समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह के साथ यह पहली बार है कि परिवार के कारण पार्टी में वे निर्णायक प्रभाव खोते नजर आ रहे हैं। जनता दल के महाविलय में परिवार द्वारा रोड़ा अटकाए जाने से न केवल उनके राजनीतिक फैसले को अपमानित किया गया है बल्कि उनकी निजी महत्वाकांक्षा को चोट पहुंचाने में भी सब्र नहीं रखा गया। यह दूसरी बात है कि न उगलते बने न निगलते बने की हालत होने की वजह से मुलायम सिंह को महाविलय के संबंध में अपनी ही घोषणा से मुकरने को मजबूर होना पड़ रहा है।
जनता दल के युग में मुलायम सिंह ने पहली बार मुख्यमंत्री बनने के तत्काल बाद ही राष्ट्रीय नेतृत्व में स्थापित होने के सपने देखने शुरू कर दिए थे। परिस्थितियां कुछ ऐसी बनी जिनके कारण उन्हें अधीर हो जाना पड़ा। वीपी सिंह राजनीतिक संस्कृति में सुधार के एजेंडे पर काम करते हुए एक व्यक्ति एक पद, सरकार और पार्टी दोनों स्तरों पर सत्ता के विकेेंद्रीयकरण, कानून के शासन व स्वच्छ चुनाव प्रणाली जैसे मुद्दों को आगे बढ़ा रहे थे। दूसरी ओर फासिस्ट राजनीति के प्रतिरूप के रूप में विकसित हुई लोकदल संस्कृति का हिस्सा होने के कारण मुलायम सिंह अपने सर्व सत्तावाद में वीपी सिंह को खतरा मानते हुए पहले दिन से ही उनके खिलाफ षड्यंत्रकारी व्यूह रचना में जुट पड़े थे। राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद मुद्दे के शांतिपूर्ण समाधान के लिए वीपी सिंह ने जो कूटनीतिक बिसात बिछाई उसे पलटने की गरज से मुलायम सिंह ने उत्तर प्रदेश में जिलों जिलों में उनकी सरकार को अपनी वैशाखी दे रही भाजपा के खिलाफ सद्भावना रैली के नाम से अभियान छेड़ दिया। इन रैलियों में भीड़ जुटाने के लिए सरकारी तंत्र का जमकर इस्तेमाल होता था। वाशिंगटन पोस्ट ने रैलियों में जुटने वाली भीड़ से प्रभावित होकर एक खबर छाप दी जिसमें मुलायम सिंह को देश का भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया गया। दुनिया के सबसे शक्तिशाली अखबार की इस तरह की धारणा ने मुलायम सिंह की अचेतन महत्वाकांक्षा में तीव्र उद्दीपन पैदा कर दिया जिससे वे अपने आपे में नहीं रह गए तब से उनके गृह जनपद की चर्चित नदी चंबल में बहुत पानी बह चुका है लेकिन उक्त महत्वाकांक्षा का प्रेत आज तक उन्हें राजनीति के बियावान में भटकते हुए विचरने को मजबूर बनाए हुए है। संयुक्त मोर्चा युग में उनकी यह साध पूरी हो जाती लेकिन अब उनके रिश्तेदार बन चुके लालू यादव ने तब तंगड़ी मारकर ऐन मौके पर उनका खेल खराब कर दिया। सोलहवीं लोकसभा के चुनाव के समय वे एक बार फिर आश्वस्त थे कि लोकसभा का स्वरूप अनिश्चित होगा जिससे खिचड़ी सरकार बनेगी और देवगौड़ा व गुजराल की तरह भाजपा को रोकने के नाम पर कांग्रेस भी उन्हें ताज पहनाने के लिए मजबूर दिखेगी लेकिन सारी अटकलें मोदी मैजिक के आगे गलत साबित होकर रह गईं। यही नहीं मोदी की लोकप्रियता के प्रतिशत में भले ही उतार-चढ़ाव होता रहे लेकिन वर्तमान परिस्थितियां जिस तरह की हैं उसमें यह साफ दिख रहा है कि वे न केवल यह कार्यकाल पूरा करेंगे बल्कि उनके एक और कार्यकाल की पुनरावृत्ति भी तय है।
प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं पर विराम लग जाने के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति के और क्षितिज हैं जिन्हें मुलायम सिंह अपने सामने से ओझल नहीं होने देना चाहते क्योंकि उन्हें मालूम है कि अपनी कालजयी मान्यता के लिए उन्हें राष्ट्रीय नेता के रूप में अपने को इतिहास में दर्ज कराना अनिवार्य है। लालू से रिश्तेदारी जुड़ जाने की वजह से इस दिशा में पींगें बढ़ाते हुए उन्होंने जनता दल परिवार के महाविलय की रचना रची थी। इसे कांग्रेस से बड़ा मंच बनाकर प्रतिपक्ष के नेता का दर्जा हासिल करने का मंसूबा उन्होंने बांध रखा था। साथ ही प्रधानमंत्री नहीं तो राष्ट्रपति या उप राष्ट्रपति पद की दावेदारी पर वे अपनी एक खिड़की खोलने का दांव भी खेल रहे थे। दिल्ली में जनता दल परिवार के सारे दलों के साथ बैठक करके जब वे लखनऊ में लौटे तभी परिवार के लोगों ने इस पहल के विरुद्ध माहौल उकसाना शुरू कर दिया था। पार्टी की बैठक में इसी कारण उनके फैसले पर खुलेआम सवाल उठा दिए गए। बगावती माहौल का आभास पाकर सपा सुप्रीमो उस समय चौंक पड़े थे लेकिन तो भी आत्मविश्वास के कारण चेतावनी देने के लहजे में उन्होंने यह कहकर सभी को चुप कराने की कोशिश की कि जनता दल परिवार के महाविलय का फैसला अंतिम है। मुलायम सिंह को उम्मीद थी कि इस मामले में उनकी दृढ़ प्रतिबद्धता जानने के बाद अब कोई इस पर आपत्ति करने की जुर्रत नहीं करेगा लेकिन उन्हें यह मालूम नहीं था कि परिवार के समीकरण के कारण पार्टी में उनकी हैसियत कितनी बदल चुकी है।
जनता दल परिवार के महाविलय से मुलायम सिंह ने अपने अरमान जोड़ रखे हैं लेकिन अब उनके नहीं उनके चचेरे भाई प्रो. रामगोपाल यादव के अरमान पार्टी के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण बन चुके हैं जिनके साथ खुलेआम उनके पुत्र अखिलेश यादव भी खड़े हैं। महाविलय को मूर्तरूप मिलते ही राज्य सभा में सपा संसदीय दल के नेता का रामगोपाल का पद समाप्त हो जाता और जदयू के अध्यक्ष शरद यादव नए दल के सदन में नेता बन जाते। रामगोपाल यादव को यह मंजूर नहीं हुआ जिसकी वजह से उन्होंने खुलेआम यह बयान दे दिया कि फिलहाल विधान सभा चुनाव के पहले महाविलय के आकार लेने की कोई सूरत नहीं है। हैरत करने वाली बात यह रही कि उनकी हिमाकत से उखड़ पडऩे की बजाय मुलायम सिंह को अपनी बोलती बंद करनी पड़ी।
राष्ट्रीय राजनीति में असरदार ढंग से खेल खेलने के लिए ही मुलायम सिंह एक बार फिर अमर सिंह के साथ भरत मिलाप का विधान तैयार कर रहे थे। सैफई परिवार में इस समय एक तरफ प्रो. रामगोपाल और अखिलेश हैं तो दूसरी तरफ मुलायम सिंह और उनके सगे अनुज शिवपाल सिंह हैं। भैया की दम होने की वजह से ही शिवपाल सिंह ने मीडिया के सामने अमर सिंह की वापसी का संकेत देते हुए कहा था कि वे सपा में आने के अपने कदम के बारे में खुद पत्रकार वार्ता आयोजित करके आप लोगों को जानकारी देंगे लेकिन सपा सुप्रीमो की असहायता का आलम यह है कि अपनी और अपने अनुज की लाज बचाने के लिए वे कुछ नहीं कर पा रहे। उनकी आंखों के सामने ही रामगोपाल ने अमर सिंह की वापसी का आयडिया ड्राप करवा दिया और जयाप्रदा को विधान परिषद में नामित न होने देकर इसका अव्यक्त एलान कर दिया। पार्टी की इन हलचलों में यह संदेश स्पष्ट है कि मुलायम सिंह को पार्टी में केवल उत्सव मूर्ति बनकर संतुष्ट रहना चाहिए। अब उनके पार्टी पर अपने निर्णय थोपने के दिन लद चुके हैं।
के पी सिंह
ओरई
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