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शुक्रवार, 22 मई 2015

विशेष आलेख : कब होगा शिक्षा का उद्धार ???

हमारे समाज में लड़कियों के भेदभाव की कहानी कोई नई नहीं है। लड़कियों के साथ भेदभाव समाज में हर स्तर पर विद्यमान है। वास्तव में लड़कियों के साथ भेदभाव तो मां के गर्भ से ही षुरू हो जाता है। आज भी समाज में ऐसे लोगों की एक बड़ी संख्या है जो जन्म से पहले यह जानना चाहते हैं कि मां जिस बच्चे को जन्म देने वाली है, वह बेटा है या बेटी। अगर बेटी होती है तो उसे इस दुनिया में आने से पहले ही मां के गर्भ में खत्म कर दिया जाता है। अगर बेटी धोखे से जन्म भी ले लेती है तो बेटे के मुकाबले उसे हर स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। परिवार में अक्सर ऐसा देखने को मिलता है कि लड़की को खेलने के लिए गुडि़या, गैस, चूल्हा और बर्तन आदि खिलौने दिए जाते हैं जबकि लड़के को गाड़ी, हवाई जहाज और बंदूक आदि दिए जाते हंै। बहन जब भाई के खिलौनों से अपने खिलौनों की तुलना करती है तो सोचती है कि भाई के खिलौने कितने बड़े और अच्छे है जबकि मेरे खिलौने इस तरह के नही, ंतो वह मानसिक तौर पर कमज़ोर हो जाती है। इसकी वजह से उसके अंदर एक सौतेले व्यवहार की भावना जाग्रत होने लगती हैं। 

यह बात वह कह नहीं सकती लेकिन इस घुटन को वह हर पल महसूस करती है। घर में लड़की के साथ भेदभाव उस समय भी होता है जब वह स्कूल जाने के काबिल हो जाती है। लड़के के लिए माता-पिता अच्छे स्कूल का चयन करते हैं जबकि लड़की के लिए नहीं। लड़के को आधुनिक प्रौद्योगिकी से रूबरू होता है जबकि लड़की घर के बर्तन और साफ सफाई से। इस तरह के भेदभाव का सामना आज भी हमारे समाज में लड़कियों को करना पड़ता है। लड़कियों को बड़े होकर वही चूल्हा, बर्तन और घर का काम करना पड़ता है जबकि लड़को का काम हवाई जहाज़ की उड़ान भरना, देष की सुरक्षा, घूमना-फिरना आदि ज़्यादातर लड़कों के हिस्से में ही होता है। माता-पिता के ज़रिए बचपन में किया गया भेदभाव सही मायनों में इनकी जिंदगी तय कर देता है। जब तक समाज में बेटा और बेटी को समान निगाह से नहीं देखा जाएगा तब तक बेटियां चैन की सांस नहीं ले सकेंगी।
             
बेटी वह होती है जो सबकी भावनाओं का आदर करती है। वह घर में सभी सदस्यों से प्यार करती है और सभी को आदर की निगाह से देखती है। माता-पिता और भाई-बहन सभी को दर्द को महसूस करती है। देष के दूसरे हिस्सों की तरह जम्मू एवं कष्मीर में लड़कों के मुकाबले लड़कियों को हर स्तर पर भेदभाव का सामना करना पड़ता है। जम्मू कष्मीर के सीमावर्ती जि़ले पुंछ की तहसील मेंढ़र के छतराल गांव में बहुत सारी ऐसी लड़कियां हैं जो दसवीं और बारहवीं कक्षा पास करने के बाद पढ़ाई छोड़ दी है। यह लड़कियां समाज में फैली कुरूतियों और घरेलू समस्याओं के कारण अपनी आगे की पढ़ाई करने में सक्षम नहीं हैं। इन लड़कियों में षहरी, ताजि़म, बबली, नाज़मा, मुसर्रत, षमिदा, आसिया कौसर और आसिया जाट आदि षमिल हैं। यह सभी लड़कियां पढ़ने की इच्छुक हैं मगर कई परेषानियों की वजह से इनके सपने अधूरे रह गए हैं। एक ऐसी ही कहानी षहरी की है जिसके अंदर पढ़-लिखकर देष के लिए कुछ करने का जज़्बा है। मगर कई मजबूरियां ऐसी हैं जो इसके रास्ते की रूकावट बनी हुई हैं। इसका कहना है कि-‘‘मेरे पिता दो साल पहले पैसा कमाने के लिए सऊदी अरब गए थे। वहां एक सड़क दुर्घटना में वह विकलांग हो गए। मेरे दो भाई हैं, दोनों ने इस साल बारहवीं की परीक्षा दी है। वह दोनों पढ़ाई करते हैं लेकिन इतवार वाले दिन मज़दूरी करके अपना और घर का खर्चा चलाते हैं। हमारे घर की आर्थिक स्थिति बहुत कमज़ोर है। 

मेरी पढ़ाई बीच में ही छूट गई है। मैं अपनी पढ़ाई को लेकर बहुत चिंतित हंू। मुझे अपने भविश्य को लेकर चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा नज़र आता है। मैं सोचती हंू कि अगर मेरी षादी हो गई तो मेरे ससुराल में सब पढ़े लिखे होंगे। सब कर्मचारी होंगे, सब मैं बस मैं ही अषिक्षित होंगी। उस समय मैं कैसा महसूस करूंगी और मेरे दिलोदिमाग पर किया गुज़रेगी, यह सोचकर मैं अभी से परेषान हंू। अगर मैं पढ़ लिख कर एक षिक्षित महिला हो गई तो मुझे भी फैसले लेने का अधिकार होगा जिससे ससुराल में मेरा एक अलग महत्व होगा। दूसरा़ उदाहरण पुंछ जि़ला मुख्यालय से दस किलोमीटर की दूरी पर स्थिति खनेतर गांव का है। खनेतर गांव में हायर सेकेंडरी स्कूल न होने के कारण छात्राएं दसवीं के बाद अपनी पढ़ाई छोड़ देती हैं। 11 वीं या उससे आगे की पढ़ाई के लिए यहां की छात्राओं को पुंछ सिटी या फिर चंडक जाना पड़ता है। स्कूल दूर की वजह से यहां लोग अपनी बेटियों की पढ़ाई बीच में ही छुड़वा देते हैं जबकि लड़के कहीं भी पढ़ने जा सकते हैं। 
             
मेंढ़र तहसील के नाड़बलनोई से केवल सफीना नाम की लड़की ही बारहवहीं कक्षा तक पहुंची है जिसने इस साल बारहवीं की परीक्षा दी है। वह इस क्षेत्र की पहली और अकेली छात्रा है जो 12 वीं कक्षा तक पहुंची है। हिंद-पाक सरहद पर आबाद गांव किरनी से सिर्फ दो ही लोगों ने स्नातक या उससे आगे की पढ़ाई की है। अगर सीमावर्ती गांव सलोतरी की बात की जाए तो यहां छात्राएं आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ देती हैं क्योंकि हाईस्कूल दूरी  पर है। गाडि़या न होने की वजह से छात्राएं स्कूल नहीं जा सकतीं।  उपयुक्त उदाहरणों से आप समझ सकते हैं कि हमारे देष के सीमावर्ती क्षेत्रों में बालिका षिक्षा की स्थिति कितनी दयनीय है। प्रधानमंत्री के ज़रिए दिया गया नारा ‘‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’’ तो बुलंद किया जा रहा है। बावजूद इसके देष के सीमावर्ती और दूरदराज़ क्ष़्ोत्रों में बालिका षिक्षा अत्यंत दयनीय स्थिति में हैं। सीमावर्ती और दूरदराज़ क्षेत्रों में षिक्षा की दयनीय स्थिति को बेहतर बनाने के लिए हमें कदम उठानें होगें तभी हम प्रधानमंत्री के ज़रिए दिए गए नारे ‘‘ सबका साथ, सबका विकास’’ की परिकल्पना को पूरा कर पाएंगे।   






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आसिफा फिरदौस
(चरखा फीचर्स)

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