भौगौलिक, शारीरिक, मानसिक और परिवेशीय विविधताओं के बीच यह कभी संभव नहीं हो पाता कि हमें सभी स्थानों पर मन के अनुकूल परिस्थितियां और लोग मिलें। यह भी संभव नहीं कि हर काम हमारा अपना मनचाहा ही हो, और कोई सा काम अनचाहा या औरों का चाहा हो ही नहीं।
किन्हीं दो-चार लोगों को अपनी अनुकूलताओं के लिए मनाया भी जा सकता है लेकिन उसे भी स्थायी नहीं माना जा सकता। जहाँ बहुजन हों वहाँ सभी प्रकार की अनुकूलताएं मिल पाना असंभव है। और यों भी सामुदायिक तथा सामूहिक मामलों में अनुकूलताओं के लिए मारामारी की बजाय समन्वय बिठाने पर जोर दिए जाने की जरूरत होती है और इन स्थलों में समन्वय ही वह कारगर माध्यम है जिससे परिस्थितियों को अपने अनुकूल किया जा सकता है अथवा अपने आप को परिस्थितियों के अनुकूल ढाला जा सकता है।
बिना समन्वय के बहिर्वृत्तियों की सफलता की कामना करना व्यर्थ है। समन्वय का यह अर्थ कदापि नहीं लिया जाना चाहिए कि अपने या अपने प्रतिष्ठान, संस्थानों एवं संस्थाओं के कामों को पूर्णता देने के लिए किसी प्रकार के समझौते किए जाएं और उन तत्वों को स्वीकारा जाए जो कि नकारात्मकता से उपजे हुए हैं। बल्कि इसका सीधा सा अर्थ यही है कि कार्य सिद्धि के लिए और कार्यसिद्धि हो जाने तक के लिए ही परस्पर ऎसे समीकरण बिठाये जाने चाहिएं जिससे कि किसी भी पक्ष को झुकने या समर्पण कर देने की न नौबत आए, न विवश होना पड़े।
समन्वय अपने आप में इतना भारी शब्द है कि एक बार किसी की समझ में आ जाए तो जीवन में किसी भी मोड़ पर किसी भी प्रकार की कोई परेशानी सामने आ ही नहीं सकती बल्कि ऎसे लोग समन्वयक की भूमिका को बेहतरी के साथ निभाते हुए कार्यसिद्धि करते और सफलता का दिग्दर्शन कराते इस प्रकार हुए आगे बढ़ चलते हैं कि बाद में हरेक को इनकी बुद्धिमत्ता और कौशल पर आश्चर्य करना ही पड़ता है।
आज सभी स्थानों पर स्थिति ‘अहं ब्रह्मास्मि’ और ‘मुण्डे-मुण्डे मतिर्भिन्ना’ वाली ही है। कोई भी एक दूसरे को स्वीकार करने या एक-दूसरे का आदर-सम्मान करने को तैयार नहीं है। सारे के सारे अपने आपको चाणक्य, अशोक महान, महात्मा गांधी, विवेकानंद और विक्रमादित्य मानने लगे हैं और चाहते हैं कि दूसरे सारे लोग उनकी प्रभुता को बिना कुछ तर्क किए स्वीकार कर लें और आँखें मींच कर उनके अनुचरों की भीड़ में शामिल हो जाएं।
इस अहंकारपूर्ण परिवेशीय स्थिति में दुनिया का कोई सा काम हो,वह बड़ा ही टेढ़ा और दुश्कर साबित होने लगा है। एक तरफ आत्ममुग्ध और स्वनामधन्य लोगों को स्वीकारने का संकट, दूसरा उनके तर्क-कुतर्क और दुष्प्रचारों का जवाब देने का संकट, इससे भी बढ़कर तीसरी बात यह कि अपने आपको बेगुनाह साबित करने का संकट, और वह भी उन लोगों के सामने जो दुनिया में मूर्ख, अज्ञानी और विक्षिप्त हैं।
इन सारे हालातों में बौद्धिक दृष्टिकोण से सार तत्व यही है कि जो जैसा है वैसा बना रहेगा, हमारा उद्देश्य न उन्हें सुधारने का होना चाहिए, न उनसे पंगा लेने का। क्योंकि जिनका बीज ही खराब है उनके फल अच्छे और मीठे होने की कामना व्यर्थ है।
इन हालातों में समन्वय अपनाकर ही आगे बढ़ा जा सकता है। यह समन्वय ही है जो अपने आपको कई मुसीबतों से मुक्ति भी दिलाता है और कार्य में सफलता का संतोष भी। जो जैसे हैं, उन्हें वैसे ही बने रहने दें, न वे सुधरने वाले हैं, न हम उन्हें सुधार पाने वाले हैं क्योंकि इन लोगों में तनिक भी गुंजाईश शेष बची ही नहीं है। अपने कामों में मस्त रहें, लगे रहें और आगे बढ़ते रहें। दांये-बांये, आगे-पीछे देखने की भूल न करें।
---डॉ. दीपक आचार्य---
9413306077
dr.deepakaacharya@gmail.com

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