- रुपये का लगातार हो रहे अवमूल्यन को रोकने के साथ ही खत्म करनी होगी सब्सिडी
- लघु एवं कुटीर उद्योगों को बढ़ाना होगा, एक्साइज ड्यूटी से छूट के लिए तय उत्पादन की सीमा 1.5 करोड़ को बढ़ाना होगा
- निवेश को बेहतर मूल्य सुनिश्चित करने के लिए निवेशकों को प्रोत्साहित करना होगा
- सरकार को भंडारण की करनी होगी मानिटरिंग
- छोटे व बढ़े व्यापारी की दोहरी नीति से सरकार को उबरना होगा
- मंडी समिति कानून को लाना होगा हरकत में
- नियत और नीति साफ होने पर ही रुक सकती है जमाखोरी
- महंगाई 6 फीसदी की दर से लगातार बढ़ रही है
- आधुनिकीकरण समय की जरुरत है लेकिन उसके लिए भी सरकार के पास न तो विजन है और न ही सटीक कार्ययोजना
पाकिस्तान हर रोज सीमा पर बमबारी कर रहा, चीन धमकी दे रहा कि अरुणाचल व कश्मीर उसका है, इराक में हजारों भारतीयों की जान सांसत में है, गुजरात सीएम आनंदीबेन अपने लिए 100 करोड़ की जेट प्लेन खरीद ली, अमित शाह को जेड प्लस की सुरक्षा, सैकड़ों सांसदों के पांच सितारा होटल में रहने के बिल आयेंगे, तब कैसे महंगाई कम होगी। महंगाई तो दूर तक होगी जब दृढ़ इच्छा शक्ति से विपरीत परिस्थितियों से मुकाबला हो। रुपये की लगातार हो रहे अवमूल्यन को रोकने के साथ ही सब्सिडी पर नकेल कसें। लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा। महंगाई 6 फीसदी की दर से लगातार बढ़ रही है। अब 10 जुलाई को पेश होने वाले बजट में सेवाकर यानी सर्विस टैक्स 12 प्रतिशत से बढ़कर 14 प्रतिशत करने की तैयारी है। मतलब एजुकेशनल सेस व हायर एजुकेशनल सेस मिलाकर सेवा कर की नयी दर 14ण्42 प्रतिशत हो जायेगी। जमाखोरी ने पहले से ही सरकार की चिंताएं बढ़ा दी है। हद तो यह है कि आधुनिकीकरण समय की जरुरत है लेकिन उसके लिए भी न तो विजन है और न ही सटीक कार्ययोजना।
सरकार ने देश में प्याज की आपूर्ति में सुधार में के लिए 17 जून को न्यूनतम निर्यात मूल्य 300 डाॅलर प्रति टन तय किया था। घरेलू दाम कम नहीं हुए तो सरकार ने 2 जुलाई को इसे बढ़ाकर 500 डाॅलर प्रति टन कर दिया। हालांकि निर्यात मूल्य बढ़ने की वजह से निर्यात में काफी कमी आ गयी है। लेकिन इसके बावजूद देश में प्याज के दाम लगातार बढ़ रहे है। इस वर्ष उत्पादन भी बढ़ा है। इसका सीधा अर्थ है कि व्यापारी फायदे के लिए बड़े पैमाने पर जमाखोरी कर रहे है। सरकार ने आलू पर भी 450 डाॅलर प्रति टन निर्यात शुल्क लगा दिया है। यह कदम भी आलू के दामों में बढ़ोत्तरी नहीं रोक पाया है। देश में साढ़े 46 लाख टन आलू का सालाना उत्पादन होता है। देश में पिछली बार 168 लाख टन प्याज का उत्पादन हुआ था इस बार बढ़कर 200 लाख टन होने के अनुमान है। सरकार कसे सबसे पहले कदम उठाने की जरुरत है भंडारण की मानिटरिंग की। व्यापारी छोटा हो या बड़ा वह एक टन स्टाॅक रखता है या सौ टन सरकार को वह जानकारी दें। देश में जमाखोरी रोकने के लिए सरकार सक्षम है और कानून भी पहले से ही बने हुए है बस उसे इमनदारी पूर्वक अमल में लाने की जरुरत है। इतना ही नहीं छापामारी के दौरान छोटा व बड़ा व्यापारी के भेद को मिटाना होगा। क्योंकि छापामारी अक्सर छोटे व मझले व्यापारियों के यहां ही होती है और बड़े स्टाॅकिस्ट बच निकलते है। अधिकारियों के दलाल क्या-क्या करते है यह सब जानते है लेकिन सरकार धृतराष्ट बना रहता है। एक आम व्यापारी भला क्या जमाखोरी कर पायेगा जिसके लिए एक बोरा चीनी स्टाॅक करने में उसका बजट ही उलट-पलट जाएं। हो सकता है एक आम आदमी अपनी गाड़ी में दो-चार लीटर तेल ज्यादा डलवा लें। लेकिन सरकार यदि जनता को एक दिन का भी छूट दे कि इन जमाखोरों की सारी स्टाॅक लूट लो तो इनके होश ठेकाने हो जायेंगे।
वित मंत्री अरुण जेटली एक ओर तो महंगाई को जायज ठहराते हुए कह रहे है, सुविधा पाने के लिए जेब से अधिक खर्च करना ही होगा, लेकिन कोई उनसे पूछे कि क्या बुनियादी जरुरते भी सुविधा के दायरे में आती है। जिस देश में सबसे बड़ी महामारी कुपोषण और बेरोजगारी हो, जहां अस्पताल-स्कूल न हो, जहां लाखों लोग बिना दवा के दम तोड़ देते हो, जहां बच्चों को मिड-डे-मील की उम्मीद में स्कूल भेजा जाता हो, वहां जमीनी हकीकत को नजरअंदाज करके सपने बेचना कहां तक जायज है। सपनों का सौदागर बनकर सत्ता तो पा ली जाती है, लेकिन उसके बाद सिर्फ बाते ही होती है। प्रस्तावित सौ शहर और बुलेट टेन के सपने आखिरकार इन्हीं लोगों के गांव-खेत-जंगल उजाड़कर तो बनेंगे। इतना ही नहीं महंगाई वृद्धि को जमाखोरी वजह बताया जा रहा। लेकिन कार्रवाई भी तो सत्ता को ही करनी होगी। जो दृढ़ इच्छाशक्ति के बगैर संभव नहीं। कहने का अभिप्राय यह है कि सरकार की यदि नीयत सही हो तो उपलब्धियों की संभावनाएं वास्तविक आर्थिक परिस्थितियों पर निर्भर करती है।
यदि महंगाई की बात करें तो यह रुपये की कमजोरी के कारण है ही देश में खाद्य वस्तुओं की कमी भी उसके लिए कम जिम्मेदार नहीं है। सरकार के भारी-भरकम खर्च व राजस्व में अपेक्षित वृद्धि न होने के कारण उसे आरबीआई से उधार लेना पड़ता है। और आरबीआई को फिर अतिरिक्त नोट छानपे पड़ते है। ज्यादा नोट छापने से मुद्रा का प्रसार बढ़ता है और महंगाई बढ़ती है। जरुरत इस बात है कि आयातों खासतौर पर चीन से होने वाले आयात शुल्क बढ़ाते हुए व अन्य प्रतिबंध लगाकर रोक लगे। चीन से आयातों को प्रतिबंधित करते हुए हम रुपये की बदहाली को तो हम रोक ही सकते है। साथ ही मैन्यूफै्रक्र्चस को भी जीवनदान दे सकते है। रुपया मजबूत हो इसके लिए जरुरी है कि ब्राजील की तर्ज पर उससे होने वाले लाभों पर टैक्स लगाया जाएं। साथ ही साथ उन पर 3 साल का लाॅकिंग पीरियड लागू हो। इसके अलावा सरकार को रुपये की मुद्रा प्रसार रोकने के साथ ही अपने खर्चे को भी कम करना होगा। किसानों की कर्जमाफी, बिना उपयुक्त के मनरेगा जैसी स्कीमें जिसका नुकसान सामने है, सड़ी-गली सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर आधारित खाद्य सब्सिडी, जिसका लाभ गरीबों तक पहुंचता ही नहीं, डीजल सब्सिडी के नाम पर लग्जरी कारों के लिए सस्ता डीजल तमाम ऐसे खर्च है जो देश का राजकोषिय घाटा बढ़ाने का काम करते है। विभिन्न विभागों से होने वाले आय का संबंधित लोगों द्वारा करोड़ों-अरबों का घोटाला आदि को रोकना ही होगा। ऐसे में सामाजिक कल्याण को हानि पहुंचाएं बिना सरकार को इन खर्चो को युक्तिसंगत बनाना होगा।
लेकिन यह हो नहीं सकता, क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था की जननी भाजपा ही है। आज देश में जमाखोरी को मुद्दा बनाकर छोटे व्यापारियों पर तो नकेल कस दी जाती है, लेकिन बड़े व्यापारी बड़े ही सफाई से बच जाते है। व्यापारियों के लिए स्टाॅक रखने की कोई सटीक सीमा तय नहीं है जिससे वे सूखे की आहट पाते ही जमाखोरी करने लगते है। नतीजा यह होता है कि बाजार में खाद्य पदार्थो की कमी होने लगती है और दाम बढ़ जाते है। इस स्थिति के लिए काफी हद तक प्रशासनिक अधिकारी जिम्मेदार होते है। प्रशासनिक अधिकारी ही इस तरह के भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते है। ऐसा नहीं है अचानक से महंगाई बढ़ जाती है। अगर शुरु से ही सामानों के दाम पर निगरानी रखी जाएं तो ऐसी स्थिति पेदा होने से बचा सकता है। सरकार की नियत और नीति साफ रहे तो जमाखोरी रोकी जा सकती है।
आम आदमी भूख से बिलख रहा है और दूसरी ओर गोवा के विधायक उन्हीं के पैसे पर ब्राजील जा रहे थे मैच देखने। मीडिया की हाय-तौबा पर दौरा रद्द होने के बावजूद पार्टी की मंशा तो आम आदमी के जेहन में कैद हो ही गई है। पिछले सवा महीने से महंगाई ने आम आदमी का जीना मुहाल कर दिया है। महंगाई पर पहले कांग्रेसी कान में तेल डाले हुए थे अब वहीं काम बीजेपी सरकार कर रही है। अरे आप तो कुछ अलग करने का दावा कर रहे थे न, तो कांग्रेसियों की तरह आपके भी मुंह पर पट्टी क्यों। पर सवा महीने हो गया पर पीएम की आवाज बंद है। मोदी ने 2011 में पीएम को एक रिपोर्ट सौंपकर कहा था कि वायदा कारोबार और महंगाई के बीच सीधा संबंध है और इसे तोड़कर आसानी से दाम नियंत्रित हो सकते है। लेकिन अब इस मुद्दे पर सबकी जीभ हलक में उतर गयी है, क्योंकि यही सारे वायदा कारोबारी तो पार्टी के फाइनैंसर है। हर कोई इसे मानता है कि अगर खाद्य पदार्थो के वायदा कारोबार पर कड़ाई से लगाम लगाई जाएं तो महंगाई नामक डायन को आसानी से कंटोल किया जा सकता है। भारतीय अर्थ व्यवस्था में वायदा कारोबार के प्रवेश ने किसानों और कीमतों को बेहाल कर दिया है। विपन्न किसान तो वायदा कारोबार के फायदे से वंचित ही रहेगा और टंच माल सटोरिए ले जाते रहेंगे। ये सौदे मुंबई स्थित दो बड़े कमारेडिटी एक्चेंजों में आॅनलाइन होते है, जिसके बारे में इंटरनेशनल खाद्य व कृषि संगठन ने भी स्वीकार किया था कि इन्हीं की वजह से कमोडिटी के दाम बढ़ते जा रहे है। बड़े-बड़े सटोरिए बिना मेहनत के रोज लाखों-करोड़ो का वारा-न्यारा कर रहे है और सजा पा रही है आम जनता। जमाखोरों ओर कालाबाजारियों के खिलाफ अब कड़ी कार्रवाई और स्टाॅक रखने की सीमा जैसे नए कदम में नया क्या है। यही तो यूपीए सरकार भी करती थी। बीजेपी ने अपने मेनोफेस्टों में जिस प्राइस स्टैक्लाइजेशन फंड का वायदा किया था, वह कहां है।
वर्ष 1950 में जमाखोरों पर नकेल कसने के लिए मंडी समिति कानून लाया गया था। मंडी समिति कानून असल में असल में जमाखोरी से बचाने के लिए बना था। लेकिन इसके तहत जिसको लाइसेंस मिला वो जमाखोरी कर रहे है। आज स्थिति यह है कि देश की बड़ी-बड़ी मंडियों में खुली बोली का प्राविधान नहीं है। सब्जियों और फलों के दाम का निर्माण आज भी रुमाल रखकर कर दिया जाता है। ऐसे नजारे आपकों देश के हर जगह देखने को मिल जायेंगे। ऐसा नहीं है कि सरकार को पता नहीं है। सरकार सबकुछ जानते हुए भी हाथ पर हाथ धरे हुए बैठी हुई है। नौकरशाहों की मिलीभगत से किसानों का खुलेतौर पर शोषण किया जा रहा है। आम जनता को सर्विस टैक्स से ज्यादा वास्ता नहीं पड़ता, लेकिन सर्विस टैक्स बढ़ने का प्रभाव भी पेटोल या डीजल के दाम बढ़ने की ही तरह है, जिससे महंगाई बढ़ने का एक और दुष्चक्र शुरु हो जायेगा। इससे सभी कंपनियों खर्च काफी बढ़ जायेगा, क्योंकि उन्हें कई कंपनियों की अलग-अलग सेवाएं लेनी पड़ती है, जिन पर उन्हें सर्विस टैक्स देना पड़ता है। बदले में वे अपने उत्पाद और सेवाएं महंगी कर देंगे और इस तरह सेवा कर बढ़ने का असली नुकसान अंततः आम जनता को ही होगा।
---सुरेश गांधी---

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