शहीद-ए-आजम भगत सिंह और उनके साथियों का शहीदी दिवस आजादी के बाद इतना लंबा दौर और चार पीढिय़ां गुजर जाने के बावजूद पूरे जोशखरोश से मनाया जाता है। भले ही पंजाब में आतंकवाद के सिर न उठाने तक भगत सिंह व उनके साथियों को सरकारों ने हाशिए पर डालने की कोशिश की हो लेकिन जनता के बीच आजादी की लड़ाई के असल हीरो वही रहे हैं। सिर्फ तेईस साल की उम्र में उन्होंने देश के लिए मर मिटने के जिस जज्बे का परिचय दिया उसकी छाप देशभक्त जनता में कभी धुंधली नहीं हो सकती। यह दूसरी बात है कि भगत सिंह की बहादुरी और हंसते-हंसते फांसी पर चढ़ जाने की उनकी अदा को लेकर लोगों में जितनी रूमानी भावुकता व्याप्त रहती है उतनी मशक्कत उनकी विचारधारा को समझने के लिए नहीं होती जबकि भगत सिंह ने असेंबली में प्रतीकात्मक बम विस्फोट के बाद अफरा-तफरी में निकल भागने की बजाय स्वयं अपनी गिरफ्तारी का अवसर इसीलिए दिया था कि वे अदालती बहसों का उपयोग उन विचारों के प्रचार के लिए कर सकेें जिनसे इस देश में आजादी के साथ-साथ व्यवस्था परिवर्तन भी हो और अंग्रेजों के आने के पहले से ही दबीकुचली जिंदगी जी रहे देश के आम आवाम को कोऊ होय नृप हमें का हानि की भावना भुलाकर व्यवस्था में हस्तक्षेप के लिए तत्पर किया जा सके।
बहरहाल भगत सिंह के साहस, पराक्रम और बलिदान को श्रद्धापूर्वक नमन करना हम सब लोगों का एक अनिवार्य कर्तव्य है लेकिन भगत सिंह को तब तक सच्ची श्रद्धांजलि नहीं दी जा सकती जब तक कि उनके विचारों को गहराई तक समझने की और उस पर मंथन करने की उत्कंठा लोगों में जाग्रत न हो। व्यक्ति पूजा की हिमायती ताकतें प्रचारित करती हैं कि भगत सिंह किसी विचारधारा से बंधे नहीं थे लेकिन आज की पीढ़ी को यह बताया जाना चाहिए कि भगत सिंह घोषित रूप से कम्युनिस्ट थे और वे देश में वर्गविहीन समाज के निर्माण के लिए क्रांति का आह्वान करते हुए फांसी पर झूले थे। भगत सिंह लोगों की स्मृतियों में चिर युवा हैं और इस कारण युवा भारत के वे कालजयी आदर्श कहे जा सकते हैं। भगत सिंह के प्रति अपनी तमाम रोमांचक भावनाओं और समर्पण के बावजूद भारत में ग्लोबलाइजेशन युग का मध्यवर्गीय युवा कम्युनिस्ट दर्शन को उनके नाम पर भी पचा नहीं सकता। हालांकि कम्युनिस्ट आंदोलन के इतिहास में भी इस बीच न जाने कितना पानी बह चुका है इस कारण यह प्रश्न भी महत्वपूर्ण हो गया है कि हम क्यों न भगत सिंह की पूजा तक सीमित रहें क्योंकि उनके विचार आज भी प्रासंगिक हैं। इसमें पर्याप्त संदेह है। इस पर लंबी बहस की जरूरत है लेकिन हमारे देश में दुनिया के किसी भी अच्छे विचार को इस आधार पर सिरे से खारिज करने की जो मानसिकता युवा पीढ़ी में पनपाई जा रही है कि उसका प्रवर्तन करने वाला विदेशी था जिसकी वजह से इस धरती पर उसके दर्शन को ग्राह्यï किया ही नहीं जा सकता। युवा पीढ़ी में वस्तु परक दृष्टिकोण में यह हठवादिता बेहद घातक साबित हो रही है। इससे युवा मानस को उबारना समय की मांग है। परिस्थितियों के साथ-साथ पुरानी विचारधाराओं के नवीकरण का क्रम चलता रहता है। चीन में कम्युनिस्ट शासन के साथ व्यक्तिगत मिल्कियत को मान्यता इस वैचारिक गतिशीलता का एक उदाहरण है। भगत सिंह के समय आर्थिक परिवेश जैसा था उसमें उन्होंने व्यवस्था की जो रूपरेखा खींच रखी थी जरूरी नहीं कि आज वह ज्यों की त्यों लागू हो लेकिन मुनाफे के लिए लोगों का जीवन लेने की हद तक की लोलुपता पर आधारित शोषण सहन नहीं किया जा सकता।
आज कारपोरेट सेक्टर भी पानी, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं को गरीबों को रियायती दरों पर उपलब्ध कराने का वायदा करने वाली राजनीतिक ताकतों का समर्थन करने में नहीं हिचक रहा। भले ही वह इन राजनीतिक ताकतों के प्रति इसलिए आकर्षण रखता हो कि यह उसे सेफ्टी वाल्व के रूप में नजर आती हैं लेकिन समाजवादी पूंजीवाद का नारा आज पूरी दुनिया में जोर पकड़ रहा है। इस कारण भगत सिंह के विचार आज के संदर्भ में भी प्रासंगिक हैं। यह बात दावे के साथ कही जा सकती है। शेयर बाजार और ग्लोबलाइजेशन के युग में न्यूनतम शोषण पर आधारित और जाति धर्म जैसे पूर्वाग्रहों से रहित व्यवस्था कैसे कायम की जाए। इस पर चिंतन होना चाहिए। भगत सिंह का व्यक्तित्व याद दिलाता है कि सिर्फ अपने कैरियर को संभालने की सोचना युवा प्रवृत्ति के विरुद्ध है। युवा मानसिकता की असल तासीर व्यवस्था की जड़ता को हिलाने के लिए साहस दिखाने में है जिसे आज का युवा कहीं भूल सा गया है। भगत सिंह का बलिदान दिवस आता है तो लगता है कि यह अवसर है कि उसे उसकी तंद्रा से झकझोरा जाए ताकि एक बेहतर समाज का निर्माण करने में उसकी ऊर्जा का सदुपयोग हो लेकिन अंत में फिर पहले की बात दोहरानी होगी कि भगत सिंह की पूजा पर्याप्त नहीं है उनके विचारों को समझने की जरूरत उससे ज्यादा है।
के पी सिंह
ओरई
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