परमात्मा आत्मा से भिन्न नहीं होता। आत्मा ही क्रमशः विकसित होती हुई परमात्मा बन जाती है। जिस आत्मा के मन, वचन और कर्म एक रूप बन जाते हैं, वह महात्मा है तथा जिसके मन, वचन और कर्म सर्वथा समाप्त हो जाते है वह परमात्मा है। प्रत्येक आत्मा में परमात्मा बनने की शक्ति है। वह अपनी शक्ति का उद्घाटन कर परमात्म-पद प्राप्त कर सकती है। प्रत्येक आत्मा की सर्वोच्च अर्हता का स्वीकार भगवान महावीर की एक अनुपम देन है।
महावीर अब हमारे बीच नहीं है पर महावीर की वाणी हमारे पास सुरक्षित है। महावीर की मुक्ति हो गई है पर उनके विचारों की कभी मुक्ति नहीं हो सकती। आज कठिनाई यह हो रही है कि महावीर का भक्त उनकी पूजा करना चाहता है पर उनके विचारों का अनुगमन करना नहीं चाहता। उन विचारों के अनुसार तपना और खपना नहीं चाहता। महावीर के विचारों का यदि अनुगमन किया जाता तो देश और राष्ट्र की स्थिति ऐसी नहीं होती।
महावीर ने धर्म के धरातल पर खड़े होकर समता का संदेश दिया। उन्होंने जन-जन के आचार-विचार और व्यवहार में समता का बीज अंकुरित किया। अस्पृश्यता, वर्गवाद और जातिवाद को अतात्विक बताया। जो व्यक्ति जातिवाद को प्रश्रय देता है, अमीर और गरीब में विषमता के दर्शन करता है, मनुष्य-मनुष्य के बीच स्पृश्यता और अस्पृश्यता की भेद रेखा खींचता है, वह वस्तुतः न भगवान महावीर के प्रति नत हो सकता है और न ही उनके सिद्धांतों के प्रति ही।
भगवान महावीर का दर्शन अहिंसा और समता का ही दर्शन नहीं है, क्रांति का दर्शन है। उनकी ़़ऋतंभरा प्रज्ञा ने केवल अध्यात्म या धर्म को ही उपकृत नहीं किया, व्यवहार-जगत को भी संवारा। उनकी मृत्युंजयी साधना ने आत्मप्रभा को ही भास्वर नहीं किया, अपने समग्र परिवेश को सक्रिय किया। उनका अमोघ संकल्प तीर्थंकर बनकर ही फलवान नहीं हुआ, उन्होंने जन-जन को तीर्थंकर बनने का रहस्य समझाया। एक धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करके ही वे कृतकाम नहीं हुए, उन्होंने तत्कालीन मूल्य-मानकों को चुनौती दी। वे आत्मवेध विद्या में ही पारंगत नहीं थे, लोकाचार को भी बखूबी समझते थे। वे केवल तत्ववेत्ता ही नहीं थे, तत्व की आत्मा को साक्षात देखते थे। उन्होंने प्रगतिशील विचारों को सही दिशा ही नहीं दी, उनमें आए ठहराव को तोड़कर नई क्रांति का सूत्रपात किया। उन्होंने धर्म और कर्म के क्षेत्रा में ही क्रांति की चिनगारियां नहीं विखेरीं, अर्थहीन परम्पराओं को झकझोर डाला।
भगवान महावीर किसी एक परिवार, समाज या राष्ट्र से अनुबंधित नहीं थे। उनकी चेतना के तल पर प्राणीमात्र का दुःख या सुख संवेरित था। वे मानवीय धरातल पर जीते थे और मानवमात्र की हितैषणा में समर्पित थे। उनकी अनुभूति में ऊंच-नीच या छोटे-बड़े की कोई भेदरेखा आकार नहीं ले पाई थी। उन्होंने अपने ज्ञानोपयोग के दर्पण में झांका। वहां प्रतिबिम्बित मानवता के विकृत रूप ने उनको बेचैन कर दिया। मनुष्य-मनुष्य के बीच भेद की वह ऊंची दीवार उनके लिए असहय अवश्य थी। पर दुर्लघ्य नहीं। उन्होेंने उस दीवार को लांघा ही नहीं, भूमिसात कर दिया।
अपराधी मनोवृत्ति का सर्जक मनुष्य स्वयं तो है ही उसमें परिस्थिति का भी योग रहता है। खलील जिब्रान ने अपराध-चेतना पर अपनी ओर से टिप्पणी करते हुए लिखा है-‘जिस प्रकार वृक्ष का एक भी पत्ता पूरे वृक्ष की मूक चेतना के बिना नहीं गिर सकता, ठीक उसी प्रकार समाज की सुप्त चेतना के बिना अपराधी अपराध नहीं कर सकता।’ जिस समय भारत में महावीर और बुद्ध ने क्रांति की पौध को सिंचन दिया, उस समय चीन में लाओत्से और कन्फ्रयूशियस के दार्शनिक विचारों की धूम थी, यूनान में हेराक्लाइट्स और पाइथागोरस का नाम गूंज रहा था। फिलिस्तीन में पेर्मियाह के मंतव्य की चर्चा थी और पारस देश में जरथुस्त्र का वर्चस्व स्थापित हो रहा था।
दार्शनिक मतवाद के उस काल में भी महावीर कहीं ठहरे नहीं, चलते रहे। क्योंकि उन्होंने सत्य को बाहर से नहीं भीतर से पकड़ा था। इसलिए सत्योपलब्धि की साधना करते समय वे जिन भयावह परिस्थितियों से गुजरे, उनका प्रभाव उनके अन्तस का स्पर्श नहीं कर सका। हर पीड़क घटना में वे अपने निकट से गुजरती हुई मृत्यु को देखते थे, पर एक पल के लिए भी वे प्रकम्पित नहीं होते थे। प्रत्येक झंझावत को अपने सिर पर झेलकर महावीर ने सामाजिक क्रांति का सूत्रपात किया। उस समय वे परिपूर्ण ज्ञानी थे। कुछ लोगांे ने उन पर भांति-भांति के आरोप लगाए, पर महावीर की समता खंडित नहीं हुई।
देश और काल की सीमाओं से अबाधित महावीर के व्यक्तित्व का कोई भी छोर ऐसा नहीं है, जो अलौकिक न हो। वे महाकारुणिक, परिजाता बनकर इस धरती पर आए और उन सबको त्राण दिया, जो समाज में उपेक्षित, प्रताडि़त तथा पीडि़त थे। एक विप्लवी शक्ति के रूप में उभरने पर भी उनके परिपाश्र्व में सृजनात्मक सत्ता का साम्राज्य था। उनके सृजन की शलाका से जो कुछ उकेरा गया, वह शाश्वत बन गया। प्रस्तुतिः ललित गर्ग
(ललित गर्ग)
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