आतंकवाद के विरुद्ध भारत-अमेरिकी सहयोग को और आगे बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तथा राष्ट्रपति बराक ओबामा लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, दाऊद कंपनी, अल कायदा और हक्कानी नेटवर्क जैसे आतंकवादी समूहों और आपराधिक नेटवर्को को ध्वस्त करने के लिए संयुक्त और सतत प्रयास करने पर सहमती बड़ी कामयाबी है, क्योंकि आतंकवाद से निपटने के लिए अमेरिका के पास बड़ें संयंत्र है। लेकिन सवाल यह है कि क्या ओबामा के कंधे पर सवार हो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी डान दाउद इब्राहिम का तिलिस्म तोड़ पायेंगे। क्योंकि जहां दाउद पनाह ले रखा है वह है आतंकवाद की जननी पाकिस्तान, जिसका उस पर साएं की तरह छाया है। है न चैकाने वाली बात। वजह भी साफ है, व्यवसाय की दृष्टि से ओबामा कभी नहीं चाहेंगे अफगानिस्तान व पाकिस्तान से उनके रिश्ते में किसी तरह खटास आएं, क्योंकि उनके लिए दोनों बड़ा मार्केट है। जब कभी भी आतंकवाद के खिलाफ आवाज उठती है तो अमेरिका हमेशा अपने हितों की ही परवाह की। मतलब साफ है, एकतरफ अमेरिका ने आतंकवाद के खिलाफ अभियान की अगुआई की और दूसरी ओर ऐसा करते समय उन आतंकी गतिविधियों की अनदेखी भी की जो भारत के लिए खतरा बनी हुई हैं। अमेरिका को पता है कि भारत के पड़ोसी अर्थात पाकिस्तान में किस तरह उन तत्वों को हर स्तर पर सहयोग, समर्थन और संरक्षण दिया जा रहा है जो भारतीय हितों के लिए खतरा बने हुए हैं, लेकिन वह कभी भी इस्लामाबाद पर दबाव नहीं बनाया। अमेरिका के एकपक्षीय नजरिये की झलक ईरान और म्यांमार के मामले में भी नजर आती है। वह अपने बेजा इस्तेमाल के लिए भारत पर इसके लिए दबाव बनाता रहा कि वह इन दोनों देशों से अपने संबंध मजबूत न करे, लेकिन पिछले कुछ समय में वह खुद ही इन दोनों देशों से संबंध सुधारने में जुटा हुआ है।
हालांकि मोदी के अमेरिकी दौरे में इस बात पर सहमति बनी है कि भारत व अमेरिका आतंकवादी समूहों के वित्तीय और उन्हें मिल रहे अन्य प्रकार के सहयोग व संरक्षण को ध्वस्त करने की दिशा में कारगर कदम उठाएंगे। वर्ष 1993 के मुंबई बम विस्फोटों के मुख्य साजिशकर्ता दाऊद इब्राहिम को पकड़वाने में भारत का हर तरीके से सपोर्ट करेंगे। खुफिया तंत्र को हर वह जानकारी मुहैया करेंगे जो दाउद से जुड़े है। आतंकियों और अपराधियों के सुरक्षित ठिकानों को मिलकर नष्ट करेंगे। आतंकियों की आर्थिक और सामरिक मदद पर नकेल कसने का भी फैसला किया गया है। लेकिन भारत पश्चिम एशिया में आतंकवाद के खिलाफ किसी गठजोड़ का हिस्सा नहीं बनेगा। और अफगानिस्तान में तय पाई त्रिपक्षीय साझेदारी सैन्य सहयोग के बजाय विकास के मुद्दे पर आधारित होगी। ऐसे में आप खुद समझ सकते है, किस तरह मित्रता निभेगी। बात अगर निवेश को लेकर ही की जाएं तो क्या अमेरिकी कंपनियों के हितों को ही ध्यान में रखकर किया जा सकता है। दोनों देशों में स्वाभाविक दोस्ती के लिए यह अनिवार्य है कि अमेरिका भारत को एक सशक्त सहयोगी के रूप में देखे और साथ ही उसके घरेलू और बाहरी हितों का भी ध्यान रखे।
वैसे भी मोदी को अगर मेक इन इंडिया की उड़ान ऊंची करनी है, तो उन्हें समस्याओं का समाधान भी करना होगा। समस्याओं व ′विश्वास′ के अभाव के वजह से ही भारत काफी पीछे है। मसलन, लालफीताशाही वैश्विक कंपनियों पर टैक्स व उनके मुनाफे की घोषणा पर सवाल खड़ा करते रहते हैं। इतना ही नहीं भारतीय कंपनियों के लिए कर की दर 33 फीसदी है, लेकिन वैश्विक कंपनियों के लिए यह दर 40 प्रतिशत है। इसके अलावा बंदरगाहों पर कर्मचारियों और माल के रख-रखाव की खराब व्यवस्था और बुनियादी ढांचागत समस्याओं की वजह से भी वैश्विक विनिर्माण में भारत कहीं नहीं ठहरता। यही वजह है कि आयातित कच्चे माल पर 10 प्रतिशत आयात शुल्क बढ़ जाता है। 60 फीसदी भारतीय कारोबारी कैप्टिव पावर प्लांट (ग्रिड नहीं, बल्कि अपनी जरूरतें पूरी करने के लिए खुद बिजली बनाना) से मिलने वाली बिजली पर निर्भर हैं, जो कोयला आधारित ग्रिड से मिलने वाली बिजली से दो से तीन गुनी महंगी है। जबकि चीन में महज 18 फीसदी कारोबारी ही कैप्टिव पावर प्लांट पर निर्भर हैं। हालांकि प्रस्तावित जीएसटी में इस समस्या के समाधान की उम्मीद है। सिंगल विंडो के लिए सभी राज्यों के मुख्यमंत्रियों को एक साथ लाने की भी एक गंभीर मसला है, जिसका निदान अब तक नहीं हो पाया है। यहीं संकट मोदी के मेक इन इंडिया योजना की राह में स्वीट प्वाइजन का काम कर रहा है।
हालांकि भारत और अमेरिका के बीच संबंधों को प्रगाढ़ करने और एक नई दिशा देने के लिहाज से देखा जाए तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा सफल रही। दोनों देशों के नेताओं के बीच एक नई समझ विकसित हुई है। निवेश, कारोबार, रक्षा समझौते और आतंकवाद समेत दूसरे तमाम मुद्दों पर व्यापक सहमति कायम हुई है जिससे उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले समय में दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय रिश्ते और मजबूत होंगे। यह सहभागिता दुनिया के दूसरे देशों के लिए एक नया मॉडल बन सकती है। इसके अलावा अमेरिका ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में सुधार की मांग से सहमति जताई है और भारत को स्थायी सदस्यता देने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भी दोनों देशों ने साथ मिलकर काम करने की बात कही है। इसलिए अब जरूरत इस बात है कि उदार बाजार व्यवस्था को स्वीकार करते हुए हम अपने बाजारों को और अधिक खुला बनाएं ताकि व्यापार के क्षेत्र में सहयोग की और अधिक संभावनाएं विकसित हो सकें।
फिलहाल मोदी अपने मकसद में काफी हद तक कामसाब होते नजर आ रहे है। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो एबी, चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ भी उन्होंने बहुत कम समय में सहज व्यक्तिगत रिश्ता कायम कर लिया था। भूटान और नेपाल यात्र के दौरान भी उनकी लोकप्रियता शिखर पर रही। अमेरिका की यात्रा में भी मोदी का मुख्य लक्ष्य भारत को मैन्युफैक्चरिंग का केंद्र बनाने के लिए अमेरिकी सहयोग हासिल करना था। उन्होंने अमेरिका से सेवा क्षेत्र में कार्यरत लोगों को अधिक सुविधाएं देने की बात कही और खुद भी भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिकों को आजीवन वीजा सुविधा दिए जाने की घोषणा के साथ ही तत्काल वीजा और अन्य सुविधाएं देने की घोषणा की। आज यूरोप, अमेरिका समेत दूसरे अन्य देशों की अपेक्षा भारत में श्रम बहुत सस्ता है। इसके अलावा हमारे पास एक बड़ी संख्या में तकनीकी वर्ग, मध्य वर्ग और अंग्रेजी जानने-समझने और बोलने वाला युवा वर्ग मौजूद है।
ऐसे में दुनिया के अन्य देशों के लिए भारत में मैन्युफैक्चरिंग के काम को बढ़ावा दिया जा सकता है, जिससे बड़ी तादाद में रोजगार पैदा होगा और हमारा आर्थिक विकास तेज होगा। मोदी भारत के बढ़ते आयात से चिंतित हैं। इसलिए वह चाहते हैं कि भारत में आयात होने वाली तमाम चीजों का निर्माण हो और हम इनका पूरे विश्व में निर्यात करें, जैसा कि आजकल चीन करता है। इसी दृष्टि से मोदी ने अमेरिका के साथ रक्षा सहयोग को बढ़ाने तथा भारत में रक्षा उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए वहां की बहुराष्ट्रीय कंपनियों तथा अमेरिकी सरकार को प्रोत्साहित किया। इसके लिए उन्होंने अमेरिकी कंपनियों के सीइओ से मिलकर यह समझने की कोशिश की कि इस काम में कौन सी चीजें बाधक हैं। आने वाले समय में हमें टैक्स सुधार और टैक्स नियमों में सरलीकरण व एकरूपता देखने को मिल सकती है। इस तरह देखा जाए तो मोदी की अमेरिका यात्र तीन बातों पर केंद्रित थी। इसमें पहली बात संयुक्त राष्ट्र संघ में अंतरराष्ट्रीय समुदाय को संबोधित करना था, दूसरी बात अमेरिकी सरकार और ओबामा प्रशासन के अधिकारियों से मुलाकात करके उनकी बातों को समझना तथा अपने पक्ष को रखना था और तीसरी बात अमेरिका में रह रहे भारतीय मूल के लोगों से मिलना तथा उन्हें भारत में निवेश के लिए प्रेरित करना था।
सुरेश गांधी

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें