- भारत रत्न बिस्मिल्ला खां की जन्मशतीवर्ष पर
भारतीय समाज में शादी एवं अन्य शुभ समारोह में घर की ड्योढ़ी तक सीमित शहनाई को अंतरराष्ट्रीय फलक तक पहुंचाने में उस्ताद बिस्मिल्ला खां की योगदान को भुलाया नहीं जा सकता। बचपन से ही शहनाई प्रेम को इबादत बना लिया तो संगीत के लिए देवी सरस्वती के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने, मंदिरों और गंगा के घाट पर शहनाई बजाने में कभी उन्हें परहेज नहीं रहा। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि आज देश विदेश में शहनाई की लोकप्रियता का जो मुकाम है वह सिर्फ और सिर्फ उन्हीं के प्रयासों की देन है। उन्हें भारत रत्न के अलावा पद्मश्री और पद्मभूषण और पद्म विभूषण भी मिल चुका था। उनका मानना था कि यदि दुनिया का अंत हो भी गया तो भी संगीत जिंदा रहेगा। ठीक उसी तरह भारतीय संगीत के जीवित रहने तक शहनाई और उस्ताद बिस्मिल्ला खान का नाम लोग लेते रहेंगे। चाहे वह राजीव गांधी हो या फिर बाला साहब ठाकरे या फिर सोनिया गांधी सबके सब उनके मुरीद रहे। इतना ही नहीं उन्होंने आजादी की पूर्व संध्या पर भी लाल किले की प्राचीर से शहनाई की धुन पेशकर शांति का संदेश दिया था। तब से लगभग हर साल 15 अगस्त को प्रधानमंत्री के भाषण के बाद बिस्मिल्ला का शहनाई वादन एक प्रथा बन गयी, लेकिन अफसोस है कि सूबे की अखिलेश सरकार वादों व दावों के बावजूद श्रद्धासुमन के दो फूल अर्पित करना तो दूर उनके कब्र का मकबरा तक नहीं बना सकी
जी हां, संगीत ही वह विधा है, जिसमें जात-पात, ऊंच-नीच कुछ भी नहीं है। संगीत किसी मजहब का बुरा नहीं चाहता। तभी तो चाहे वह नसीम मिया के घर पड़ी मइयत हो या कपिल के दरवाजे पर शव या फिर बनवारी या कलाम के घर से विदा हो रही बेटी की डोली, शहनाई की गूंज के बिना सबकुछ सूना-सूना सा लगता है। और जब बात शहनाई की तो जेहन में बरबस ही भारत रत्न समेत कईयों पुरस्कारों से विभूषित हो चुके उस्ताद बिस्मिल्लाह खां का नाम कौंध उठता है। वैसे भी शहनाई को वैश्विक संगीत के क्षितिज पर स्थापित करने में उस्ताद के योगदान को तो कत्तई भूलाया नहीं जा सकता। चाहे वह भारत की आजादी की जश्न का वक्त रहा हो या लालकिले की प्राचीर से झंडा फहराने का, खान की शहनाई की जादुई धुनें जरुर गूंजी। बड़ी बात तो यह है कि तीनों लोकों में न्यारी धर्म की नगरी काशी के घाटों पर मां गंगा की लहरों के साथ-साथ बाबा विश्वनाथ के दरबार में चारों पहर होने वाली आरती में बज रहे घंट-घड़ी-घडि़याल व ढोल-नगाड़े की थाप से तान मिलाकर खां ने जो धून प्रस्तुत की, उसे चाहकर भी काशीवासी नहीं भूल सकते। उनको गंगा और काशी विश्वनाथ से खासा लगाव था, इसीलिए वह काशी छोड़कर कभी नहीं गए। खान की एक फूँक पर शहनाई से ऐसे सुर निकलते थे...जो हर सोये हुए दिलों को जगा देते थे...और रात की तारीकी में दिन के उजाला का एहसास कराती थी...।
कहा जा सकता है शहनाई उनके लिए अल्लाह की इबादत का माध्यम थी तो सरस्वती वंदना का भी। खां की इसी सोच ने उन्हें औरों से अलग खड़ा किया। चाहे लाल किले की दीवार हो या क्वीन एलिजाबेथ हॉल या फिर अल्बर्ट हॉल, शहनाई बजी तो लोग झूमते ही रहे। इस फन ने उन्हें दौलत और शोहरत दोनों ही बख्शी, लेकिन हमेशा शान-ओ-शौकत से दूर रहे। पूरे साल दुनिया के किसी भी कोने में वह रहे हो, मोहर्रम पर बनारस आकर खास चांदी की शहनाई की धुन से करबला के शहीदों को नजराना-ए-अकीदत पेश करना नहीं भूलते थे। आखिरी दिनों तक दरगाहे फातमान में हजरत अली के रौजे के सामने बैठ करबला के एक-एक वाकयात को मातमी धुन से खींच देते। अपने संगीत के माध्यम से उन्होंने शांति और प्रेम का संदेश दिया।’ लेकिन शहनाई के शहंशाह उस्ताद बिस्मिल्लाह खान की सांस क्या रुकी... मानो शहनाई भी खामोश हो चली है। खां अब भी कच्ची कब्र में दफन हैं। उनकी हर कामयाबी का गवाह उनका एकमात्र हड़हा सराय (दालमंडी) का मकान आज खतरे में है। इसकी वजह उनके अपने परिवारीजनों में खींचतान है, जो वक्त बे वक्त नुमाया होती रहती है। कभी उनके बेटे घर को गिराकर दुकान बनाने की शिगूफा छोड़ देते हैं, तो कभी उनसे जुड़ी निशानियों के चोरी होने का मुद्दा सामने आ जाता है। उनके इंतकाल के वक्त चाहे वह आजम खां रहे हो या मुलायम सिंह यादव या अन्य बड़ी राजनीतिक हस्तियां, सभी ने ऐलान किया था कि उस्ताद का लाल पत्थरों से भव्य मकबरा बनेगा। मुलायम सिंह ने ही लखनऊ में संगीत अकादमी की स्थापना का भरोसा दिया था। केंद्रीय मंत्री मोहसिना किदवई ने दिल्ली में संगीत अकादमी की स्थापना की बात कही थी। तत्कालीन रेलमंत्री नीतीश कुमार ने रेलवे स्टेशनों की सुबह उस्ताद की शहनाई की धुन से शुरू करने का एलान किया था। उनके आवास से लेकर चाहे वह शहनाई या अन्य उनसे जुड़ी यादें या उनके धरोहर संभाल कर रखा जायेगा, लेकिन सब हवा-हवाई ही निकला। जहां-तहां सब बिखरा पड़ा है। न मकबरा बना और न ही उनसे जुड़ी धरोहरों को सहेजने की किसी ने जरुरत समझी। अब तो इतने महान कलाकार की कब्र पर फूल-माला चढ़ाने के लिए लोगों के पास भी वक्त नहीं मिलता। उनकी याद में शासनस्तर पर जो ढेर सारी घोषणाएं की गई थीं कुछ को छोड़कर सब वादा ही रह गया। ऐसे में उनकी निशानी को मिटाने की जगह स्मारक के रूप में विकसित की जानी चाहिए। दुनिया के कई देशों में उनके नाम पर सड़क हैं, लेकिन बनारस में ऐसा कुछ भी नहीं है। एक बार 21 मार्च से शुरू हो रहे उस्ताद के जन्मशती वर्ष पर बनारस फिर उम्मीदों के साथ खड़ा है। उस्ताद की बौद्धिक सम्पदा को संजोने की पहल के लिए समाज के अग्रणी लोगों को आगे आना ही होगा।
हिन्दुस्तान में शहनाई वादक के नाम से प्रख्यात खान का जन्म जन्म 21 मार्च, 1916 को बिहार के डुमराँव की भिरंग राउत की गली नामक मोहल्ले में हुआ था। तब किसे मालूम था कि मोलाजिम पैगम्बर बख्श मियां के घर जन्मा कमरुदीन हीं आगे चलकर बिस्मिल्लाह खां बन जाएगा। वे अपने माता-पिता की दूसरी सन्तान थे। चूँकि उनके बड़े भाई का नाम शमशुद्दीन था अतः उनके दादा रसूल बख्श ने कहा-बिस्मिल्लाह! जिसका मतलब था अच्छी शुरुआत! या श्रीगणेश अतः घर वालों ने यही नाम रख दिया। और आगे चलकर वे बिस्मिल्ला खां के नाम से मशहूर हुए। खान के घर के अन्य सदस्य लोग भी दरवारी राग बजाने में माहिर थे, जो बिहार की भोजपुर रियासत में अपने संगीत का हुनर दिखाने के लिये अक्सर जाया करते थे। उनके पिता बिहार की डुमराँव रियासत के महाराजा केशव प्रसाद सिंह के दरवार में शहनाई बजाया करते थे। शहनाई से लगाव देखकर आर्थिक तंगी से बेहाल पैगम्बर बख्श ने 6 साल की उम्र में उनको शहनाई के गुण सीखने के लिए चाचा अली बक्श के यहां बनारस भेज दिया। यहीं रहकर उन्होंने शहनाई बजाना सीखा। उनके उस्ताद चाचा विलायती विश्वनाथ मन्दिर में स्थायी रूप से शहनाई-वादन का काम करते थे। यद्यपि बिस्मिल्ला खां शिया मुसलमान थे फिर भी वे अन्य हिन्दुस्तानी संगीतकारों की भांति धार्मिक रीति रिवाजों के प्रबल पक्षधर थे और हिन्दू देवी-देवता में कोई फर्क नहीं समझते थे। देश का सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारतरत्न’ मिलने के बाद भी उस्ताद का जीवन फक्कड़ी बनारसी की तरह रहा। कहा जा सकता है संगीत साधना और शहनाई को घर की ढ्योढी से निकालकर लालकिले की प्राचीर और दुनिया के शीर्ष मंचों तक प्रतिष्ठित करने की कामयाबी बनारस में रहकर ही पाई। वे ज्ञान की देवी सरस्वती के सच्चे आराधक थे। वे काशी के बाबा विश्वनाथ मन्दिर में जाकर तो शहनाई बजाते ही थे, गंगा किनारे बैठकर घण्टों रियाज भी किया करते थे। प्राचीन बालाजी मंदिर भी खां साहब की रियाज का गवाह है। ‘खान कहते थे कि उनकी शहनाई बनारस का हिस्सा है। वह जिंदगी भर मंगलागौरी और पक्का महल में ही रियाज करते हुए जवान हुए हैं। उनकी अपनी मान्यता थी कि उनके ऐसा करने से गंगा मइया प्रसन्न होती हैं। सबसे पहले 1930 में इलाहाबाद में उन्हें कार्यक्रम पेश करने का काफी मशक्कत के बाद मौका मिला। इसके बाद तो जैसे पीछे मुड़कर देखने का मौका हीं नहीं मिला। और देखते ही देखते उन्होंने रियाज के बूते पर साधारण शहनाई पर शास्त्रीय धुन बजाकर पूरे विश्व को अपना मुरीद बना लिया।
खां साहब ने आखिरी सांस तक काशी को नहीं छोड़ा। अमेरिकी रईस का भी खां साहब ने यह कहकर प्रस्ताव ठुकरा दिया कि जब हमारी गंगा यहां नहीं ला सकते तो हम भी यहां नहीं रह सकते। काशी की तंग गलियोंही उन्हें भांति है। यह उस्ताद के देशप्रेम की बहुत बड़ी मिसाल है। उनकी शहनाई लोगों के दिलों में हमेशा जिंदा रहेगी। कहा जा सकता है कि उन्होंने शहनाई को जिस बुलंदी पर पहुंचाया उसकी मिसाल मुश्किल है। शहनाई का मतलब ही बिस्मिल्लाह खां अगर कहा जाये तो गलत नहीं होगा। इसकी बड़ी वजह रही कि चाहे वह शादी विवाह हो या मातम हर जगह बिस्मिल्लाह खां ने शहनाई बजाकर उसकी धून गली-कूंचों की बुलंदी तक पहुंचाई। इस साज की पहचान उन्होंने सात समन्दर पार विदेशों में भी करायी। जब बिस्मिल्लाह खां थे तो भी लोग शहनाई के लिए उन्हें ही जानते थे आज वो हमारे बीच नहीं हैं मगर शहनाई में कोइ दूसरा नाम दूर-दूर तक नजर नहीं आता। संगीत के कद्रदान शहनाई का नाम आते ही फिर बिस्मिल्लाह खां को ही याद करते दिखाई देते हैं। खुद बिस्मिल्लाह खां के पांच बेटों में दो ही ने शहनाई को अपनाया। बनारस के सरायहड़ा स्थित उनके घराने में शहनाई बजाने वाले केवल चार बेटों में उस्ताद जामिन हुसैन ही हैं। जामिन हुसैन खुद इस बात को स्वीकार करते हैं कि अब्बा जब जिन्दा थे तो भी लोग शहनाई के लिए उन्हें ही जानते थे। बीमारी के कारण तो अब वह भी शहनाई कम ही बजा पाते हैं। पांचवंे बेटे उस्ताद नाजिम हुसैन तबला वादक हैं। आने वाली पीढ़ी में उस्ताद के दो पोते हैं जो शहनाई बजा रहे हैं। आज भी हड़हासराय-दालमंडी स्थित खान साहब के कमरों में रियाज की पिपहरी, जूता, चप्पल, उनके कागजात को सहेज कर रखा गया है। यह भी अजीब इत्तफाक है कि खां साहब की पैदाइश की तारीख भी 21 है और उनके इंतकाल की भी। 21 मार्च को उनका जन्म हुआ था और 21 अगस्त को उनका देहांत। जैसी प्रतिभा के धनी बिस्मिल्लाह थे, उनसे जुड़ीं किंवदंतियां भी वैसी ही हैं। वह हमेशा कहते थे कि अपने को मासूम बनाओ, मालिक दिखाई पड़ेगा। जब कभी बात छिड़ी बताया ‘11 साल की उम्र। अपनी यादों से जुड़ी बातों में उन्होंने जिक्र किया है कि एक बार वह घाट के किनारे धून में रमे थे, तभी जब आंखें खोली तो देखा, सामने काफी लंबे और गोरे से बाबा खड़े है। लंबी दाढी, चैड़ी आँखे, हाथ में डंडा, कमर में बस एक लंगोटी। उन्हें देखकर वह काफी डर गए, तभी बाबा हंसते हुए बोले, ‘वाह बेटा वाह, बजा, बजा, बजा जा मजा करेगा।’ एक दिन तेरा नाम सात समंदर पार तक रोशन होगा। वह कहते थे, संगीत अपने आप में एक मजहब है और इस मजहब को मानने वाले कभी बेसुरी शहनाई न सुनते और न बजाते। दुनिया बदरंग इसलिए कि सबकी डफली और राग अलग-अलग’। जिंदगी भर तरसता रहा कि इंशा अल्लाह एक तो सही सुर लग जाए! गर लगा है तो उसकी मेहरबानी। बीएचयू, शांति निकेतन समेत कई विश्वविद्यालयों ने डी.लिट् उपाधि से नवाजा। 1956 में संगीत नाटक अकादमी अवार्ड, 1962 में पद्मश्री, 1968 में पद्मभूषण, 1980 में पद्मविभूषण, 2001 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया।
खान तीसरे भारतीय संगीतकार थे जिन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया है। उनकी सख्शियत का तकाजा था कि देश भर के राजनेता से लेकर अभिनेता तक उनके मुरीद थे। स्व. राजीव गांधी ने उन्हें खुद निमंत्रण भेजकर दिल्ली बुलवाया था और घंटों सोनिया गांधी के साथ बैठकर शहनाई की धुनों को सुना था। महाराष्ट्र में स्व. बाला साहब ठाकरे से जब उनकी मुलाकात हुई तो उन्होंने शहनाई कि धुन में बधैया को सुनाने का आग्रह किया था। करीब चालीस मिनट तक शहनाई की ऐसी तान छेड़ी कि बाला साहब उनसे खासे प्रभावित हुए। उनकी शहनाई के धुन को सुनने के लिए इंदिरा गांधी खुद खां साहब को निमंत्रण देकर बुलाती थी। बाबा साहेब ठाकरे खां साहब के सबसे बड़े फैन थे। हर कार्यक्रम में वो उन्हें महाराष्ट्र बुलाते थे। बिस्मिल्लाह खान को बाबा विश्वनाथ में अटूट आस्था थी। इसकी वजह से वह कोई भी कार्यक्रम छोड़ देते थे। वे मानते थे कि उनकी शहनाई के सुरों से जब गंगा की धारा से उठती हवा टकराती थी तो धुन और मनमोहक हो उठती थीं। एक बार एक अमेरिकी उनको हमेशा के लिए अमेरिका ले जाने आया था। उन्होंने उस समय उस अमेरिकी से पूछा था कि तुम क्या अमेरिका में मां गंगा और बाबा विश्वनाथ को दे सकते हो? इस पर वह व्यक्ति कोई जवाब नहीं दे पाया। यही नहीं अंतिम सांस लेते समय भी उनकी जुबान पर संगीत ही था। भारतीय शास्त्रीय संगीत और संस्कृति की फिजा में शहनाई के मधुर स्वर घोलने वाले प्रसिद्ध शहनाई वादक बिस्मिल्ला खान शहनाई को अपनी बेगम कहते थे और संगीत उनके लिए उनका पूरा जीवन था। पत्नी के इंतकाल के बाद शहनाई ही उनकी बेगम और संगी-साथी दोनों थी, वहीं संगीत हमेशा ही उनका पूरा जीवन रहा। अपने जीवन काल में उन्होंने ईरान, इराक, अफगानिस्तान, जापान, अमेरिका, कनाडा और रूस जैसे अलग-अलग मुल्कों में अपनी शहनाई की जादुई धुनें बिखेरीं। खान ने कई फिल्मों में भी संगीत दिया। उन्होंने कन्नड़ फिल्म ‘सन्नादी अपन्ना’, हिंदी फिल्म ‘गूंज उठी शहनाई’ और सत्यजीत रे की फिल्म ‘जलसाघर’ के लिए शहनाई की धुनें छेड़ी। आखिरी बार उन्होंने आशुतोष गोवारिकर की हिन्दी फिल्म ‘स्वदेश’ के गीत ‘ये जो देश है तेरा’ में शहनाई की मधुर तान बिखेरीं।
अस्सी घाट पर जब गूंज उठी शहनाई तो बहुत याद आएं बिस्मिल्लाह खां
जी हां, मौका था उस्ताद बिस्मिल्लाह खां की सौवीं जयंती पर उनके नाम समर्पित सुबह-ए-बनारस के मंच पर शहनाई की सुर सर्जना का। अस्सी घाट पर खां की जन्मशताब्दी वर्ष का आगाज ‘याद-ए-बिस्मिल्लाह’ के रूप में हुआ। भोर जब शहनाई के सुर गूंजे तो उनकी धुनों की संजीदगी दिलों में उतर गई। शहनाई के शहंशाह, भारत रत्न मरहूम उस्ताद बिस्मिल्लाह खां के चाहने वालों की आंखें बरबस ही डबडबा गई। फिर क्या उस्ताद जी की याद में आयोजनों का दौर चला तो फिर देर रात तक जारी रहा और चाहे वह सोमा घोष रही हो या उनके साहबजादे पंडित मोहन लाल त्यागी, जामिन हुसैन व पौत्र आफाक हैदर की शहनाई धून पर लोगबाग उनकी यादों में गोते लगाते रहे। उस्ताद को गंगा तट और बनारसी मिठाइयों में बालूशाही पसंद थी। उनके इसी लगाव को देखते हुए जन्मशताब्दीवर्ष का आगाज गंगा किनारे अस्सी घाट पर ढाई किलो का बालूशाही काटकर किया गया। संगीत के मंच मोहनलाल त्यागी के शहनाई वादन से माहौल खुशगवार हुआ। उन्होंने उस्ताद की लोकप्रिय धुन ‘गंगा द्वारे बधइया बाजे..’सुनाई। इसके बाद डॉ. सोमा घोष ने इसी धुन को स्वर दिया। उन्होंने बाद में दादरा-मेरा बलमा बेदर्दी न जाने दिल की बात सुनाया। तबले पर संगत जब्बार एवं रिदम पर मोहन ने की। इस मौके पर ‘बिस्मिल्लाह खां और गंगा’ पर केन्द्रित फोटो प्रदर्शनी भी लगाई गई थी। पं. शिवनाथ एवं देवव्रत ने पूरबी धुन विशेष रूप से बजाई।
---सुरेश गांधी ---


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