वर्तमान समय में लड़कियां भले ही हर क्षेत्र में कामयाबी के परचम लहरा रही हों, सेना से लेकर कॉर्पोरेट जगत तक महिलाएं पुरुषों को चुनौतियां दे रही हों, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों की बात करें तो आज भी यहाँ लड़कियों की पहचान की बात तो दूर, समाज में उन्हें अपना स्थान बनाने लिए भी संघर्ष करना पड़ रहा है। ऐसे में यदि किसी गांव की लड़कियां मीडिया जैसे क्षेत्र में अच्छे से अपने कार्य अंजाम दे रही हो तो आश्चर्य अवश्य होता है। लेकिन यह किसी परिकथा का हिस्सा नहीं है और न ही भविष्य के किसी साकार होती रूपरेखा की संकल्पना है। हौसले और आत्मविश्वास से भरी यह कहानी है देश के पिछड़े राज्यों में शुमार बिहार के मुज़फ्फरपुर के एक सुदूर गांव रामलीला गाछी की है, जहां कुछ लड़कियों के बुलंद हौसलों के सामने कॉर्पोरेट घराने की मीडिया भी गौण हो जाती है। दुनिया भर में शाही लीची के लिए मशहूर मुज़फ्फरपुर के पारु ब्लॉक का यह गांव आज भी बुनियादी सविधाओं की कमी से जूझ रहा है। इसके बावजूद यहां की रहने वाली खुशबू, अनीता, रूबी और रोमा के हौसले किसी मंझे हुए मीडिया रिपोर्टर की तरह नज़र आते हैं। जो हिम्मत और हौसले से अपने सामुदायिक न्यूज़ चैनल ‘‘अप्पन समाचार’’ के माध्यम से समाज में परिवर्तन के लिए प्रयासरत हैं। यह लड़कियां किसी बड़ेे घराने से नहीं हैं बल्कि आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर परिवारों से ताल्लुक रखती हैं।
2007 में स्थापित ‘‘अप्पन समाचार’’ मुजफ्फरपुर के एक वरिष्ठ पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता संतोष सारंग के प्रयासों का परिणाम है। उनके इस कार्य को स्थानीय समाजसेवी अमृतांज इंदीवर, फूलदेव पटेल और पंकज का भरपूर सहयोग मिला। जिन्होंने न केवल इन लड़कियों की प्रतिभा को पहचाना बल्कि इससे जोड़ने के लिए उनके परिवारवालों को तैयार भी किया। ज़ाहिर है मानसिक रूप से पिछड़ेे और ग्रामीण पृष्भूमि के इस वातावरण में जहाँ लड़कियों को देहलीज़ के बाहर क़दम रखना अच्छा नहीं माना जाता है, वहां इसे बखूबी चलाना किसी चुनौती से कम नहीं है। संस्थापक संतोष सारंग कहते हैं कि यह लड़कियां मज़दूर और किसान की बेटियां हैं। जिन्होंने पत्रकारिता का कोई कोर्स नहीं किया है। ऐसे में ‘‘अप्पन समाचार’’ की कामयाबी इन्हीं लड़कियों के हौसलों का परिणाम हैं। वह कहते हैं कि अब इन लड़कियों ने ख्वाब देखना शुरू किया है जिसे अपनी पढाई के साथ पूरा करना चाहती हैं। ‘‘अप्पन समाचार’’ का उद्देश्य बताते हुए वह कहते हैं कि मुख्यधारा की मीडिया में गांव की ख़बरें नहीं होती है, लेकिन मुद्दे सबसे अधिक वहीँ होते हैं। जहां बुनियादी सुविधाएं और मीडिया दोनों नहीं पहुंच पाती हैं ऐसे में इन मुद्दों को ‘‘अप्पन समाचार’’ के माध्यम से उठाया जाता है। इनमंे किसानों और महिलाओं से सम्बंधित समस्याएं, बाल विवाह, पंचायत और स्वच्छता प्रमुख रूप से केंद्रित हैं।
‘अप्पन समाचार’’ का संचालन स्थानीय गांव वालों की मदद से संभव होता है। संतोष सारंग कहते हैं कि इसके तैयार करने और प्रसारण तक में सभी लड़कियों का सामान रूप से योगदान है। इनमे कैमरा चलाने से लेकर एंकरिंग तक का काम लड़कियां ही करती हैं। साइकिल और हाथ में कैमरा लिए यह लड़कियां बेबाकी से सवाल करती हैं। 45 मिनट की तैयार ख़बरों को सप्ताह में एक बार लगने वाले हाट बाजार में प्रसारित किया जाता है। इसमें उन मुद्दों को उठाया जाता है जिसे मेनस्ट्रीम मीडिया नज़ररअंदाज़कर देती है। ‘‘अप्पन समाचार’’ में प्रसारित ख़बरों का अब ज़मीनी स्तर पर असर भी नज़र आने लगा है। इस संबंध में संतोष सारंग बताते हैं कि टीम को पता चला कि स्थानीय मिडिल स्कूल की ईमारत के निर्माण में घटिया ईंटों का प्रयोग किया जा रहा है। जिस पर ‘‘अप्पन समाचार’’ टीम ने स्टोरी की और इसे साप्ताहिक हाट बाजार में दिखाया गया परिणामस्वरूप स्थानीय नागरिक की जागरूकता के बाद उन ईटों को बदल दिया गया। ‘‘अप्पन समाचार’’ की टीम के कार्य ने जहां पंचायत में होने वाले बहुत से कामों में पारदर्शिता ला दी है। वहीं टीम की लड़कियों को हर प्रकार से समर्थन भी मिलने लगा है। ‘‘अप्पन समाचार’’ के कार्य ने रामलीला गाछी को विश्व मानचित्र में विशिष्ट पहचान दी है। यही कारण है कि एक तरफ जहां इसे कई पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है वहीं बीबीसी, अलजज़ीरा और जर्मन टीवी ने इसपर वृत्तचित्र भी तैयार किया है।
अमृतांज इंदीवर बताते हैं कि रामलीला गाछी एक ऐसा गांव है जहां वर्षों से अपराधियों का वर्चस्व रहा है। जहां सरकारी अधिकारी क़दम रखने से घबराते हैं और जहां नक्सलियों के क़दमों की आहट साफ़ सुनाई देती है। सरकार की उपेक्षा के कारण आज भी यह इलाक़ा गरीबी, अशिक्षा और सड़क जैसी बुनियादी सुविधाओं की कमी से लगातार जूझ रहा है। यह वह क्षेत्र है जहाँ अंधविश्वास और सामाजिक बुराइयां जीवन का अभिन्न अंग हैं। जहाँ लड़कियों को परदे के भीतर और शिक्षा से वंचित रखा जाता है। ऐसे में ‘‘अप्पन समाचार’’ की टीम ने पुरे हौसले के साथ इनपर काबू पाया। यही कारण है कि आज यहां के लोगों की विचारधारा में परिवर्तन आने लगा है। अब उन्हें बेटियां बोझ नहीं गर्व का एहसास दिलाती हैं। लेकिन इससे ज़्यादा इन लड़कियों ने अपने हौसले से उस मिथक को तोड़ दिया जिसमे यह माना जाता है कि बड़ी पूंजी और सेटअप के तामझाम के बिना मीडिया का संचालन असंभव है।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत में निर्विवाद रूप से मीडिया को चैथा स्तंभ स्वीकार किया जाता है। परिभाषित रूप में देखा जाए तो इसका मुख्य कार्य जनता की आवाज़ को सरकार तक पहुंचाना और सरकारी नीतियों को नागरिकों तक सुलभ रूप से उपलब्ध करवाना है। हमारे देश में चाहे प्रिंट हो अथवा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उसे किसी हव्वा के रूप में देखा जाता है। माना जाता है कि इसका संचालन कॉर्पोरेट के बस की बात है। भारी भरकम पूंजी और महानगरीय सुविधाओं के बिना इसका संचालन संभव नहीं है। लेकिन एक गांव से प्रसारित ‘‘अप्पन समाचार’’ ने इस विचारधारा को हमेशा के लिए बदल दिया है। वहीं इन लड़कियों ने साबित कर दिया है कि नारी को केवल अबला और गुडि़या समझने की परिभाषा गलत है।
सैयद अनीसुल हक़
(चरखा फीचर्स)



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