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शुक्रवार, 17 अप्रैल 2015

विशेष आलेख : दलितों के प्रति सपा में अचानक कैसे जागी हमदर्दी

उत्तर प्रदेश में राजनीतिक समीकरण तेजी से बदल रहे हैं। समाजवादी पार्टी की सरकार जब प्रदेश में चौथी बार सत्तारूढ़ हुई थी उस समय उसके एजेंडे में सवर्णों को खुश रखना सर्वोपरि था क्योंकि पार्टी का नेतृत्व मायावती के बदले उनसे मिले समर्थन को अपनी सफलता की मुख्य वजह मान रहा था। दूसरी ओर दलितों के लिए सपा ने यह मान लिया था कि 2 जून 1995 के वितंडा के बाद वे उसके साथ रहने से रहे। इस कारण दलितों की भावनाओं की कोई परवाह न करने की मुद्रा उसने साध रखी थी।

यही वजह थी कि अखिलेश सरकार ने ट्रंप कार्ड चलने के अंदाज में अपने शुरूआती फैसलों में सरकारी नौकरियों की पदोन्नति में दलितों को मिल रहे आरक्षण को निशाना बनाया। हालांकि उनका यह कदम पार्टी के प्रेरणा स्रोत डा. लोहिया की विचारधारा के विपरीत था। डा. लोहिया मानते थे कि देश में व्यवस्था परिवर्तन के लिए सामाजिक परिवर्तन को अंजाम दिया जाना चाहिए जिसके तहत वर्ण व्यवस्था से पीडि़त दलितों और पिछड़ों व पितृ सत्तात्मक भारतीय समाज में शाश्वत तौर पर भेदभाव की शिकार महिलाओं को लामबंद कर वे राजनीति का एक नया केेंद्र बिंदु तैयार करने के लिए प्रयत्नशील रहे। वर्ण व्यवस्था को धारहीन बनाकर इस प्रयास को वे बाबा साहब अंबेडकर की तरह ही जातिविहीन समाज के निर्माण की मंजिल तक पहुंचाने को तत्पर थे ताकि राजनीतिक सुधारों का सुचारु पथ प्रशस्त हो सके जिसमें वर्ण व्यवस्था को वे सबसे बड़ी बाधा के रूप में देखते थे।

समाजवादी पार्टी का मुलायम सिंह युग डा. लोहिया का नाम लेने में भले ही विश्वास करता हो लेकिन उनकी विचारधारा पर अमल की उसे कोई परवाह नहीं रही। तभी तो मुलायम सिंह ने जाति तोड़ो के लोहिया के आह्वान को विस्मृत कर पिछड़ों के सम्मेलन में यह आह्वान कर डाला था कि वे अपनी-अपनी जातियों का उल्लेख अपने नाम के साथ गर्व पूर्वक करें। इसके पहले उन्होंने सामाजिक न्याय को तार्किक परिणति तक पहुंचाने में सक्षम हो चुके राष्ट्रीय मोर्चा वाम मोर्चा की खटिया खड़ी करने के लिए बसपा के साथ गठबंधन किया जिसके पीछे कोई वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं थी। इसके बावजूद यह अनायास ही एक ऐसा गठबंधन बनकर उभरा जिससे देश के सबसे बड़े सूबे में वर्ण व्यवस्था की निर्णायक पराजय का आधार तैयार हो गया था पर मुलायम सिंह और मायावती दोनों के ही व्यक्तिवाद के कारण षड्यंत्रकारी ताकतें 2 जून 1995 के गेस्ट हाउस कांड का बढ़ा-चढ़ाकर झूठा प्रोपोगंडा करके दलितों और पिछड़ों के बीच हमेशा के लिए खाई खोदने में सफल रहीं।

इसके बाद मुलायम सिंह का दलितों के प्रति अवसर मिलने पर दिखाया गया जबरदस्त दुराग्रह इस षड्यंत्र को और मजबूती प्रदान करने का कारण बना लेकिन अब जैसे समाजवादी पार्टी की सोच बदल रही है। बाबा साहब अंबेडकर की जयंती पर मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने घोषणा की कि उनके निर्वाण दिवस पर प्रदेश में सरकारी अवकाश रखा जाएगा। साथ ही उन्होंने आरक्षण के कारण पदोन्नत सिंचाई विभाग के अभियंताओं को रिवर्ट किए जाने के अपने फैसले को भी बदलने का संकेत दे डाला। अखिलेश यादव की इस कोशिश से दलित और पिछड़ों के फिर से एक मंच पर आने का आधार तैयार हुआ है। देर आयद दुरस्त आयद अगर समाजवादी पार्टी इतिहास से सबक लेकर अपनी रीति-नीति में परिवर्तन करने को अभी भी तैयार होती है तो यह बहुत सकारात्मक होगा। इस परिवर्तन की वांछना इस बात की है कि समाजवादी पार्टी बेहया हथकंडों से सत्ता हथियाने तक अपने उपक्रम को सीमित न रखकर विचारधारा पर काम करने वाली और परिवर्तन के लक्ष्य को हासिल करने वाली पार्टी की छवि बनाए। लोहिया का सिर्फ नाम न ले बल्कि उनकी विचारधारा को अमल में लाकर उसके अनुरूप नए समाज बनाने के लिए काम करे।

इस लिहाज से अंबेडकर जयंती पर अखिलेश के द्वारा की गई घोषणाएं महत्वपूर्ण हैं और बसपा सुप्रीमो मायावती की इस पर प्रतिक्रिया नितांत बेजा है। वे निजी सत्ता में विश्वास रखती हैं और कांशीराम व अंबेडकर के नाम को केवल मोहरा बनाना चाहती हैं। अगर ऐसा न होता तो बाबा साहब अंबेडकर जैसे विराट नेता को दलित नेता और बसपा की पेटेंट संपत्ति की हद तक समेटे रखने की कोशिश वे न करतीं। अगर उन्हें बाबा साहब के प्रति जरा भी श्रद्धा है तो उनको चाहिए कि वे ऐसा वातावरण बनाएं जिससे बाबा साहब अपने योगदान के मुताबिक समाज में सर्व स्वीकार्य बनें जिसकी परिस्थितियां अब तैयार हो गई हैं।

हालांकि अभी भी यह नहीं कहा जा सकता कि अंबेडकर जयंती पर अखिलेश ने जो रुझान दिखाया है उसके पीछे उनकी नीयत पूरी तरह साफ है। यह भी हो सकता है कि अखिलेश को यह एहसास हो कि इस समय वर्ण व्यवस्थावादी शोषण को बल देने वाले कर्मकांडों व आडंबरों के पुनर्जीवन का माध्यम बनी मोदी सरकार के प्रति स्वाभाविक आकर्षण की वजह से सवर्ण अगले विधान सभा चुनाव में उनके साथ शायद ही जुड़े रह सकेें। दूसरी ओर बसपा के विधान सभा उपचुनाव न लडऩे से दलितों के वोट में सेंधमारी के लिए उनके जो नुस्खे कारगर हुए हैं वे आम चुनाव में भी कारगर हो सकते हैं यह भरोसा बनाए रखते हुए उन्होंने दलितों के प्रति नरम और हमदर्द अपनाने की रणनीति अख्तियार की हो। बहरहाल अखिलेश और सपा की असल मंशा क्या है यह आगे चलकर उजागर होगा।



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के  पी  सिंह
ओरई 

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