विशेष आलेख : बुंदेलखंड में तालाब क्रांति - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शुक्रवार, 3 अक्टूबर 2014

विशेष आलेख : बुंदेलखंड में तालाब क्रांति

सितम्बर माह की शुरुआत में हमारे देश के एक राज्य, जम्मू कश्मीर ने तबाही का वह मंजर देखा ज¨ पिछले 60 साल¨ं में किसी भी पीढ़ी ने नहीं देखा था। घर के घर बर्बाद ह¨ गए, ल¨ग¨ं की जीवन भर की जमा-पूंजी उनकी आंख¨ं के सामने मिट्टी में मिल गई। किसी ने अपनी आंख¨ं के आगे अपना बेटा ख¨या त¨ किसी ने अपना पति। सार्वजनकि सम्पŸिायां ताश के पŸा¨ं की तरह ढेर ह¨ गईं। इस सारी तबाही के पीछे एक वजह थी-पानी।  बाढ़ की वजह से जम्मू एवं कष्मीर में होने वाली मौतों का आंकड़ा तकरीबन 3 सौ के पास पहुंच गया है। इसके अलावा हज़ारों लोग घर से बेघर हुए और न जाने कितनों ने अपनी आजीविका के साधन खो दिए। जहां एक तरफ देश के एक हिस्से में यह पानी ल¨ग¨ं के लिए म©त का फरमान बन गया था वहीं उŸार प्रदेश के बुंदेलखण्ड क्षेत्र के निवासिय¨ं के लिए इसी पानी की कमी एक बहुत बड़ा संकट बन के खड़ा ह¨ गया है-उनके अस्तित्व का संकट। 

बुदेलखंड में पानी की कमी के लिए दबे पांव मौन क्रांति हो रही है और यह है तालाब क्रांति। इस इलाके में पानी की कमी और सूखा कोई नई बात नहीं है, लेकिन इस संकट को जलवायु परिवर्तन ने और बढ़ा दिया है। अब सूखा कोई एक साल की बात नहीं है, यह स्थाई हो गया है। इससे निजात पाने के लिए राज, समाज और मीडिया ने साझा अभियान छेड़ दिया है। पिछले दो साल में यहां 400 से ज्यादा तालाब बन चुके हैं जिसका फौरी परिणाम यह हुआ है कि लोगों के सूखे खेत हरे भरे हो गए हैं। 
             
हाल ही मुझे उत्तर प्रदेष के महोबा में किसानों से मिलने और उनके तालाब देखने का मौका मिला। यहां कजली मेला में किसानों के सम्मान में भव्य कार्यक्रम था। 13 अगस्त को सैकड़ों की तादाद में किसान यहां एकत्रित हुए थे। ‘‘अपना तालाब अभियान किसान महोत्सव’’ का आयोजन महोबा संरक्षण एवं विकास समिति, नगर पालिका परिषद और ‘‘अपना तालाब अभियान’’ ने किया था। इस महोत्सव में आए कई किसानों ने न केवल अपने खेतों में तालाब का निर्माण किया है बल्कि उन्होंने महोत्सव में आए दूसरे किसानों को तालाब के फायदे बताते हुए उन्हें अपने खेतों में तालाब बनाने के लिए प्रेरित किया। कजली मेला में किसानों को जल प्रहरी सम्मान से नवाजा गया। दूसरे दिन मैं बरबई, काकुन और चरखारी गांवों में तालाब देखने और किसानों से मिलने गया। इस इलाके में हाल के वर्षों में पानी की इतनी कमी हो गई थी कि सरकार ने महोबा जिले के सभी विकासखंडों को डार्क जोन घोषित कर दिया था। डार्क जोन का मतलब है कि जितना पानी जमीन में जा रहा है उससे कई गुना निकाला जा रहा है यानी धरती रेगिस्तान बन रही है और पानी पाताल में चला गया है। लगातार सूखे और अकाल ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया। यह संकट सिर्फ खेतों तक सीमित नहीं रहा बल्कि इसकी वजह से लोगों को पीने और घर की ज़रूरतों के लिए पानी मिलना बंद हो गया। 

सूखे की वजह से लोग काम की तलाष में षहरों की ओर भागने लगे। गांव के गांव खाली होने लगे। गांवों में सिर्फ बुजुर्ग और कमजोर व्यक्ति ही बच गए। नए युवाओं की षहरों की ओर भगदड़ मच गई। वह पूरे साल खाने कमाने के लिए बाहर रहने लगे। देष के अन्य प्रांतों की भांति यहां भी किसान आत्महत्याओं की खबरें आने लगीं। मवेषी चारे और पानी के अभाव में दम तोड़ने लगे। अन्ना प्रथा यानी लोगों ने अपने मवेषियों को खुला छोड़ दिया क्योंकि चारे व पानी की व्यवस्था वह नहीं कर सकते थे। सैकड़ों गायों ने अपना बसेरा सड़कों पर बना लिया। इनमें कई सड़क दुर्घटना में मारी जाती हैं और कई चारे और पानी के अभाव में कमजोर होकर मर रही हैं। किसानों के लिए यह परेषानी का सबब बनी हुई हैं क्योंकि उनकी फसलों को मवेषियों का झुंड चट कर जाता है।  
                
सवाल उठता है कि आखिर पानी कहां गया? पानी के मामले में हमारा देष अमीर था। जंगल लगातार कटते जा रहे हैं। बुंदेलखंड में अच्छा जंगल हुआ करता था। जंगल पानी को स्पंज की तरह सोखकर रखते थे। मगर अब जंगल नहीं रहे तो पानी भी नहीं रहा। एक बड़ा कारण बारिष का कम होना भी है। वर्षा के औसत दिन कम हो गए हैं। रिमझिम बारिष कम हो गई जिससे अब धरती का पेट नहीं भरता। इस सब के विपरीत पानी का नलकूपों, मोटर पंपों और हैंडपंपों के जरिये अंधाधुंध इस्तेमाल हो रहा है। जलस्तर लगातार नीचे जा रहा है। साठ के दषक में हरित क्रांति से देष की सम्पन्नता का सपना देखा गया था। कुछ हद तक हमने सफलता पाई भी। लेकिन आज हरित क्रांति के कारण कई और समस्याएं सामने आ गई हैं। रासायनिक खादों के अत्यधिक इस्तेमाल से हमारे खेतों की मिट्टी जवाब देने लगी है। भू सतह का पानी जहरीला हो गया है। खाद्यान्न जहरीले होते जा रहे हैं। खेती की लागत बढ़ रही है, उपज लगातार घट रही है। लिहाजा अन्नदाता किसान कर्ज केे बोझ से दबकर अपनी जान देने को मजबूर हैं।  
           
तालाब सूख रहे हैं, नदियां दम तोड़ रही हैं। साथ ही पहाड़ों को खोदा जा रहा है। पहाड़ों को खोदकर गिट्टी बनाने के लिए बड़ीबड़ी मषीनों का उपयोग किया जा रहा है जिससे धूल की धुंध हमेषा छाई रहती है। इन सबका जनजीवन और पर्यावरण पर उलटा असर पड़ रहा है। बरबई के किसान बृजपाल बताते हैं कि विस्फोट करके पहाड़ों को तोड़ा जा रहा है। पहाड़ों की उंचाई 5 सौ फुट तक नीचे पहुंच गई है। वातावरण में गरमी बढ़ी है और धूल से लोग परेषान हैं। फसलें भी नहीं हो पा रही हैं। 
               
पानी के गहराते संकट को देखते हुए लोगों को फिर से तालाब याद आ रहे हैं। प्राचीन सभ्यताओं में पानी की कीमत समझी जाती थी। परंपरागत ढांचों, स्र¨त¨ं ें को समाज की सम्पत्ति माना जाता था। उस वक्त के लोग समाज के लिए उपयोगी चीज़ो की चिंता करते थे उसका रखरखाव रखते थे। देष में ऐसी कई पानीदार परंपराएं हैं। राजस्थान में पानी बचाने की समृद्ध परंपरा तो है ही। मध्यप्रदेष के पड़ोसी राज्य छत्तीसगढ़ में भी आज भी तालाब की संस्कृति इसकी मिसाल है। बुंदेलखंड में तालाब की समृद्ध संस्कृति रही है। चंदेल और बुंदेल राजाओं ने अपने समय में सैकड़ों तालाब बनवाए थेे। तालाबों की सौंदर्य छटा तो निराली थी ही, साथ में वह जीवनोपयोगी भी थे। इससे सैकड़ों परिवार की रोजी-रोटी भी जुड़ी थी। महोबा के चरखारी में ही करीब डेढ दर्जन तालाब हैं। इसकी एक अलग पहचान है। इनमें सिंघाडा, कमलगट्टा  और मछली पालन होता है। लेकिन यह 2007 में सूखने लगे तो लोगों को उनकी उपयोगिता समझ आई और यहीं से इनकी देखरेख और मरम्मत का सिलसिला षुरू हुआ। 
           
इस अभियान में महोबा के जिलाधिकारी और कृषि विभाग के अफसरों ने खुले दिल से सहयोग दिया। जिलाधिकारी ने यह तय किया कि जो किसान अपने खेत में तालाब बनाएंगे वह उसका खुद उद्घाटन करेंगे। सामाजिक कार्यकर्ता और इंडिया वाटर पोर्टल हिन्दी के कार्यकर्ताओं ने गांव गांव जाकर किसानों के साथ बातचीत की। धीरे-धीरे माहौल बदलने लगा और देखते ही देखते सैकड़ों किसानों ने अपने खेत में तालाब बनवा लिए। पिछले दो सालों में करीब 400 तालाब बन गए हैं और यह सिलसिला जारी है। 
          
अगर आपके पास कम पानी है या बिल्कुल पानी नहीं है तो आपको खेतों में ऐसे देसी बीज लगाने होंगे जिनमें प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आपको जिंदा रखने की क्षमता हो। तालाब जैसे और दूसरे पानी के परंपरागत स्त्रोतों को दोबारा खड़ा करना होगा। हमें टिकाऊ और पर्यावरण के संरक्षण वाली खेती की ओर लौटना होगा तभी हम सूखा और बदलते जलवायु परिवर्तन का मुकाबला कर सकेंगे। बहरहाल, बुंदेलखंड में तालाब संस्कृति का फिर से पुनजीर्वित होना, सराहनीय होने के साथ अनुकरणीय भी है। 







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बाबा मायाराम
(चरखा फीचर्स)

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