भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को सही दिशा में ले जाने वाले चिंतकों और मनीषियों में आचार्य विनोबा भावे भी शामिल थे, जिन्होंने आजादी के बाद देशव्यापी भूदान आंदोलन चलाया और भूदान का प्रतीक बन गए। वह स्वतंत्रता सेनानी, समाजसेवी, चिंतक और दार्शनिक थे। विनोबा भावे का मूल नाम विनायक नरहरि भावे था। महाराष्ट्र के कोंकण क्षेत्र के गागोदा गांव में नरहरि भावे के घर 11 सितंबर, 1895 को विनोबा का जन्म हुआ था। नरहरि भावे गणित के प्रेमी और वैज्ञानिक सूझबूझ वाले व्यक्ति थे। रसायन विज्ञान में उनकी रुचि थी। उन दिनों रंग बाहर से आयात किए जाते थे। नरहरि भावे रात-दिन रंगों की खोज में लगे रहते। उनकी बस एक धुन थी कि भारत को इस मामले में आत्मनिर्भर बनाया जाए।
विनाबा जी का बचपन का नाम था विनायक। मां उन्हें प्यार से विन्या कहकर बुलातीं। विनोबा के अलावा रुक्मिणी बाई के दो और बेटे थे-वाल्कोबा और शिवाजी। विनायक से छोटे वाल्कोबा। शिवाजी सबसे छोटे। विनोबा नाम गांधी जी ने दिया था। महाराष्ट्र में नाम के पीछे 'बा' लगाने का जो चलन है, उसी के अनुसार वह विनायक से विन्या, फिर विनो और अंत में विनोबा कहलाए।
बालक विनायक को माता-पिता दोनों के संस्कार मिले। गणित की सूझ-बूझ और तर्क-सामथ्र्य, विज्ञान के प्रति गहन अनुराग, परंपरा के प्रति वैज्ञानिक दृष्टिकोण और तमाम तरह के पूर्वाग्रहों से अलग हटकर सोचने की कला उन्हें पिता की ओर से प्राप्त हुई, जबकि मां की ओर से मिले धर्म और संस्कृति के प्रति गहन अनुराग, प्राणिमात्र के कल्याण की भावना।
विनोबा जी महात्मा गांधी के संपर्क में आने से पहले ही आध्यात्मिक ऊंचाई प्राप्त कर चुके थे। बाद में वह गांधी जी के आश्रम में रहने लगे। उनसे पहली ही मुलाकात में प्रभावित होकर गांधी जी ने सहज मन से कहा था, "बाकी लोग तो इस आश्रम से कुछ लेने के लिए आते हैं, एक यही है जो हमें कुछ देने के लिए आया है।"
विनोबा की गणित की प्रवीणता और उसके तर्क उनके आध्यात्मिक विश्वास के आड़े नहीं आते थे। यदि कभी दोनों के बीच स्पर्धा होती भी तो जीत आध्यात्मिक विश्वास की ही होती।
उनकी मां रुक्मिणी बाई हर महीने चावल के एक लाख दाने दान करती थीं। एक लाख की गिनती करना भी आसान न था, सो वे पूरे महीने एक-एक चावल गिनती रहतीं। नरहरि भावे ने पत्नी को चावल गिनने में श्रम करते देख एक दिन उन्हें टोक ही दिया, 'इस तरह एक-एक चावल गिनने में समय जाया करने की जरूरत ही क्या है? एक पाव चावल लो। उनकी गिनती कर लो। फिर उसी से एक लाख चावलों का वजन निकालकर तौल लो। कमी न रहे, इसलिए एकाध मुट्ठी ऊपर से डाल लो।' बात तर्क की थी। लौकिक समझदारी भी इसी में थी कि समय की बचत की जाए। रुक्मिणी बाई को पति का तर्क समझ तो आया, पर मन ने नहीं माना। एक दिन उन्होंने अपनी दुविधा बेटे विन्या के सामने रखी।
बेटे ने सबकुछ सुना, सोचा। बोला, "मां, पिता जी के तर्क में दम है। गणित यही कहता है। किंतु दान के लिए चावल गिनना सिर्फ गिनती करना नहीं है। गिनती करते समय हर चावल के साथ हम न केवल ईश्वर का नाम लेते जाते हैं, बल्कि हमारा मन भी उसी से जुड़ा रहता है।'
ईश्वर के नाम पर दान के लिए चावल गिनना भी एक साधना है, रुक्मिणी बाई ने ऐसा पहले कहां सोचा था। अध्यात्म के रस में पूरी तरह डूबी रहने वाली रुक्मिणी बाई को विन्या की बातें खूब भातीं। बेटे पर गर्व हो आता था उन्हें। महान स्वतंत्रता सेनानी आचार्य विनोबा का 15 नवंबर 1982 को निधन हो गया।

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