विशेष आलेख : सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति के चैंपियन का रुख मुलायम क्यों - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 10 दिसंबर 2014

विशेष आलेख : सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति के चैंपियन का रुख मुलायम क्यों

नरेंद्र मोदी और भाजपा का विरोध सपा के लिए केवल जवानी जमाखर्च तक सीमित रह गया है। यह बात सोमवार को राज्य सभा में साध्वी निरंजन ज्योति के मुद्दे पर उसके रुख से और ज्यादा जाहिर हो गई। कांग्रेस चाहती थी कि अभी गतिरोध कुछ और चले। हालांकि कांग्रेस ने भी निरंजन ज्योति को मंत्रिमंडल से हटाने की मांग छोड़ दी थी पर कांग्रेस इस बात पर जोर दे रही थी कि उनके बयान के लिए सदन उनके विरुद्ध निंदा प्रस्ताव पास करे। समाजवादी पार्टी को अचानक संसद की उच्च परंपराएं याद आ गईं जिसकी वजह से उसने कांग्रेस के रुख से किनारा कर लिया। कांग्रेस ने देखा कि सपा के पैंतरे से उसकी भद पिट सकती है तो कांग्रेस ने भी राज्य सभा के उप सभापति के बयान पर संतोष जाहिर कर मामले का पटाक्षेप करने में ही अपनी इज्जत समझी।

समाजवादी पार्टी के नेताओं का जो इतिहास रहा है उसे देखते हुए संसदीय मर्यादा की उसके द्वारा बात करना कुछ हजम नहीं होता। मुलायम सिंह के समय उत्तर प्रदेश विधान सभा में संसदीय मर्यादा को तोडऩे का रिकार्ड कायम हुआ। उनके सहयोगियों ने सदन में बाहुबल का ऐसा जौहर दिखाया कि तत्कालीन विधान सभा अध्यक्ष केसरीनाथ त्रिपाठी तक लहूलुहान हो गए। समाजवादी पार्टी के एक विधान सभा अध्यक्ष धनीराम वर्मा का स्मरण हो उठता है जिन्होंने कहा था कि वह अध्यक्ष बाद में हैं समाजवादी पार्टी के सदस्य पहले इसलिए पार्टी के हित उनके लिए सर्वोपरि हैं। अध्यक्ष की पीठ पर आसीन होने के बाद माना जाता है कि वह नेता अपने को दलीय संकीर्णता से ऊपर करके नियमों के तहत सदन के संचालन की जिम्मेदारी निभाता है लेकिन मुलायम सिंह ने जानबूझकर ऐसा अध्यक्ष बनवाया था जिसे अपनी पीठ की मर्यादा का कोई भान नहीं था। मुलायम सिंह की इसके लिए उस समय बहुत आलोचना भी हुई लेकिन वे विचलित नहीं हुए। लोक सभा में भी कई प्रसंग ऐसे हैं जो समाजवादी पार्टी के उद्दत रवैए को जाहिर करते हैं। इस कारण अगर मोदी सरकार पर तीखा हमला करने से बचने के लिए समाजवादी पार्टी संसदीय मर्यादा की आड़ लेती है तो उसकी नीयत पर संशय हो उठता है भले ही उसका ऐसा करना सैद्धांतिक रूप से उचित हो। इसी कारण मुलायम सिंह जनता दल परिवार की एकजुटता का जो प्रयास कर रहे हैं उसके निशाने पर सांप्रदायिकता या मोदी और भाजपा है। ऐसा मानना प्रवंचना होगी।

दरअसल समाजवादी पार्टी ने कई महीने पहले फिलहाल केेंद्र से अच्छे रिश्ते बनाए रखकर उत्तर प्रदेश में सहूलियत के साथ अपनी सरकार चलाने का मंसूबा बांध लिया था। राज्यपाल ने संघ के निर्देश पर अखिलेश सरकार के खिलाफ उसे उकसाने के लिए कई कठोर बयान दिए जिसका आजम खां सहित कुछ मंत्रियों ने तुर्की ब तुर्की जवाब भी देने की कोशिश की लेकिन जब उन्हें यह समझ में आ गया कि मुलायम सिंह इस मामले में सब्र बनाए रखने के पक्षधर हैं तो वे शांत हो गए। अखिलेश ने राज्यपाल के बारे में पूछे गए हर सवाल पर अपने को बहुत ही कूल बनाए रखा। इसके अलावा जब तक राज्य में उप चुनाव नहीं हुए तब तक अखिलेश ने उनसे मिलने का प्रयास करने के बावजूद केेंद्रीय बिजली राज्य मंत्री पीयूष गोयल को समय नहीं दिया। साथ ही राज्य के विद्युत संकट का ठीकरा केेंद्र पर फोड़ते रहे लेकिन अब वे खुद दिल्ली जाकर पीयूष गोयल के यहां हाजिरी बजा चुके हैं। योजना आयोग को खत्म करने के मुद्दे पर भी न केवल उन्होंने ममता बनर्जी का अनुकरण करने से परहेज किया बल्कि बहुत हद तक उन्होंने अन्य विपक्षी मुख्यमंत्रियों से भिन्न मोदी के ही रुख का समर्थन किया। मुलायम सिंह शुरुआती दौर में जिस तरह से भाजपा का उग्र विरोध करते रहे हैं उसे देखते हुए अनुमान यह लगाया जा रहा था कि सांप्रदायिकता विरोधी राजनीति के चैंपियन की अपनी छवि बरकरार रखने के लिए वे अपने बेटे को ममता बनर्जी की तरह ही प्रधानमंत्री के सम्मेलन में न जाकर किसी मंत्री को भेज देने के लिए कह देंगे लेकिन यह मधुर संबंध बनाए रखने की ही नीति का तकाजा था कि उन्होंने अखिलेश से ऐसा कुछ नहीं कहा।

स्पष्ट है कि मुलायम सिंह जिस फ्रंट को बनाने की कसरत कर रहे हैं उसके निशाने पर कोई और ही है। वे उत्तर प्रदेश में निर्विघ्न राजनीति करने के लिए मायावती के अस्तित्व का सफाया चाहते हैं। नए फ्रंट के बहाने मायावती को आप्रासंगिक बनाने की अपनी योजना में वे काफी हद तक कारगर हो रहे हैं। उप चुनाव में पार्टी के उम्मीदवार खड़े न करके मायावती ने जो गलती की उससे समाजवादी पार्टी का हित काफी हद तक सधा है। हालांकि लोक सभा चुनाव के परिणाम आने के तत्काल बाद मुलायम सिंह वाकई में बदहवासी में थे और उन्होंने लालू यादव के मायावती को भाजपा विरोधी गठजोड़ में शामिल कर भाजपा के सशक्त प्रतिकार के सुझाव पर सकारात्मक रुख दिखाया था। उस समय तो वे अपने बेटे को मुख्यमंत्री या पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष में से किसी एक पद से हटाकर डैमेज कंट्रोल करने की फिक्र में भी थे लेकिन अब परिस्थितियां पूरी तरह बदल गई हैं। अवसरवादिता की राजनीति में मुलायम सिंह का कोई सानी नहीं है। अगर इसे तारीफ में कहा जाए तो मुलायम सिंह से ज्यादा दूरदर्शी राजनीतिज्ञ उत्तर प्रदेश में तो छोडि़ए देश में भी बहुत कम हैं इसलिए उनके नए फ्रंट बनाने के असली मंतव्य को इन्हीं संदर्भों में परखे जाने की जरूरत है।






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के पी सिंह 
ओरई

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