विशेष : टूट की संभावनाओं के जनता परिवार का विलय - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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बुधवार, 15 अप्रैल 2015

विशेष : टूट की संभावनाओं के जनता परिवार का विलय

जी हां, ऐलान के पहले पार्टी के नाम, झंडा, चिन्ह पर सहमति नहीं बन पायी। बने भी कैसे जब शुरुवात में ही वजूद व अस्तित्व पर हमला हो रहा हो तो आगे क्या होने वाला है यह मजबूरी के नाव पर सवार लालू भले ही ना समझे पर नीतिश बखूबी समझ रहे है। क्योंकि बिहार में होने वाले चुनाव की तारीख का भले ही अता-पता नहीं लेकिन लालू प्रसाद यादव का जंगलराज मुद्दा अभी से बन गया है। जो भी हो इतना तो पक्का हो चला है कि जनता दल से टूटकर अलग हुईं पार्टियों में मुलायम को होने वाले 2017 सपा का अस्तित्व बचा रहे इसकी चिंता है तो लालू यादव को अपने परिवार की। दोनों का कुनबा सही सलामत रहे इसके लिए कल तक फूटी आंख नहीं सुहाने वाले आज एक-दूसरे पर प्यार छलका रहे है 

janta pariwar unite
काफी मान-मनौउअल के बीच जनता परिवार के विलय से मजबूत विपक्ष तो बन गया, लेकिन जिस मोदी के विजय रथ को रोकने के लिए ये एकजुट हुए है वह आगे भी जारी रहेगा इसकी संभावनाएं बहुत कम है। वजह यह है कि ऐलान के पहले पार्टी के नाम, झंडा, चिन्ह पर सहमति नहीं बन पायी। बने भी कैसे जब शुरुवात में ही वजूद व अस्तित्व पर हमला हो रहा हो तो आगे क्या होने वाला है यह मजबूरी के नाव पर सवार लालू भले ही ना समझे पर नीतिश बखूबी समझ रहे है। क्योंकि बिहार में होने वाले चुनाव की तारीख का भले ही अता-पता नहीं लेकिन लालू प्रसाद यादव का जंगलराज मुद्दा अभी से बन गया है। जो भी हो इतना तो पक्का हो चला है कि जनता दल से टूटकर अलग हुईं पार्टियां सपा, आरजेडी, जेडीयू, आईएनएलडी, जेडीएस, एसजेपी का जो समझौता हुआ है वह जनता परिवार के लिए नहीं बल्कि अपने परिवार को वजूद व जलवा बना रहे इसके लिए हुआ है। फूटी आंख नहीं सुहाने वाले लालू-मुलायम, नीतिश-शरद आदि अब एक-दूसरे को प्यार भरी नजरों से सिर्फ इसलिए देख रहे हैं, क्योंकि सियासत में तमाम इन नेताओं के उदय के बाद यह पहला मौका है जब वे हासिए पर जाते दिख रहे है। दिल्ली में केजरीवाल की सफलता के बाद थोड़ी इनमें जान आई तो नजाकत भाप विलय को अमलीजामा पहना दी। अब सभी एक-दूसरे के बाहों में बाहें डालकर चलने की शपथ ले रहे हैं। यह मोदी का खौफ नहीं तो और क्या है? वह मोदी जिसमें कुछ करने की करिश्मा है, जिसे देश उम्मीद से देखता है, जिसमें कुछ नया करने की क्षमता है। 

अगर जनता दल परिवार के नेताओं को यह लगता है कि वे इस तरह से केंद्र सरकार को घेरकर अपनी एकजुटता के औचित्य को सही साबित करेंगे तो यह उनकी ख्याली पुलाव के सिवाय कुछ भी नहीं। उनकी इस एकजुटता की सार्थकता तब होती जब वह अपनी रीति-नीति के साथ जनता को बिजली, पानी सड़क, सुरक्षा जैसे कुछ विशेष मसलों को लेकर जनता की भलाई की बात करते। जेडीयू अध्यक्ष शरद यादव ने ऐलान किया कि नए दल के अध्यक्ष मुलायम सिंह यादव होंगे। वे ही पार्लियामेंट्री कमेटी के अध्यक्ष होंगे। ऐसे में विलय के बावजूद सब कुछ ठीक चलेगा, इसकी गारंटी नहीं लग रही। इसका एक संकेत तो यही लगता है कि बैठक में नई पार्टी का नाम, झंडा तय नहीं हो सका। छह लोगों की एक समिति बनाई गई, जो संगठन के नीतियों और अन्य मुद्दों पर फैसला करेगी। यह कमेटी विलय करने वाले अध्यक्षों की होगी। लालू यादव कह रहे है नई पार्टी बीजेपी का हवा निकाल देगी। उधर, सपा के कुछ नेताओं को लगता है कि आरजेडी और जेडीयू से हाथ मिलाने से उत्तर प्रदेश में सपा को कोई फायदा नहीं होगा। इस साल के आखिर में बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव में बीजेपी को रोकने की बात भी सपा के कुछ नेताओं को नहीं भा रही है। सपा के नेता दबी जुबान से कह रहे हैं कि अब उन्‍हें बिहार की राजनीति के मजबूत क्षत्रपों- लालू यादव और नीतीश कुमार- के हिसाब से फैसले लेने होंगे। सपा के कई नेता इस बात को लेकर भी फिक्रमंद हैं कि अगर आगे चलकर बनने जा रही यह नई पार्टी टूटी तो उन्हें अपनी पहचान वापस पाने में मुश्किल आ सकती है। विलय के विरोधी सपा के नेताओं का कहना है कि दो दशक से ज्यादा लंबे संघर्ष के बाद उनकी पार्टी ने अपनी पहचान बनाई है। अक्टूबर, 1992 में सपा वजूद में आई थी। 

फिरहाल जिस तरह मोदी के कार्यकाल को असफल व जनता को दिए वादों को झूठा करार देकर ये क्षत्रप मोदी को घेरने की कोशिश कर रहे है वह विपक्ष की भूमिका अदा करने तक तो ठीक है मगर यह काम वह संसद के भीतर भी कर सकते थे। मतलब साफ है इन क्षत्रपों की दिलचस्पी संसद में नहीं बल्कि बाहर हो हल्ला मचाकर अपने वजूद को बचाएं रखने की है। वजह भी साफ है अगर वाकई जनता मोदी के कामकाज से नाखुश होती तो हाल के संपंन चुनावों में उनका कबका बैंड बजा चुकी होती, पर ऐसा नहीं है। महाराष्ट्र व हरियाणा में भरपूर समर्थन देंकर सत्ता की चाभी सौंपने वाली जनता अब झारखंड व जम्मू-कश्मीर में भी सत्ता की कुर्सी पर बैठा ही दिया। जिस दिल्ली की परिणाम को लेकर ये लोग इतरा रहे है वह बीजेपी की चूक का नतीजा है न कि मोदी के कामकाज का। पटना में जिस तरह अमित साह की सफल रैली हुई उससे कहा जा सकता है मोदी का विजय रथ अब बिहार और उत्तर प्रदेश में भी नहीं थमने वाली। लालू यादव, मुलायम सिंह यादव और नीतीश कुमार मोदी सरकार के कामकाज पर सवाल उठाने से पहले यह देखें कि उत्तर प्रदेश में खुलेआम गुंडागर्दी हो रही है। फर्जी मुकदमें दर्ज कर घर-गृहस्थी लूटे जा रहे है। बलात्कारियों को खुलेआम न सिर्फ वकालत की जा रही है बल्कि कानूनी संरक्षण भी दिया जा रहा। अच्छा तो यह होता कि वह रचनात्मक विपक्ष के रुप में अपनी भूमिका के प्रति जनता में भरोसा जताकर उनका विश्वास जितती। वोट बैंक की राजनीति से उपर उठकर राजनीति के नएं विकल्प खोजती। सारे नियम-कानून-कायदे ताक पर रखकर जनता को लूटने में व्यस्त लालफीताशाही पर नकेल कसने के बजाएं मुलायम सिंह अब दिल्ली पर कब्जा करने की दुहाई दे रहे तो कभी चुनाव न लड़ने की हाईकोर्ट आदेश के बावजूद लालू यादव भी उनके साथ कदमताल करते नजर आ रहे है। 

कहा जा सकता है जनता दल या समाजवादी परिवार अपनी एका से ज्यादा बिखराव के लिए जाना जाता रहा है। यहां जनता परिवार शब्द का जिक्र करना जरुरी इसलिए है कि कही न कहीं इसके पीछे कांग्रेस के दौर की परिस्थितियां थी जब जनता पार्टी बनी थी, लेकिन यहां ऐसा नहीं है। जनता परिवार के नाम पर इन छत्रपों को देखें तो नीतिश को छोड़ देते इसमें सबकों अपने कुनबे को ही बचाने की चिंता है। बात अगर मुलायम सिंह यादव की जाएं तो वह अपने पूरे कुनबा जिसमें रामगोपाल यादव, शिवपाल यादव अखिलेश यादव, डिम्पल यादव, धर्मेन्द्र यादव अक्षय यादव, तेजप्रताप यादव का हो या लालू प्रसाद यादव जिसमें राबड़ी देवी, मिसा भारती, एचडी देवगौड़ा व उनके बेटे कुमार स्वामी, दुष्यंत चोटाला, ओमप्रकाश चोटाला, अजय चोटाला, हरि चोटाला, द्विग्विजय चोटाला को हो या फिर इनके परिवारों की महिलाएं सियासत साधने में लगी है। कहा जा सकता है कि यह जनता का परिवार नहीं नेताओं का परिवार है। इन परिवारों के नेता बार-बार इसलिए बिखरते रहे, क्योंकि नीतियों से अधिक इन्होंने अपने निजी स्वार्थो को महत्व दिया। मतलब साफ है सभी हारे बारी-बारी लेकिन मोदी है इन पर भारी। मुलायम, शरद यादव, लालू यादव जैसे कई बड़े नेताओं ने कई मोर्चा बनाया और मुंह की खानी पड़ी। वह सिर्फ अपने ही स्टेट में प्रभाव बनाने में मशगूल रहे। उनकी दूसरे राज्यों में विस्तार करने की महत्वाकांक्षा कभी दिखी ही नहीं। 

जनता दल परिवार के नेताओं के लिए यह आवश्यक है कि वे लोगों का भरोसा हासिल करने के लिए सकारात्मक राजनीति का परिचय दें। इस मामले में केवल पंथनिरपेक्षता की दुहाई देने से बात नहीं बनने वाली। इसलिए और भी नहीं, क्योंकि इन दलों की पंथनिरपेक्षता की नीति बेहद दोषपूर्ण है और उसके चलते समाज में प्रतिक्रिया स्वरूप ध्रुवीकरण होता है। वे इससे परिचित भी हैं, लेकिन खुद को बदलने के लिए तैयार नहीं। खुद को पंथनिरपेक्ष करार देने भर से कोई ऐसा नहीं हो जाता। इसी तरह किसानों, मजदूरों के हितों के नाम पर घिसी-पिटी राजनीति करने का भी कोई मतलब नहीं। जनता दल परिवार के बिखरे नेताओं के एक मंच पर आने और मिलकर राजनीति करने के संकेत देने का तभी कोई मतलब है जब यह एका ठोस नीतियों और सिद्धांतों के आधार पर हो। जनता परिवार की छह पार्टियों का साथ आना इन पार्टियों के लिए कितना फायदेमंद होगा, इस पर कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, लेकिन यह तय है कि आम जनता में इस प्रयोग को लेकर कोई उत्साह नहीं होगा। जनता परिवार के इतिहास में लोग जितनी तेजी से मिलते हैं, उससे दोगुनी तेजी से छिटक जाते हैं। जनता पार्टी से टूटी पार्टियों में भाजपा ही एकमात्र स्थायी पार्टी रही है, उसके अलावा कितनी पार्टियां बनीं, कब विलय हुआ, फिर कब टूट हुई, यह इतिहास राजनीति शास्त्र के पारंगत पंडित भी ठीक से नहीं बता सकते। इसलिए इस नए प्रयोग के स्थायित्व को लेकर संदेह लाजमी है। ऐसा इसलिए भी है कि फिलहाल जनता परिवार की जो स्थिति है, वह अपेक्षाकृत स्थायी है। तमाम बड़े नेताओं ने अपने-अपने प्रभाव क्षेत्र चुन लिए हैं और उनकी दूसरे राज्यों में विस्तार करने की महत्वाकांक्षा खत्म सी हो गई है। उनका मुख्य ध्यान अपने राज्य पर ही होता है। देखा जाय तो जनता परिवार के इन दलों का असर 5 राज्यों में हैं। बिहार और उत्तर प्रदेश में ये सत्ता में हैं। लोकसभा में 15 और राज्यसभा में इनके 30 सांसद हैं। इन दलों के पास कुल 424 विधायक हैं। यानी देश में तीसरी इनकी बड़ी संख्या है। जबकि देश भर में भाजपा के 1029 विधायक और कांग्रेस के 941 विधायक हैं। उत्तर प्रदेश में सपा 5 सीट सांसद, 15 राज्यसभा, बिहार में राजद 4 सांसद 1 राज्यसभा, जदयू 2 सांसद, 12 राज्यसभा, आईएनएलडी हरियाणा में 2 सांसद, 1 राज्यसभा, जेडीएस कर्नाटक में 2 सांसद 1 राज्यसभा यानी कुल 5 राज्य 15 सांसद 30 राज्यसभा सांसद, 424 विधायक है। जनता परिवार के इन पांच प्रमुख दलों के 30 राज्यसभा सदस्य बड़ी ताकत हैं। ये सांसद अगर राज्यसभा में तृणमूल के 12, वाम मोर्चे के 11 और बीजद के 7 सदस्यों से हाथ मिला लें तो इनकी संख्या 60 हो जाती है। ये राज्यसभा में कोई भी बिल रोक सकते हैं। 





(सुरेश गांधी)

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