चुनाव विशेष : चीजें बदलती हैं तो उसका सिस्टम भी बदल जाता है। - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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रविवार, 14 दिसंबर 2014

चुनाव विशेष : चीजें बदलती हैं तो उसका सिस्टम भी बदल जाता है।

  • 30-40 वर्ष पूर्व चुनाव का तरीका कुछ और ही हुआ करता था, 
  • वर्तमान समय का चुनावी तरीका काफी हाईटेक हो चुका है-कमलाकांत प्र0 सिन्हा

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विश्व का सर्वाधिक वृहत लोकतांत्रिक देश है भारत। इस देश की अपनी कार्यपालिका, व्यवस्थापिका व न्यायपालिका है। सबकी अपनी-अपनी जिम्मेवारी। सबके अपने-अपने महत्व भी हैं। सरकार के सारे अंग यों तो अलग-अलग हैं, किन्तु अंग सभी एक-दूसरे से जुड़े हुए। एक-दूसरे के दायित्वों की निगरानी व उनपर अंकुश का सिस्टम भी अलग-अलग है। चाहे चुनाव से संबंधित व्यवस्था की बात हो या फिर सरकार बनने से लेकर उसे चलाने तक की व्यवस्था की बात। संसद के दोनों सदनों-लोकसभा व राज्य सभा सहित राज्यों में विधानसभा व विधान परिषद् सदस्यों का निर्वाचन आम जनता के मतों के आधार पर ही तय होता है। एमपी, एमएलए का निर्वाचन अलग-अलग, किन्तु प्रक्रिया एक-दूसरे से मिलती-जुलती। जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधि ही संसद के दोनों सदनों सहित राज्य विधानसभा व विधान परिषद्ों में जाते हैं तथा मंत्रीपरिषद के गठन बाद एक स्थिर सरकार की कल्पना साकार होती है, और फिर सरकार एक निश्चित कार्यावधि तक अपने दायित्वों की पूर्ति करती है। वर्तमान चुनाव पद्धति काफी हाईटेक (आधुनिकता से पूरी तरह लवरेज) दिखलाई पड़ता है। जहाँ एक ओर आकाशवाणी, दूरदर्शन, न्यूज एजेन्सी, प्रिट मीडिया, सोशल साईट यथा-फेसबुक, ट्यूटर, वार्डसअप, मोबाईल एसएमएस व अन्य माध्यमों से विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा प्रचार-प्रसार का काम तेजी से अपनाया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर परंपरागत तरीकों से चुनाव प्रचार-प्रसार व जनसंपर्क का अस्तित्व जमींदोज होता जा रहा। मतदाताओं को अपने-अपने प़क्ष में रिझाने की बात हो या फिर मताधिकार की बात। इस साईवर युग में सबकुछ मिनट व सेकेण्ड में तब्दील होता जा रहा है। 

देश से समाज सिमटता जा रहा। समाज से परिवार और परिवार से बच्चे सिमटते जा रहे। बच्चों से सिमटता जा रहा उनका नैसर्गिक संस्कार, तौर-तरीका व शिष्टाचार। यूँ कहें-पूरा विश्व आधुनिकता की चकाचैंध में गुम होता चला जा रहा, ऐसे में परंपरागत व्यवस्थाओं का दम तोड़ना कोई अचरज की बात नहीं रह गई है। 70 के दशक में राजनीति अपने मूल्यों-सिद्धान्तों पर आधारित हुआ करती थी। विचारों-सिद्धान्तों से कोई समझौता नहीं किया जाता था। पलभर में मिट्टी से सोना हो जाने का कोई तरकीब नहीं था मौजूद। इस तरह की अन्य कोई व्यवस्था नहीं थी। वह समय कुछ और था, अब का समय कुछ और है। अविभाजित बिहार में स्व0 कर्पूरी ठाकुर के मुख्यमंत्रित्व काल में मंत्री रहे पूर्व विधायक कमलाकांत सिन्हा आगे बढ़ने की प्रक्रिया में वर्तमान व्यवस्था को जहाँ एक ओर काफी सशक्त मान रहें, वहीं दूसरी ओर अपनी मौलिकता को भूलता जा रहा मनुष्य को खबरदार भी करने से चूक नहीं रहे। उनका कहना है, वर्तमान समय में नेताओं के पास कुछ करने के लिये समय काफी कम रह गया जबकि अधिक से अधिक धन कमाने की चाहत उनकी बढ़ती चली जा रही। वह भी संक्षिप्त समय में। आम जनता की स्थिति भी कमोवेश वैसी ही रह गई है। अपने समय के स्मरण को ताजा करते हुए वे कहते हैं-70 के दशक में किसी खास स्थान पर किसी बड़े नेता के आगमन की खबर सुनकर ही लोग प्रसन्न हो जाया करते थे। महीनों पूर्व से उनके आगमन के दीदार में उन्हें बैचेन देखा जाता था । 

काफी गंभीरता से उनका भाषण सुनते व उसका विश्लेषण करते। उनकी अपनी प्रतिष्ठा होती, उनका अपना सम्मान होता। उनकी अपनी सोंच होती और भाषण का उनका मूल्यांकन होता। अब नेताओं को सुनने के लिये दूर-दराज से लोग नहीं आते। उनमें वैसा कोई आकर्षण नहीं रह गया। न विद्धता की कोई पुट रहती। वे ही आते उनके करीब भाषणस्थल तक लाने व वापस ले जाने की पूरी व्यवस्था की जो जिम्मेवारी उठाते। भीड़ जुटाने के लिये गाँव-देहात में विभिन्न पार्टियों के कार्यकर्ताओं द्वारा औरत-मर्द बच्चों को पैसे दिये जाते हैं। उनके लिये भोजन की व्यवस्था की जाती है। जिनके सोने-बैठने के इंतजाम किये जाते हैं। और तो और यह समय ऐसा है कि मात्र थोड़ी सी भीड़ को कैमरे में इस कदर कैद कर लिया जाता है और फिर उसे विभिन्न चैनलों के माध्यम से इसकदर दिखलाया जाता है कि प्रतीत होता है नेताजी के आगमन की खबर सुनकर लाखों लोग मैदान में अपना आशियाना बना लिये हों। पूर्व विधायक ने अपने समय के चुनाव की चर्चा करते हुए कहा 70 के दशक में मात्र 10 से 15 हजार रुपये के अंदर लोग विधानसभा का चुनाव लड़ लिया करते थे। अब एक विधानसभा में एक पार्टी की ओर से करोड़ों रुपये खर्च किये जाते हैं। उनका मकसद सिर्फ और सिर्फ विधानसभा की दहलीज तक पहुँचना होता है। बाद में वे जों चाहेगें वैसा करेगें। न तो सरकार के आला मंत्रियों का कोई डर रहता है और न ही आम-अवाम ही। पूर्व विधायक श्री सिन्हा का कहना है-उन्होनें अपने चुनाव प्रचार कार्यक्रम में काफी हद तक पदयात्रा व सायकिल की सवारी को ही प्रश्रय दिया था। 

एक जुगाड़ गाड़ी हुआ करता था जिसे प्रचार कार्य में लगाया जाता था किन्तु उक्त गाड़ी का कोई भरोसा नहीं हुआ करता था। कब वह सवारी का साथ छोड़ जाय। जनसंपर्क व दीवार लेखन के माध्यम से मतदाताओं को जागरुक किया जाता था। गाँव/पंचायतों के चैपालों पर वे लोगों की समस्याओं को सुना करते थे। माइकिंग की कोई खास व्यवस्था नहीं की जाती थी। अब एसएमएस के जरिये वोटिंग ज्ञान से लोगांे को रुबरु कराया जाता है। हाँ यह दिगर बात है कि पहले जिसतरह लोग बिना पाबंदी के अपने अभिव्यक्ति के अधिकार का गलत प्रयोग कर लिया करते थे उसमें भारी कमी आई। बड़े सलीके से लोग अब एक-दूसरे के विरुद्ध बयानबाजी करते हैं। यदा-कदा नेतागण अपनी सीमाओं को लांघते हुए भी देखे जा रहे। वर्तमान समय में बूथों के मैनेजमेंट का अलग विभाग होता है। गाँव-देहात के लोगों को आकर्षित करने के अलग कानून-कायदे होते हैं। प्रचार तंत्र पर अलग खर्च व निगरानी होती है। विरोधियों के विरुद्ध आग उगलने के लिये खास तौर पर कार्यकर्ताओं सहित नेताओं को प्रशिक्षित किया जाता है। करोड़ों रुपये चुनाव लड़ने में खर्च कर दिये जाते हैं। समय बदलता जा रहा है, लोगांे की मानसिकता में भी काफी कुछ बदलाव देखने को मिल रहा। बहकावे में लोग कम आ रहे। मतदाता वैसा ही कर रहे जो उनकी अंतरात्मा कह रही। अच्छे-बुरे का परिणाम वे समझ रहे। किसकी सरकार कितनी सुरक्षा आम जनता को देनेवाली है उसका सार समझ में आ रहा। यह सच ही कहा गया है कि चीजें बदलती हैं तो उसका सिस्टम भी बदल जाता है। 






अमरेन्द्र सुमन
दुमका 

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