विशेष आलेख : आसान नहीं सफर जिंदगी का - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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गुरुवार, 21 मई 2015

विशेष आलेख : आसान नहीं सफर जिंदगी का

विकलांगता एक ऐसी परिस्थिति है जिससे आप चाहकर भी पीछा नहीं छुड़ा सकते। एक आम आदमी छोटी छोटी बातों पर झुंझला उठता है तो ज़रा सोचिए कि उन बदकिस्मत लोगों का जिनका षरीर उनका साथ छोड़ देता है, फिर भी जीना कैसे हैं कोई इनसे सीखे। कई लोग हैं जिन्होंने विकलांगता जैसी कमज़ोरी को अपनी ताकत बनाया है तो कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने  जिंदगी से निराष होकर इसी कमज़ोरी पर सिर्फ आंसू बहाया है। सबसे बड़ा प्रष्न यह है कि विकलांग लोगों को बेसहारा और अछूत क्यों समझा जाता है? उनकी भी दो आंखे, दो कान, दो हाथ और दो पैर हैं और अगर इनमें से अगर कोई अंग काम नहीं करता तो इसमें इनकी क्या गलती.....यह तो नसीब का खेल है। जम्मू एवं कष्मीर के सीमावर्ती जि़ले पुंछ की तहसील मंडी का अड़ाई पंचायत भी विकलांगता का दंष झेल रहा है। यहां पर विकलांगों की एक फौज नज़र आती है। विकलांग होने के बावजूद भी यहां के लोगों में कुछ कर गुज़रने का जज़्बा रखते हैं। अड़ाई के रहने वाले मोहम्मद असलम, अब्दुल बाकी, मोहम्मद दाऊद, मोहम्मद फारूक, षहनाज़, नसीम और इनके साथी षारीरिक विकलांगता का षिकार है। विकलांगता के कारण बेबसी और लाचारी इनकी जिंदगी का हिस्सा बन गयी है। मोहम्मद दाऊद 50 प्रतिषत, मोहम्मद असलम और अब्दुल बाकी 90 प्रतिषत विकलांगता का षिकार हैं। षारीरिक रूप से बुरी विकलांगता का षिकार होने के बावजूद भी इनके हौंसले पस्त नहीं हुए हैं बल्कि इनमें कुछ करने का जज़्बा है। इनमें भी एक स्वस्थ इंसान की तरह एक धड़कता हुआ दिल है। यह लोग बैठे बैठे भी कुछ कर सकते हैं। दिमाग तेज़ है, मगर षरीर विकलांग है। विकलांगता के बारे में यहां के स्थानीय निवासी 

फारूक (39) कहते हैं कि-‘‘मेरे घर के पास ही मस्जिद है लेकिन विकलांग होने के कारण मैं नमाज़ पढ़ने के लिए नहीं जा सकता। मैं पांच साल की उम्र में भी इस बीमारी का षिकार हो गया था। मैंने किसी तरह पांचवी की परीक्षा तो हासिल कर ली थी लेकिन मैं इस बीमारी के चलते आगे की पढ़ाई हासिल नहीं कर पाया। इस हालत में बड़ी मुष्किल से मैं सिलाई कर अपना गुज़ारा करता हंू।’’ 

एक लंबे से विकलांगता का दंष झेल रहे अब्दुल बाकी (70) का कहना है कि- ‘‘ विकलांगता की वजह से मुझे बहुत परेषानी का सामना करना पड़ता है। अगर मेरे पास स्कूटर होता तो मैं बाज़ार जाकर भीख मांगकर अपना गुज़ारा कर सकता था।’’ इसी गांव के रहने वाले इस्हाक कहते हैं कि-‘‘मेरे दोनों पैर विकलांगता का षिकार हैं। मैंने किसी तरह दसवीं की परीक्षा तो पास कर ली। लेकिन विकलांगता की वजह से मैं आगे की पढ़ाई नहीं कर सका।’’ एक टांग से विकलांग नसीम (23) कहती हैं कि-‘‘मैं किसी तरह रोटिया ंतो बना लेती हंू लेकिन किसी दूसरे को आटा और दूसरी चीज़े पास में रखनी पड़ती हैं।’’ अपने घर की चारपाई पर पड़ी हुई षहनाज़ (26) दूसरों की बातें सुनती रहती हैं मगर बोलती बहुत कम हैं। षहनाज़ पांच साल की उम्र में ही इस बीमारी का षिकार हो गयी थीं। किसी तरह उसने तीसरी कक्षा तक षिक्षा हासिल की है। कुछ इसी तरह की कहानी है अड़ाई मलकां की है जो एक लंबे अर्से से विकालांग का दंष झेल रहा है। गौरतलब है कि अकेले इस पंचायत में 26 लोग अपंग हैं। यह लोग अपने घर से अंदर बाहर जाने में भी दूसरे लोगों पर निर्भर हैं। इनमें से जब कोई बीमार हो जाता है तो यह लोग 4 सौ रूपये मज़दूर को मज़दूरी देकर डाक्टर के पास जाते हैं। इन लोगों को सरकार की ओर से 4 सौ रूपये मासिक पेंषन के मिलते हैं जो इन्हें कई महीने बाद जाकर मिलते हैं। ऐसे में आप समझ सकते हैं कि महंगाई के इस दौर में 4 सौ रूपये से इनका कितना भला होता होगा। राज्य समाज कल्याण विभाग इन लोगों की ओर काफी ध्यान दे रहा है और विकलांग लोगों के लिए सरकार की बहुत सारी योजनाएं भी चल रही हैं। लेकिन बहुत ज़्यादा औपचारिकताओं के चलते इनका फायदा इन लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा हैै। विकलांग व्यक्ति जो बहुत ज़्यादा औपचारिकताएं पूरी नहीं कर सकता इन योजनाओं के लाभ से वंचित होता जा रहा है। 
           
लेखक जब अपने एक साथी के साथ इन विकलांगों से मिला और उनसे बात कर रहा था तो इनके चेहरों पर इतना आत्मविष्वास था जितना एक स्वस्थ आम इंसान के चेहरे पर होता है। जब इन लोगों ने हमें अपनी परेषानियां दिल खोलकर बतायीं तो इनकी परेषानियां सुनकर दिल हमें लगा कि भगवान ने हमें कितने अच्छे हालत में रखा है। मोहम्मद असलम जो 90 प्रतिषत विकलांग हैं और बैठकर अपने आप को घसीटते हुए चलते हैं, उनको देखकर दिल में एक दर्द सा उठता है। पाठक को इस बात का अंदाज़ा लगाना ज़रा भी मुष्किल नहीं हो रहा होगा कि जिस व्यक्ति की उम्र (30)  साल हो जब वह अपने आप को एक नवजात बच्चे की तरह घसीटते हुए चले तो उस पर क्या गुज़रती होगी? मोहम्मद असलम की तरह इस क्षेत्र के दूसरे विकलांग लोग षौचालय जाने के अलावा और दूसरे काम किस तरह करते होंगे? सरकार की ओर से आज तक इन लोगों किसी तरह की कोई खास मदद नहीं मिली है। इन लोगों में से ज़्यादातर के घरों में षौचालय की कोई भी विषेश सुविधा नहीं हैं। ऐसे में आप अंदाज़ा लगा सकते हैं कि सर्दी, गर्मी, बरसात और बर्फबारी के दिनों में यह लोग अपनी ज़रूरत के लिए किस तरह बाहर निकलते होंगे। खासकर इस मामले में हमारी सरकार और देष के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी काफी गंभीर हैं और उन्होंने स्वच्छ भारत जैसी योजनाएं भी षुरू की हैं। जम्मू एवं कष्मीर में विधान सभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री जी ने रैली को संबोधित करते हुए कहा था कि-‘‘ आप हमें पूर्ण बहुमत दीजिए, मैं आपको संपूर्ण विकास दूंगा। आज़ादी से आज तक जितना विकास नहीं हुआ उतना मैं पांच सालों में करके दिखाऊंगा।’’ राज्य में पीडीपी और बीजेपी की मिली जुली सरकार है। ऐसे में क्या प्रधानमंत्री के द्वारा पुंछ की जनता से किए गए वादे पूरे हो पाएंगे? क्या इन विकलांग लोगों को षौचालय की सुविधा नसीब हो पाएगी? इन लोगों के घरोें में षौचालय की सुविधा न होने की वजह से इन्हें रात के अंधेरे का इंतेज़ार का करना पड़ता है।
             
ऐसे में आप समझ सकते हैं कि इन विकलांगों को अंधेरे में षौच करने के लिए जाने के लिए कितनी परेषानियों का सामना करना पड़ता होगा। इन बेचारों को तो रोषनी की भी ज़रूरत है। अगर अंधेरे में घर से बाहर निकलेंगे तो पहाड़ी इलाके होने की वजह से गिर भी सकते हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए एक जागरूक अभियान भी चलाया गया है। सरकारी और गैर सरकारी संगठनों के द्वारा बैनर लगाकर जनता को जागरूक करने के लिए उन पर यह लिखा हुआ है ‘‘ औरत का पर्दा हर घर में हो बैतुलखुला (षौचालय)।’’ लिहाज़ा सरकार को इस ओर ध्यान देने की ज़रूरत है कि विकलांग लोगों के साथ-साथ दूसरे लोगों को भी यह समस्या न झेलनी पड़े। सरकार की योजनाओं का फायदा इन लोगों तक पहुंचाया जाए जो सच में इसके हक़दार हैं। इसके अलावा इन लोगों को कोई हैंडीक्राफ्ट सेंटर भी दिया जाए ताकि यह हाथ से काम कर अपना जीविकोपार्जन कर सकेें। 







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अनीस उल हक़
(चरखा फीचर्स)

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