विशेष आलेख : बाल विवाह की बेडि़यों में जकड़ता बचपन - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 24 दिसंबर 2014

विशेष आलेख : बाल विवाह की बेडि़यों में जकड़ता बचपन

child marriage
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘‘मेक इन इंडिया’’ का आह्वान एक तरफ जहाँ देश के विकास में सबसे बडा टर्निंग पॉइंट साबित होगा वहीं दूसरी ओर यह नौजवानों के लिए रोज़गार का अवसर भी प्रदान करेगा। विज़न 2020 को प्राप्त करने में ‘‘मेक इन इंडिया’’ मील का पत्थर साबित होगा। युवाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए केंद्र से लेकर राज्य सरकार तक  योजनाये तैयार करती हैं वहीं दूसरी ओर बाल विवाह जैसी कुप्रथा नौजवानों की आत्मनिर्भरता में सबसे बड़ी रुकावट साबित हो रही है। इसका सबसे अधिक दुष्परिणाम लड़कियों को भुगतना पड़ रहा है। जिनके पैरों में कम उम्र में शादी की बेडि़यां डाल दी जाती हैं। परिणामस्वरूप इसका खामियाज़ा उन्हें न केवल मानसिक बल्कि शारीरिक रूप से भी भुगतना पड़ता है। बाल विवाह हमारे समाज के लिए एक कोढ़ है। यह कुप्रथा सदियों से चली आ रही है। जिसे रोकने में सरकारी व गैर सरकारी प्रयास विफल हो रहे हैं। बाल विवाह निरोधक कानून संविधान के पन्नों में है लेकिन अषिक्षित समाज बाल विवाह के दुश्परिणाम से अनभिज्ञ है। भारत के अधिकांष गांवों के कम पढ़े लिखे समुदाय के लोगों में बाल विवाह जैसी कुरीतियां कम होने के बजाय बढ़ रही हैं। 
          
आइसीआरडब्ल्यू की रिपोर्ट की मानें तो पूरी दुनिया में बाल विवाह के मामले में भारत 13वें स्थान पर है। रिपोर्ट के अनुसार हिमाचल प्रदेष में सबसे कम 9.1 प्रतिषत बाल विवाह होता है। वहीं, बिहार में 68.2 प्रतिषत बाल विवाह के मामले दर्ज हुए हैं। 18 साल से कम उम्र की लड़की का विवाह करना कानूनन अपराध है। लेकिन कानून का डर किसे है? ज्यादातर लड़कियों की षादी 13-14 उम्र की अवस्था पूरी होने से पहले ही कर दी जाती है। 2007 में यूनिसेफ के द्वारा जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि हालांकि पिछले 20 सालों में देष में विवाह की औसत उम्र धीरे-धीरे बढ़ रही है। इसके बावजूद औसतन 46 फीसदी महिलाओं की षादी 18 साल होने से पहले ही कर दी जाती है, जबकि ग्रामीण इलाकों में यह प्रतिषत 55 है। रिपोर्ट के अनुसार बाल विवाह की सबसे बुरी स्थिती राजस्थान है जहाँ 16.6 वर्ष की आयु में शादी कर दी जाती है। जबकि देश की राजधानी दिल्ली में विवाह की औसत उम्र 19.2 साल है वहीं जम्मू एवं कष्मीर में 20.1 साल है। रिपोर्ट में इस बात का दावा किया गया है कि पिछले दो दशक से बाल विवाह की संख्या में हर साल एक फीसदी की कमी अवश्य आई है और रफ़्तार का यही सिलसिला रहा तो इसे पूरी तरह से ख्त्म होने में अभी 50 साल लगेंगे। एक अन्य सर्वे में यह पाया गया है कि भारत में 22 प्रतिशत किशोरियां विवाह योग्य उम्र होने के पूर्व ही माँ बन जाती हैं। जिससे स्वस्थ समाज की संरचना में अवरोध पैदा होता है। सर्वे में एक चैकाने वाली बात यह भी सामने आई है कि देश में प्रति नवजातों में से 4,500 बच्चों को जन्म देने वाली माओं की औसत आयु 15 से 19 वर्ष की होती है। कम उम्र में ही शादी हो जाने के कारण लड़के-लड़कियों का भविश्य बर्बाद हो रहा है। जम्मू-कष्मीर का सरहदी जिला पुंछ भी बाल विवाह जैसी सामाजिक बुराई से अछूता नहीं है। जहाँ माता-पिता लड़कियों की षादी कम उम्र में ही कर रहे हैं जिसकी वजह से उन्हें बीच में ही स्कूल छोड़ने पर मजबूर होना पड़ रहा है। सुरनकोट तहसील में बाल-विवाह की स्थिति का जायजा लेने के लिए मैंने गोंथल के हायर सेकेंडरी स्कूल का दौरा किया। जहाँ ज्यादातर लड़कियों ने यही बताया कि उनकी कई सहपाठियों की षादी हो चुकी है और अब वह शिक्षा से दूर ससुराल का कामकाज संभालने को मजबूर हैं। इस बारे में जब मैंने स्कूल की अध्यापिका षाहीन बी से बात की तो उन्होंने बताया कि-‘‘इस स्कूल में पढ़ने वाली एक छात्रा नाज़मीना कौसर की 16 साल की उम्र में ही षादी कर दी गयी थी और वह अब स्कूल के पास के ही एक घर में रहती है। इसका कारण उन्होंने यह बताया कि यहां के लोग काफी गरीब हैं, इसलिए मजबूरी में कम उम्र में ही अपनी बेटियों की षादी कर देते हैं।’’ मैं जब नाजिमा से मिली तो पता चला कि वह एक बच्चे की मां बन चुकी है। मैंने नाज़मीना से जब जल्दी शादी का कारण जानना चाहा तो इसके पीछे पारिवारिक मजबूरी सामने आई। उसने बताया कि सोतेली मां के कहने पर मेरे पिता ने मेरी और मेेरी बड़ी बहन की षादी बहुत कम उम्र में ही कर दी थी।’’ 

सवाल यह उठता है कि अगर लोग इसी प्रकार अपनी बेटियों की षादी इसी तरह कम उम्र में ही करते रहेंगे तो इस देष के भविश्य का क्या होगा? जब मां ही पढ़ी-लिखी नहीं होगी तो उसकी संतान के उज्जवल भविश्य की कामना कैसे की जा सकती है? कम उम्र में षादी हो जाने की वजह से पूरे परिवार का बोझ बच्ची के नाज़ुक कंधों पर आ जाता है जिससे उसका मानसिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ता है। कम उम्र होने की वजह से ससुराल में उसके उपर जिम्मेदारियों का पहाड़ आ जाता है। अगर उससे थोड़ी सी भी गलती हो जाए तो ससुराल वाले उसे नफरत की निगाहों से देखना षुरू कर देते हैं। समाज में आज भी एक धारणा यह बनी हुई है कि अगर घर में बेटी पैदा होगी तो उसको पढ़ाने लिखाने और उसकी षादी करने में बहुत ज्यादा खर्च आएगा। इसी धारणा के चलते देष के कुछ हिस्सों में बेटियों को नफरत की निगाह से देखा जाता है। बेटी षादी करके जब बाप के घर से विदा होती है तो वह अपना सबकुछ छोड़कर जाती है और उसे इस बात का भी पता नहीं होता कि जिस घर यानी ससुराल में वह जा रही है, वह घर उसके लिए कैसा होगा? हमारे देष के अनपढ़ समाज में एक धारणा बनी हुई कि बेटी पढ़ लिखकर क्या करेगी, उसे तो घर का काम संभालना है, पढ़ना लिखना तो लड़कों का काम है। माता पिता की इसी सोच के चलते हमारे देष में लड़कियां कम उम्र में ही षादी के बंधन में बांध दी जाती हैं। ऐसे में पढ़ने लिखने की उसके सपने टूट जाते हैं और उसकी जिंदबी सिर्फ अपने ससुराल, पति और सास-ससुर की सेवा तक ही सिमट कर रह जाती है। हालांकि षिक्षित समाज में बाल विवाह जैसी कुप्रथा धीरे.धीरे कम हो रही है। लेकिन देष में आज भी सैकड़ों गांव हैं, जहां अषिक्षा व गरीबी की वजह से यह जारी है। खासकर दलित, महादलित व कुछ पिछड़े व अषिक्षित वर्ग में इसका चलन ज्यादा है। जबकि कड़वी सच्चाई है कि कम उम्र में षादी के कारण कई तरह की समस्याएं उत्पन्न होती हैं। लड़की का षारीरिक व मानसिक विकास नहीं हो पाता है। वह सही निर्णय भी नहीं ले पाती हैं। कम उम्र में षादी के बाद जब वह मां बनती है तो ऐसी स्थिति में जच्चा-बच्चा दोनों की जान पर खतरा काफी बढ़ जाता है। प्रसव के बाद भी षिषुुु कुपोषण का षिकार हो जाता है। मां रक्त अल्पतता का षिकार हो जाती हैं। यूनिसेफ के रिपोर्ट की मानें तो कम उम्र में गर्भधारण करना बेहद खतरनाक होता है। प्रजनन स्वास्थ्य व स्वच्छता की कमी के कारण अधिकांष महिलाएं अंदरूनी बीमारियों की गिरफ्त में आ जाती हैं। जिस कारण मासिक धर्म में गड़बड़ी, ल्यूकोरिया, गर्भाष्य कैंसर, स्तन कैंसर के अलावा असमय बुढ़ापा दस्तक देने लगता है। वस्तुतः देश से बाल विवाह के पूरी तरह से खात्मे के लिए सामाजिक और राजनितिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है। यदि सभी स्तर पर ऐसी इच्छाशक्ति हो, लड़कियों के लिए यदि सामान रूप से अवसर प्रदान किया जाये और सतत जागरूकता कार्यक्रम पर ज़ोर दिया जाये तो ठोस प्रयासों की मदद से यह कुप्रथा चरणबद्ध तरीके से समाप्त किया जा सकता है।  








मोबिया कौसर
(चरखा फीचर्स)

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