आलेख : विश्व मंच पर मोदी ने उकेरी 21वीं सदी के भारत की नई तस्वीर - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 2 अक्टूबर 2014

आलेख : विश्व मंच पर मोदी ने उकेरी 21वीं सदी के भारत की नई तस्वीर

जिस तरह दुनिया के सबसे बड़े ताकतवर कहलाने वाले देश की सरजमी पर मोदी ने आतंकवाद की जननी पाकिस्तान को न सिर्फ दो टूक में विश्वमंच पर नीति स्पष्ट करने की सलाह दे डाली, बल्कि वैश्विक समस्याओं का बहुपक्षीय समाधान की वकालत भी की, वह काबिले तारीफ है ही, मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के प्रति भी गंभीरता जताते हुए उन्होंने विश्व मंच पर यह बताने की कोशिश किया कि धनी देश अपने तकनीकी व धन से विकासशील देशों की मदद को आगे आएं और दुनिया को अपनी जीवनशैली में बदलाव लाते हुए लगातार हो रहे जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण प्रदूषण, बढ़ते आतंकवाद, कट्टरपंथी विचारधारा के फैलाव, संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन, शांतिवाहिनी अभियान के साथ-साथ आर्थिक विकास, टिकाऊ मानव विकास को अपने विमर्श का हिस्सा बनाए। खासकर इलाहाबाद, अजमेर व विशाखपट्नम को स्मार्ट सिटी बनाने के साथ ही आतंकवादी ठेकानों को नेस्तनाबूद करने के साथ ही रक्षा सहयोग को 10 वर्ष और बढ़ाने पर सहमति, असैन्य परमाणु करार को लागू करने में आ रही बाधाओं को दूर करने पर सहमति, अमेरिकी कंपनियों को भारतीय रक्षा उत्पादन क्षेत्र में भागीदारी का निमंत्रण, जैसे करार मोदी की बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है  

मोदी सरकार की विदेश नीति की झलक तो शपथ ग्रहण से पहले ही उठाएं गए कूटनीतिक कदमों से ही दिखने लगी थी, लेकिन अब उसका असर भी दिखने लगा है। पहले भूटान, नेपाल, जापान अब अमेरिकी यात्रा की सफलता उनकी सोच में चार चांद लगा रहा है। जिस तरह दुनिया के सबसे बड़े ताकतवर कहलाने वाले देश की सरजमी पर मोदी ने आतंकवाद की जननी पाकिस्तान को न सिर्फ दो टूक में विश्वमंच पर नीति स्पष्ट करने की सलाह दे डाली, बल्कि वैश्विक समस्याओं का बहुपक्षीय समाधान की वकालत भी की, वह काबिले तारीफ है। मतलब साफ है, वह चाहते है कि भारत पाकिस्तान के बीच द्विपक्षीय वार्ता हो, लेकिन आतंक के साये तले नहीं। इस दोतरफा मसले को विश्वमंच पर उठाने से समाधान की दिशा में प्रगति नहीं होगी। ऐसा आपसी बातचीत से होगा और इसके लिए उचित माहौल बनाना पाकिस्तान की जिम्मेदारी होगी। ऐसा तब तक नहीं हो सकता जब तक पाकिस्तान आतंकवाद को अपने रणनीतिक उद्देश्यों को पूरा करने का जरिया बनाएं रखता है। आतंकवाद की चुनौती से निपटने के लिए आतंकवाद को समर्थन देने वाले तंत्र के खिलाफ वैश्विक समुदाय को एकजुट होकर संयुक्त मोर्चा बनाने की बात कहीं। साथ ही उन्होंने आतंकवादियों के अच्छे-बुरे वर्गीकरण करने की प्रवृत्ति से भी परहेज करने को भी कहा। इसके अलावा मोदी ने अपने मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के प्रति गंभीरता जताते हुए विश्व मंच पर यह बताने की कोशिश किया कि धनी देश अपने तकनीकी व धन से विकासशील देशों की मदद को आगे तो आएं ही, साथ ही दुनिया को अपनी जीवनशैली में बदलाव लाते हुए लगातार हो रहे जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण प्रदूषण, बढ़ते आतंकवाद, कट्टरपंथी विचारधारा के फैलाव, 30 मीटर टेलीस्कोप बहुराष्टीय परियोजना में साझेदारी, उर्जा सुरक्षा पर सहयोग, गैस हाइडे्रट पर मदद, उच्च व आॅनलाइन शिक्षा पर आईटी का सहयोग, संयुक्त राष्ट्र के पुनर्गठन, शांतिवाहिनी अभियान के साथ-साथ आर्थिक विकास, टिकाऊ मानव विकास को अपने विमर्श का हिस्सा बनाएं। इन सबके बीच मोदी की ऊर्जा के स्तर और आत्मविश्वास से आत्मानुशाषित, सरल और निर्णायक नेता की जो छवि बनी वह भारत और इसकी सवा सौ करोड़ की आबादी को विकास के नए मुकाम पर ले जाने को तटस्थ दिखी। 

वैसे भी नेपाल, भूटान व जापान में भी मोदी का मुख्य ध्यान सामरिक रणनीति के तहत भारत की अर्थव्यवस्था को मजबूती करना था, ताकि चीन व पाकिस्तान की बढ़ती आक्रमकता को रोका जा सके। जापान के सापेक्ष अमेरिका में भी मोदी ने कुछ उसी तरह के संकेत दिए। इंटेलेक्चुअल काॅपीराइट नियमों में ढि़लाई, म्युचुअल फंड, मूल्यों में कटौती, पेंशन फंड और निवेश संबंधी दिक्कतों को ओबामा से मिलकर दूर करने की भरपूर कोशिश की, जिसमें उन्हें सफलता भी मिली। हालांकि इसका लाभ तभी संभव हो पायेगा जब घरेलू और विदेशी दोनों के विचार एक हो। इन सबके बावजूद मोदी का प्रयास यही है कि भारत को एक आर्थिक ताकतवर देश बनाया जाएं, जिससे आशा का एक नई संचार पैदा किया जा सके। इसके लिए भारतीय समाज को एकमंच पर लाना मोदी के लिए कठिनाई भरा काम जरुर होगा। चैकाने वाली बात यह है कि मोदी ने जिस तरह भारत में अपनी छाप छोड़ी और दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री बन गए वह छाप अमेरिका में भी देखने को मिला। मोदी के मेडिसन कार्यक्रम में मौजूद 18,000 लोगों में अधिकांश भारतीय मूल के थे और उनमें भी भाजपा व नरेंद्र मोदी के समर्थक तो थे ही, करीब 40 अमेरिकी सांसदों की उपस्थिति अमेरिका में भारतीय मूल के लोगों के राजनीतिक महत्व को भी दर्शाती है। साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि अमेरिकी राजनीतिक परिदृश्य अब इस सच्चई को स्वीकारने लगा है कि भारतीयों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। इजराइली यहूदियों को छोड़ दें तो कोई भी अन्य अप्रवासी समुदाय अपनी शक्ति का इस तरह प्रदर्शन नहीं कर पाया है जिस प्रकार भारत के एनआरआइ ने किया है। आतंकवाद के विरुद्ध भारत-अमेरिकी सहयोग को और आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा राष्ट्रपति बराक ओबामा लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, दाऊद कंपनी, अल कायदा और हक्कानी नेटवर्क जैसे आतंकवादी समूहों और आपराधिक नेटवर्को को ध्वस्त करने के लिए संयुक्त और सतत प्रयास करने पर सहमती बड़ी कामयाबी है, क्योंकि आतंकवाद से निपटने के लिए अमेरिका के पास बड़ें संयंत्र है। इस बात पर भी सहमति बनी है कि दोनों देश इन आतंकवादी समूहों के वित्तीय और उन्हें मिल रहे अन्य प्रकार के सहयोग को ध्वस्त करने की दिशा में कदम उठाएंगे। डी कंपनी से अर्थ 1993 के मुंबई बम विस्फोटों के मुख्य साजिशकर्ता दाऊद इब्राहिम से है जिसके बारे में माना जाता है कि वह पाकिस्तान में शरण लिए हुए है। ऐसे संकेत थे कि भारत उसके प्रत्यार्पण के लिए अमेरिका की मदद मांगेगा। अधिकारियों ने स्पष्ट किया कि भारत पश्चिम एशिया में आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई को लेकर बने किसी गठबंधन में शामिल नहीं होगा। इसी प्रकार, उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि अफगानिस्तान में तय पाई त्रिपक्षीय साझेदारी सैन्य सहयोग के बजाय विकास के मुद्दे पर आधारित होगी। 

अमेरिका में मौजूद देश-दुनिया के तमाम भारतीयों के बीच मोदी ने आशा का संचार करने के साथ ही उन्हें यह विश्वास दिलाने की कोशिश किया वे उनके सपनों के भारत का निर्माण करने के लिए उतना ही बेताब है जितना वह सोचते है। लोगों को यह बताने में मोदी काफी हद तक सफल भी रहे कि भारत दुनिया के साथ कदम मिलाकर चलने के लिए सक्षम है। इसके लिए उन्होंने विदेशी निवेश के साथ देश के उद्यमियों की भी भावनाओं का कद्र करते हुए उन्हें लालफीताशाही के चंगुल से मुक्त करने की जुगत की है। चूकि मोदी इससे अच्छी तरह अवगत थे कि भारतीय उद्योगपतियों की बेरुखी के चलते ही अर्थव्यवस्था का संकट बढ़ा है। बात भी सही है अगर मेक इन इंडिया की उड़ान ऊंची करनी है, तो समस्याओं का समाधान भी उन्हें करना होगा। समस्याओं व ′विश्वास′ के अभाव के वजह से भारत काफी पीछे है। मसलन, लालफीताशाही वैश्विक कंपनियों पर टैक्स व  उनके मुनाफे की घोषणा पर सवाल खड़ा करते रहते हैं। इतना ही नहीं भारतीय कंपनियों के लिए कर की दर 33 फीसदी है, लेकिन वैश्विक कंपनियों के लिए यह दर 40 प्रतिशत है। इसके अलावा बंदरगाहों पर कर्मचारियों और माल के रख-रखाव की खराब व्यवस्था और बुनियादी ढांचागत समस्याओं की वजह से भी वैश्विक विनिर्माण में भारत कहीं नहीं ठहरता। यही वजह है कि आयातित कच्चे माल पर 10 प्रतिशत आयात शुल्क बढ़ जाता है। 60 फीसदी भारतीय कारोबारी कैप्टिव पावर प्लांट (ग्रिड नहीं, बल्कि अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए खुद बिजली बनाना) से मिलने वाली बिजली पर निर्भर हैं, जो कोयला आधारित ग्रिड से मिलने वाली बिजली से दो से तीन गुनी महंगी है। जबकि चीन में महज 18 फीसदी कारोबारी ही कैप्टिव पावर प्लांट पर निर्भर हैं। हालांकि प्रस्तावित जीएसटी में इस समस्या के समाधान की उम्मीद है। सिंगल विंडो के लिए सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक साथ लाने की भी एक गंभीर मसला है, जिसका निदान अब तक नहीं हो पाया है। यहीं संकट मोदी के मेक इन इंडिया योजना की राह में स्वीट प्वाइजन का काम कर रहा है। यह भी सच है कि अगर मोदी अंदरुनी समस्याओं व लालफीताशाही पर लगाम लगाने में सफल हुए तो कारोबारी सहूलियत के मामले में देश की रेटिंग बेहतर होने में देर नहीं लगेगी। 

यह कटु सत्य है कि मोदी उद्यमियों को ऐसे वक्त में रिझा रहे है जब यहां के हालात को देखते हुए विदेशी तो क्या घरेलू भी भारत में निवेश से तौबा कर रहे थे। मेक इन इंडिया अभियान ने विदेशी उद्यमियों में भी उम्मीदें जगाई है तो उसकी वजह यही है कि वे मोदी पर भरोसा कर पा रहे हैं। आम भारतीयों से लेकर अमेरिकी भारतीयों और देसी उद्यमियों से लेकर विदेशी व्यापारियों के बीच मोदी ने यह जो भरोसा पैदा किया है वही उनकी सबसे बड़ी ताकत है। अपनी इसी ताकत के कारण वह अमेरिका में भी भारत का सिर उंचा किए हुए हैं। यह एक सच्चाई है कि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा से मुलाकात के पहले मोदी ने देश-दुनिया में जैसी हलचल मचा दी उससे उन्होंने न केवल अपना, बल्कि भारत का भी कद बढ़ाया है। उम्मीद की जानी चाहिए कि इस बढ़े हुए कद का लाभ पूरे देश को मिलेगा। मोदी की प्राथमिकता देश के निर्धन और मध्यम वर्ग को अधिक से अधिक रोजगार दिलाना है, ताकि उसकी क्रयशक्ति बढ़े और एक नया बाजार भी तैयार हो। शायद यही वजह भी है कि मोदी ने विदेशी उद्यमियों को भी यही कहकर रिझा रहे कि वह भारत को केवल एक बाजार के रुप में न देंखे, बल्कि उसके कौशल क्षमता को भी परखे। उन्होंने उद्योगपतियों से आईटीआई सरीखे प्रशिक्षण संस्थानों को गोद लेने का भी आह्वान किया ताकि वे अपनी जरुरत के अनुरुप मानव संसाधन विकसित कर सके। 

यह बात दिगर है कि आने वाले दिनों में यह चुनौती आसान होगी या मुश्किल, इस पर निर्भर करेगा कि मोदी सरकार अपने वायदों को पूरा करती दिखती है या नहीं? यह भी सही है कि भारत और अमेरिका के बीच नागरिक आणविक समझौते पर जारी गतिरोध दूर करने, संयुक्त राष्ट्र में भारत को स्थायी सदस्यता दिलाने, खाद्य सब्सिडी पर विश्व व्यापार संगठन की आपत्तियों को दूर करने, दवा उद्योग में पेटेंट कानून लागू करने, कार्बन उत्सजर्न और जलवायु परिवर्तन, सामरिक और कूटनीतिक मोर्चे पर आतंकवाद, 2014 के बाद अफगानिस्तान-पाकिस्तान के हालात, सैन्य क्षेत्र में उच्च प्रौद्योगिकी की भारत की मांग और चीन का तेजी से उभार सहित अन्य प्रमुख मुद्दों पर अपना रुख स्पष्ट करना अभी बाकि हैं। लेकिन अब उम्मीद की जा रही है कि मोदी-ओबामा के बीच हुई वार्ता के बाद इन मसलों को सुलझाने में कारगर होगी। मोदी ने मेडिसन स्क्वायर गार्डेन में अमेरिका में रह रहे भारतीयों को भारत के उत्थान में योगदान देने का न्योता तो दिया ही अमेरिकी उद्यमियों को भी मेक इन इंडिया अभियान को सफल बनाने की बात कहीं है। जबकि भारतीय उद्यमियों को पहले ही कह चुके हैं कि भारत को मैन्युफैक्चरिंग का गढ़ बनाएं। मोदी का मानना है कि दुनिया का सर्वाधिक ताकतवर वहीं हो सकता है जिसमें नेतृत्व क्षमता हो। उन्हें इस बात का गर्व है कि भारत नौजवानों का देश है और सवा सौ अरब लोगों में दुनिया का नेतृत्व करने की क्षमता भी। वह 21वीं सदी को भारत भारत की सदी बनाने के लिए अभी से जुटे है वह भी पूरी निष्ठा व ईमानदारीपूर्वक। उनका मानना है कि यदि सबकुछ ठीकठाक रहा तो 2020 तक भारत पूरी दुनिया को वर्क सप्लाई देने योग्य हो जायेगा। 

भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां पुरानी सभ्यता और विश्व की युवा आबादी के रुप में सुमार है। मोदी ने थी्र डी का जिक्र करते हुए कहा कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र है यही हमारी सबसे बड़ी ताकत व पूंजी है। युवा शक्ति से बड़ी संपदा और क्या हो सकती है। सवा अरब लोगों का हमारा देश है जिसकी पूरी दुनिया को मांग है। उनका सपना है कि देश के हर परिवार में शौचालय हो और वर्ष 2022 तक देश में कोई परिवार ऐसा न हो जिसके पास खुद का अपना घर न हो। उनका दावा है कि सबकुछ इसी तरह चलता रहा तो उनका सपना जरुर पूरा होगा। क्योंकि यही छोटी-छोटी बातें भारत की तकदीर बदलने वाली है। मतलब मोदी का पूरा ध्यान आर्थिक गतिविधि के विकास पर है। चाहे वह कृषि हो, विनिर्माण या सेवा क्षेत्र हो। स्वास्थ्य अर्थव्यवस्था के लिए कृषि, विनिर्माण और सेवा क्षेत्र तीनों का विकास एकसाथ होना जरुरी है। जिसके लिए वह प्रयासरत है। क्योंकि वह जानते है कि सेवा क्षेत्र में पर्यटन की भारी संभावनाएं है और इससे हर कोई कमाता है। मोदी का मानना है कि यह दौर आर्थिक विकास का है। बेहतर जिंदगी हर आदमी की हसरत है। इसलिए सबसे ज्यादा जरुरत इस बात का है कि देशों का राजनीतिक नेतृत्व सच्चे मन से हो। शायद इसीलिए वह देशों से बेहतर संबंध बनाने को अपने एजेंडे में सबसे उपर रखा है। आज अमेरिकी कंपनियों के पास निवेश के लायक 20.5 खरब डॉलर की पूंजी है। यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद से कहीं ज्यादा है। भारत इस रकम का कुछ हिस्सा बुनियादी ढांचे के विकास, स्मार्ट सिटी के निर्माण, रक्षा उद्योग, परमाणु और सौर ऊर्जा आदि के क्षेत्रों में निवेश के रूप में पा सकता है। लेकिन मोदी की असली चुनौती अमेरिकी कारोबारियों का विश्वास जीतने की है, जो भारत की नीतिगत पंगुता से निराश हैं। 








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सुरेश गांधी 

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