मैटा के तीसरे दिन में धोउ और कौमुदी का मंचन किया गया - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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सोमवार, 23 मार्च 2015

मैटा के तीसरे दिन में धोउ और कौमुदी का मंचन किया गया

maita-drama
महिंद्रा एक्सीलेंस इन थिएटर अवार्ड्स (मैटा) के तीसरे दिन में धोउ ... द वेव; निर्देशक: गुणाकर देव गोस्वामी; पूर्वारंग के द्वारा निर्मित (गुवाहाटी, भाषा: असमिया) शाम ६ बजे एलटीज़ी थिएटर और   कौमुदी; निर्देशक: अभिषेक मजुमदार; रियाद महमूद एजुकेशन एंड आर्ट्स फाउंडेशन एंड इंडियन इनसेम्बल के द्वारा निर्मित (बेंगलुरू, भाषा: हिन्दी) शाम ८ बजे कमानी थिएटर में मंचन किया गया 

धोउ अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिये एक संघर्शषील व्यक्ति एक मछुआरे और एक मछली की कहानी है। एक मछुआरा मछली पकड़ने के अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए कड़ा संघर्श करता है और  अंत में कड़ी मेहनत और कड़े संघर्श के बाद जब वह मछुआरा समुद्र में मछली को पकड़ लेता है तो वह फिर से मछली को समुद्र में यह कहते हुए छोड़ देता है कि मछली जितने अधिक समय तक समुद्र में होगी कोई दूसरा संघर्श करने वाला व्यक्ति मछली पकड़ने के लिए वहां आएगा और जब तक दुनिया में संघर्श कायम रहेगा तब तक वहां मछली पकड़ने के लिए संघर्श करने वाले आते रहेंगे और वहां जीवन भी कायम रहेगा। यहां मछली आम नागरिक का प्रतीक है जो हमेशा लोकतांत्रिक शासकों का निषाना रहे हैं।

कौमुदी जीवन के संक्रमण काल के संस्कार के बारे में है। इस नाटक में ‘कालातीत’ चांदनी रात, का इस्तेमाल किया गया है जब कृश्ण पांडव सेना के सेनापति का कमान संभाल रहे अर्जुन को धर्मोपदेश देते हैं। इस नाटक के जरिये इस पिता तथा पुत्र के बीच के संबंधों की पड़ताल की गयी है। इसमें एकलव्य की आत्मा तथा अभिमन्यु को चित्रित किया गया है और जिसका मंचन 1960 के आखिरी दषक में इलाहाबाद में एक थियेटर में किया गया था। पिता की भूमिका निभाने वाले सत्यषील एक महान अभिनेता है और उन्होंने अपनी दृष्टि लगभग खो दी है। यह उनके अंतिम तीन प्रदर्शनों में है। उसी तरह पुत्र की भूमिका निभाने वाले पारितोश अपने पिता के बगैर ही बड़े हुए और वह सिर्फ पिता के लिए ही नहीं, बल्कि उनकी पूरी स्कूली सोच को चुनौती देने के लिए आये हैं। कौमुदी तीन सवाल उठाता है: किसका जीवन अधिक मूल्यवान है - बुजुर्ग व्यक्ति की या युवा व्यक्ति की? क्या व्यक्तिगत नीति सार्वजनिक नीति से ज्यादा महत्वपूर्ण है? क्या कला एक समारोह है, और हम कला को बनाते हैं या कला हमें बनाता है? यह इस बात पर भी प्रकाष डालता है और थियेटर से सवाल पूछता है: क्या थिएटर का कोई अर्थ है या इससे हमारे अहंकार का मर्दन किया जा रहा है? यह किसका थिएटर है - दर्शकों का या व्यवसायियों का? कौमुदी दो ग्रंथों से प्रेरित रही है: आनंद का मलयालम उपन्यास ‘व्यासम विग्नेष्वरम’ और जॉर्ज लुइस बोर्जेस की ‘एस्से ब्लाइंडनेस’।

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