जी हां, एक दो नहीं पूरे बयालिस साल तक अरुणा की दुखभरी कहानी मानवीय संवेदनाओं को झकझोर देने वाला नहीं और क्या है? इससे बड़ी त्रासद गाथा और क्या हो सकता है कि उसके संग मूंहकाला करने वाले को मात्र सात साल की सजा और पीडि़त अरुणा को बयालीस साल तक घूट-घूटकर बीताना पड़ा, वह भी बेहोसी हाल में। मतलब साफ है समाज बनाने में अगर हम लगातार फेल हो रहे हैं, तो इसकी बड़ी वजह कुछ अरुणा जैसी ही है। अरुणा शानबाग की ग्लानि भरी दास्तान तबतक चुनौती की चट्टान बनकर खड़ी रहेगी, जबतक स्त्रियों के लायक हम दुनिया नही ंबना पाते। जो भी हो इतना तो कहा ही जा सकता है कि अरुणा की जिदंगी से स्त्री जाति को जागृत होने का सीख तो दे ही दी है
बेशक अरुणा शानबाग की जिंदगी में जो कुछ हुआ उसे कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। 23 बरस की युवा उम्र में उसके सपनों की बगिया को जिस हबसी ने उजाड़ दिया, उसे मात्र सात साल की सजा और पीडि़त अरुणा को 42 साल तक बेहोसी की हालात में दुनिया से रुखसत होना पड़ा। यह एक ऐसी दास्तान है जो मानवीय संवेदनाओं के साथ-साथ न्याय प्रणाली पर सवालिया निशान लगाने के लिए काफी तो है ही सभ्य मानव समाज की संवेदनशीलता को भी झकझोरने वाला है। अरुणा शानबाग और हाल के बरसों में दिल्ली के निर्भया कांड का शिकार बनी लड़की के रूप में सामने आए हादसे दरअसल हमारी सामाजिक संस्कृति के ऊसर में उग आए ऐसे कंटीले झाड़ से उलझकर पैदा हुए लहूलुहान प्रतीक हैं, जिनके सामने हमारा समाज शर्मशार हो जाता है। कहा जा सकता है अगर आज भी हम स्त्री को गरिमापूर्ण, स्वतंत्र, सुरक्षित जीवन जीने का वातावरण मुहैया नहीं करा पाए तो यह विचारणीय प्रश्न तो है ही। इससे बड़ी सामाजिक विकृति और क्या हो सकती की कंटीली झाडि़यों के निर्मूल होने के बजाय और भी पनपती जा रही हैं। महिलाओं के साथ होनेवाली यौन हिंसा विराम लेने का नाम ही नहीं ले रही।
इसके बावजूद यह सवाल अपनी जगह प्रासंगिक है कि जिन व्यक्तियों के ठीक होने की बिल्कुल संभावना न हो, उन्हें बेहद कष्ट में जिंदा रखना कितना सही होगा? क्या इस बारे में कोई ऐसी व्यवस्था बन सकती है, जिससे इस प्रावधान के दुरुपयोग की गुंजाइश न रहे? अरुणा शानबाग ने अचेतावस्था में 42 साल गुजारे। इस दौरान उनके अपने परिजनों ने साथ छोड़ दिया। इस अवधि में उनकी देखभाल चम्पा मौसी के नाम से मशहूर पूर्व सफाईकर्मी ने की। यही वो परिस्थितियां हैं, जिनकी वजह से अरुणा शानबाग के मामले में इच्छा-मृत्यु की बहस खड़ी हुई। उनकी वजह से इस मामले में कुछ प्रगति हुई। इसे उनका महत्वपूर्ण परोक्ष योगदान समझा जाएगा। आगे इस बारे में और चर्चा की जरूरत बनी रहेगी। खासकर ऐसे हालात में जब एक जीवित शव की भांति 42 साल तक कोमा में रहते हुए अरुणा ने उसी केईएम अस्पताल में आखिरी सांस ली, जहां वह नर्स थी। और जहां उसकी जिंदगी को तहस-नहस करने वाला वह दानवी दरिंदा अस्पताल के ही वार्डब्वाय के रूप में उस पर कहर बनकर टूट पड़ा था। केईएम अस्पताल की नर्स अरुणा शानबाग बयालिस साल पहले अपने ही सहकर्मी वार्ड ब्वाय की क्रूर यौन हिंसा का शिकार होकर इतने बरसों तक कोमा में पड़ी हुई थी। कह सकते हैं कि सांस की डोर टूटने से उसे अब मुक्ति मिल गई। लेकिन दिन-प्रतिदिन दोजख बनते जा रहे समाज में क्या सचमुच स्त्रियों के लिए मुक्ति के दरवाजे खुल रहे हैं? यह सवाल यक्ष प्रश्न बनकर खड़ा हो गया है।
यहां जिक्र करना जरुरी है कि यह वही अरुणा है जिनके लिए इच्छा मृत्यु की मांग किए जाने के बाद पूरे देश में इस पर पक्ष-विपक्ष में बहस चली थी। गौर करने वाली बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने इच्छा मृत्यु की मांग तो नहीं मानी, लेकिन परोक्षतः यह व्यवस्था जरूर दे दी कि ऐसी स्थिति में पीडि़त यानी मरीज को जीवन रक्षक प्रणाली से हटाया जा सकता है। असली सवाल यह है कि पिंकी विरानी ने अरुणा शानबाग की दास्तान अपनी जिस किताब अरुणाज स्टोरी में बताई, मराठी लेखक दत्त कुमार देसाई ने 1995 में कथा अरूणाची नामक नाटक लिखा, जिसका 2002 में विनय आप्टे के निर्देशन में मंचन भी किया गया, इन सब प्रयासों का क्या कुछ भी सकारात्मक असर हमारे समाज पर पड़ा है? आखिर आज भी महिलाएं क्यों यौन हिंसा का शिकार बनाई जा रही हैं? महिलाओं के लिए एक मानवीय समाज बनाने में हम क्यों लगातार फेल हो रहे हैं? अरुणा शानबाग की ग्लानि भरी दास्तान तबतक चुनौती की चट्टान बनकर खड़ी रहेगी, जबतक स्त्रियों के लायक हम दुनिया नही ंबना पाते। अरुणा शानबाग भारत की अंतर्चेतना पर एक प्रश्न थीं। अपने समाज में महिलाओं के प्रति कितनी गंदी दृष्टि रखी जाती है और उनसे क्रूरता किस हद तक हो सकती है, वे हमें इसकी याद दिलाती रहीं।
बता दें, कर्नाटक में जन्मीं अरुणा मुंबई के सरकारी केईएम अस्पताल में नर्स थीं। वह कुत्तों पर दवाई का प्रयोग करने वाले विभाग में नर्स रहते हुए कुत्तों को दवाई देती थीं। 27 नवंबर 1973 को अरुणा ने ड्यूटी पूरी की और घर जाने से पहले कपड़े बदलने के लिए बेसमेंट में गईं। वार्डब्वॉय सोहनलाल वाल्मीकि पहले से वहां छिपा बैठा था। उसने अरुणा के गले में कुत्ते बांधने वाली चेन लपेटकर दबाने लगा। छूटने के लिए अरुणा ने खूब ताकत लगाई। पर गले की नसें दबने से बेहोश हो गईं। अत्यंत घायल अवस्था में भी वार्डबॉय ने उनसे अप्राकृतिक यौनाचार किया। सोहनलाल पर अरुणा से दुष्कर्म के भी आरोप लगे। लेकिन कोर्ट में साबित नहीं हो सके। उसे सिर्फ 7 साल की सजा हुई। छूटने के बाद अस्पताल जाकर हमला किया पर नाकाम रहा। तब से वह 18 मई 2015 सुबह तक वे कोमा में रहीं। गौर करने वाली बात यह है कि अरुणा की केईएम अस्पताल के ही डॉक्टर संदीप सरदेसाई से उसी साल दिसंबर में शादी होने वाली थी। डॉ. संदीप ने सालभर अरुणा की सेवा की। पर जब वह कोमा से बाहर नहीं आईं तो चार साल बाद उन्होंने शादी कर ली। अरुणा की बहन के अलावा किसी ने सुध नहीं ली। किताब अरुणा की बात लिखने वाली पिंकी विराणी ने 2009 में अरुणा के लिए सुप्रीम कोर्ट में इच्छा मृत्यु की अर्जी लगा दी। दो साल तक बहस चली। 2011 में कोर्ट ने इच्छा मृत्यु की मांग खारिज कर दी। पर फैसला दिया कि परिवार चाहे तो जिंदा रखने के सपोर्ट सिस्टम हटाया जा सकता है। फिर सवाल आया परिवार कौन? पिंकी ने खुद को अरुणा का दोस्त बताया। कोर्ट ने केईएम अस्पताल को अरुणा का परिवार बताया। और मृत्यु की मांग खारिज कर दी।
इस सबके बीच कोमा से उन्हें स्वस्थ करने में मेडिकल साइंस नाकाम रहा, लेकिन आधुनिक उपकरणों के सहारे उनकी सांस जरूर चलाई जाती रही। ऐसे में सवाल उठता रहा कि जब किसी के ठीक होने की आस न हो, तब उसे इतने कष्ट में जीवित रखना क्या मानवीय और उचित है? धीरे-धीरे अरुणा भारत में इच्छा-मृत्यु के अधिकार से जुड़ी बहस का प्रतीक बन गईं। मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में भी गया। मगर माननीय जजों ने दवा देकर अरुणा की जीवनलीला समाप्त करने की अनुमति देने से इनकार कर दिया। हालांकि, जब डॉक्टर जवाब दे चुके हों, तब सपोर्ट सिस्टम हटा कर मृत्यु का समय आगे लाने का सशर्त प्रावधान न्यायालय ने किया। नतीजतन भारत में इच्छा-मृत्यु के अधिकार की बहस कुछ आगे बढ़ी। यह वाजिब अंदेशा है कि इच्छा-मृत्यु के प्रावधान का दुरुपयोग हो सकता है। इच्छा-मृत्यु के बारे में व्यावहारिक रूप से फैसला परिजनों या रिश्तेदारों को ही लेना होगा। मुमकिन है कि इलाज का बोझ उठाने या सेवा-सुश्रुषा से बचने के लिए ऐसा निर्णय जल्दबाजी में ले लिया जाए। यह भी संभव है कि संपत्ति पर अधिकार के लिए कुछ मामलों में दुर्भावनापूर्ण फैसले हों।
फिरहाल उनकी मौत के बाद अब उनकी प्रापर्टी व सैलरी पर चर्चा होने लगा है। सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक किसी मरीज के डॉक्टर और परिजन अगर पैसिव यूथेनेशिया चाहते हों तो उन्हें हाईकोर्ट में इसकी अर्जी डालनी पड़ेगी। हाईकोर्ट उनका पक्ष सुनने के बाद इस पर आखिरी फैसला लेगा। अरुणा ने पैसिव यूथेनेशिया यानी अप्रत्यक्ष इच्छामृत्यु का कानून दिया। इसके तहत अगर कोई व्यक्ति वेजिटेटिव स्टेट या वेंटिलेटर पर है तो परिजनों की सहमति से लाइफ सपोर्ट को हटा सकते हैं। अरुणा के निधन की खबर देते हुए अस्पताल प्रशासन की ओर से अपील की गई कि यदि कोई उनके रिश्तेदार को जानता हो या रिश्तेदारों को यह सूचना मिल गई हो तो अस्पताल से संपर्क करें। इसके बाद अरुणा के दो भांजे सामने आए और दावा किया कि वे अरुणा के परिजन हैं। यहां जिक्र करना जरुरी है कि अरुणा तीन भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं। बड़ी बहन शांता और भाई बालकृष्ण का भी कुछ साल पहले निधन हो गया। शांता ने बताया था कि वे 15 साल अरुणा से मिलने अस्पताल जाती रही थीं। वहीं डॉ. ओक ने इस दावे को झूठा कहा। बोले- कोर्ट के भेजे पत्र भी उन्होंने नहीं स्वीकारे। हालांकि अर्चना के मुताबिक उन्होंने अरुणा के लिए इच्छामृत्यु की मांग करने वाली पिंकी का विरोध किया था। तब उन्होंने कह दिया था, जब तक उनका अंत नहीं आ जाता, तब तक हम उनकी सेवा करेंगे। हमारी अरुणा यहीं रहेंगी। हर आधे घंटे में हम जाकर उन्हें देखते हैं कि कहीं उन्हें कुछ चाहिए तो नहीं। अस्पताल के पूर्व डीन संजय ने बताया कि नर्सिंग के छात्रों के हर नए जत्थे को अरुणा से मिलवाते थे। अक्टूबर 2008 में पदभार संभालने के बाद उन्होंने उसी दिन अरुणा को देखा। 2011 में उन्होंने कहा था कि मुझे ऐसा लगा कि उनका आशीर्वाद मिला है। ताकि यहां अच्छा काम जारी रहे। 30 साल से काम कर रहीं नीला ने बताया, नर्सों और स्टाफ ने सुख-दुख में अरुणा को साथ रखा है। कभी-कभी अरुणा रोतीं तो हमें बहुत बुरा लगता। उनसे कहते- तुम मत रोना, हम हैं न इधर। वो समझें न समझें, पर नजर ऊपर की ओर रहती थी। हमें लगता वो समझ रही हैं। 56 साल की अर्चना 1973 में केईएम अस्पताल में नौकरी शुरू की थी। उन्हें याद है कि अस्पताल ने 1980 में अरुणा को घर ले जाने का आदेश दे दिया था। नर्सों ने तीन दिन तक हड़ताल कर दिया। आखिरकार अस्पताल प्रशासन को झुकना पड़ा। नया आदेश जारी हुआ कि अरुणा वहीं रहेंगी।
सुरेश गांधी

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