विशेष आलेख : आईएसआईएस की विलक्षण मोटीवेशन पावर - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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शनिवार, 11 जुलाई 2015

विशेष आलेख : आईएसआईएस की विलक्षण मोटीवेशन पावर

कश्मीर में दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकवादी संगठन आईएसआईएस अपनी पैठ जमाने लगा है। घाटी में हाल के भारत विरोधी प्रदर्शनों के दौरान कई नौजवानों के हाथ में आईएसआईएस का झंडा देखा गया। कश्मीर की आजादी हासिल करने के लिए वहां शुरूआत से दो तरीकों से काम हुआ। एक तो राजनीतिक आंदोलनों और प्रक्रियाओं के सहारे और दूसरे आतंकवादी तौरतरीकों का इस्तेमाल करके लेकिन खास बात यह रही कि खालिस कश्मीरियों के आतंकवादियों में मजहबी उन्माद नहीं था। वे आजाद कश्मीर बनने पर पंडितों को भी पूरी सुरक्षा और सम्मान के साथ जीने का अवसर देने की बात करते थे। उनका जोर कश्मीरी राष्ट्रीयता पर था इसीलिए शुरूआत में कश्मीर में सक्रिय आतंकवादी तनजीमों की दो श्रेणियां भारतीय खुफिया एजेंसियों ने बना रखी थीं। दूसरी श्रेणी में पाकिस्तान के द्वारा निर्यात किए जाने वाले बाहरी देशों के लश्करे तैयबा जैसे आतंकी संगठन थे जो कि गैर धर्मावलंबियों के प्रति नफरत फैलाने और उन पर मानवता को शर्मसार करने वाले जुल्म ढहाने के लिए बदनाम थे लेकिन अब आतंकवादी मिजाज के कश्मीरी नौजवानों का चिंतन और चरित्र बदला है।

जम्मू कश्मीर में कमान संभाले भारतीय सेना की पंद्रहवीं कोर के जीओसी लेफ्टिनेंट जनरल सुब्रत साहा ने एक समाचार एजेंसी को साक्षात्कार में इस चीज को नोटिस किया। उन्होंने एक खास बात यह कही कि आईएसआईएस में मुस्लिम नौजवानों को प्रभावित करने की विलक्षण क्षमता है। वे दुनिया के हर कोने में मुसलमान नौजवानों को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हो रहे हैं। हैरत की बात यह है कि उनके तौरतरीके बेहद पैशाचिक हैं। इसके बावजूद पढ़े लिखे नौजवान तक न केवल उनके मुरीद बन रहे हैं बल्कि अपना सारा कैरियर भूलकर उनके साथ दारुल इस्लाम की स्थापना के लिए लडऩे को तैयार हो रहे हैं। अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए ने एक अलग से विश्लेषक और शोध विंग बनाई है जो उन मनोवैज्ञानिक व भौतिक कारणों का अन्वेषण करने में लगी है जिसकी वजह से आईएसआई मुसलमान नौजवानों पर तार्किकता से परे कमाल दिखाने में कामयाब है।

जो लोग ऐतिहासिक कारणों से पराजय बोध और प्रतिशोध की भावना से ग्रस्त होने के कारण मुसलमानों के लिए पूर्वाग्रह रखते हैं उनके लिए यह कहना आसान है कि इस्लाम की विचाराधारा की जड़ में ही कट्टरता और हिंसा समाई हुई है जबकि इस्लाम का पैगाम मुहम्मद साहब ने युद्ध लोलुपता में घिरे अरब समाज को अमन के रास्ते पर ले जाने के लिए दिया था। उन्हें स्वयं को भी युद्ध करना पड़ा लेकिन वे उस युद्ध में हमलावर नहीं थे। उन्होंने यह रास्ता तब चुना जब उनके पैगाम को फैलाने में ही नहीं उनकी जिंदगी तक में रुकावट डालने की कोशिश की गई। दुनिया के कई धर्मों में अवतारी पुरुष या देवदूतों ने दुष्टों से निपटने के लिए युद्ध का सहारा लिया तो मुहम्मद साहब के द्वारा ऐसा करना नई बात नहीं है। इसके अलावा इस्लाम की विचारधारा से ही सूफी पंथ का प्रादुर्भाव हुआ जिसमें प्रेम और अपने को न्यौछावर करने की हद तक समर्पण करने के अलावा कोई गुंजायश नहीं है जिसमें नफरत और खूनखराबे के लिए कोई जगह नजर नहीं आती। जाहिर है कि दोष इस्लामी विचारधारा में नहीं है बल्कि इस्लामी जगत में इस समय रक्तपात का जो उन्माद नजर आ रहा है उसकी वजह कुछ दूसरी ही हैं। यह उन्माद गैर इस्लामिक समुदायों पर उतना भारी नहीं पड़ रहा जितना मुसलमानों पर पड़ रहा है। आखिर यह कौन तय करेगा कि शिया फिरका सही है या सुन्नी। बरेलवी मसलक के मौलानाओं की नसीहत सही हैं या देवबंदी मौलनाओं की। जब सारे मुसलमान एक अल्लाह को, एक कुरान को, पांच फर्ज की अनिवार्यता को और अंतिम पैगंबर के रूप में मुहम्मद साहब को तसलीम करते हैं तो दारूल इस्लाम की स्थापना का दावा करने वाले शख्स या तनजीमें दूसरे फिरके के मस्जिदों यानी अल्लाह के घर में नमाज पढ़ते मुसलमानों को कत्ल करने की जुर्रत कैसे कर सकते हैं। इस सिलसिले का तो कोई अंत ही नहीं है। आसमानी किताब एक है लेकिन जितने आलिम उस पर टीका करेंगे उतनों की बात जुदा-जुदा हो जाएगी। इससे तो एक ही फिरके के बीच में भी खूनखराबे के आसार पैदा होने की नौबत बनी रहेगी और यह भस्मासुरी उन्माद तो सारी मुस्लिम कौम को ही बलि चढ़ाने का कारण बन जाएगा।

इस कारण इस्लामी जगत में जो उन्माद व्यापा है उसकी बहुत तटस्थ भाव से पड़ताल होनी चाहिए। सही बात तो यह है कि धर्म का अवलंब न हो तब भी दुनिया के हर कोने में नौजवानों का एक तबका अपने उद्देश्य को हासिल करने के लिए खूनखराबे का सहारा लेता नजर आता। जब तक इस्लामिक आतंकवाद ने सिर नहीं उठाया था तब तक माक्र्सवाद से प्रेरित सशस्त्र वर्ग संघर्ष दुनिया के विभिन्न हिस्सों में छिड़े हुए थे और इससे जुड़े नेता भी आतंकवादी करार दिए जा रहे थे। दरअसल हर सभ्यता में अंतर्विरोधों का भंवर पैदा होना मानवीय प्रगति के अपरिहार्य आयाम की तरह है। सामंतवाद और पूंजीवाद दोनों का आरंभ एक प्रगतिशील परिघटना के रूप में हुआ था लेकिन बाद में दोनों ही विभीषिका बन गए। ऐसे हालात में बाजारवाद ने अवतार के रूप में जन्म लिया। पूंजीवाद ने व्यापक जनता को सर्वहारा बनाया था। बाजारवाद ने सर्वहारा को वंचनाओं की दारुण स्थिति से उबारने में भूमिका अदा की ताकि ज्यादा से ज्यादा आबादी अतिरिक्त आय में सक्षम बन सके। अगर अतिरिक्त आय नहीं होगी तो उपभोक्ता नहीं बढ़ेंगे और उपभोक्ताओं की संख्या स्थिर रहने पर बाजार में बहुत जल्द ही संतृप्तिकरण का दौर आ जाएगा जिससे बाजार का वजूद ही मिट जाएगा। इसे दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि बाजारवाद आया तो हर आदमी की गरीबी दूर करना उसका उद्देश्य था लेकिन बाजारवाद के पूरी तरह पुष्पित और पल्लवित होने के बाद वह अब मानवता के लिए नए खतरे का रूप ले चुका है। कारपोरेट मुगलों के बीच व्यापारिक साम्राज्य बढ़ाने की प्रतिस्पद्र्धा ने इसे पूरी तरह पतनोन्मुखी बना दिया है।

बहुत से लोग सोचते हैं कि आध्यात्मिक और नैतिक चेतना सिर्फ मानवीय मस्तिष्क का वैचारिक उत्पादन है लेकिन यह उनकी गलतफहमी है। बदलती भौतिक परिस्थितियों के सापेक्ष नैतिक मान्यताएं बदलती रहती हैं क्योंकि वे मानवीय मस्तिष्क का उत्पाद हैं लेकिन आध्यात्मिक चेतना जो कि किसी भी कालखंड की नैतिक व्यवस्था का स्रोत है वह मौलिक रूप से मानवीय प्रकृति है। इसी कारण युवा जब तक दुनियादार नहीं हो जाते तब तक आध्यात्मिक प्रेरणाएं उन्हें आदर्शवादी रुझानों की ओर ले जाती हैं। पतनोन्मुखी बाजार व्यवस्था अचेतन रूप से युवा तबकों में आक्रोश और विद्रोह का बीजारोपण कर रहे हैं। बाजारवाद हर तरह के संयम और पाबंदी के विरुद्ध लोगों को उकसाता है क्योंकि इसे जीवनशैली के उत्थान का नाम देकर ही वह उत्पादों को ज्यादा से ज्यादा खपा सकता है। दूसरी ओर संयम का अभ्यास मौलिक आध्यात्मिक चेतना की अनिवार्य परिणति है। बाजारवाद कहता है कि व्यापार में सबकुछ जायज है। अगर लोगों की जिंदगी की कीमत पर भी ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है तो कारपोरेट मुगलों को ऐसा करने में कोई एतराज नहीं है लेकिन आध्यात्मिक चेतना कहती है कि व्यापार हो या जीवन का कोई और क्षेत्र ईमान सभी में जरूरी है।

इस परिवेश के चलते एक अदृश्य जद्दोजहद में सारी दुनिया फंसी नजर आ रही है। उन धार्मिक समाजों में जहां ढुलमुल व्यवस्था है अटपटा महसूस होने के बावजूद भी बाजारवादी उच्छृंखलता को झटकने की तीखी भावना पैदा होने में काफी विलंब लगेगा लेकिन ऐसे धार्मिक समाज जिनकी प्रक्रियाएं आध्यात्मिक चेतना को बहुत प्रखर बनाती हैं उनकी कट्टर प्रतिबद्धताएं विस्फोटक हो सकती हैं और उन्हें सकारात्मक दिशा देने के प्रयास का अभाव हो बल्कि उनकी प्रतिबद्धताओं को गलत दिशा देने के लिए निहित स्वार्थों द्वारा दुष्प्रेरण किया गया हो तो दुनिया के लिए बेहद खतरनाक स्थितियां बन जाना लाजिमी है। किसी को फिदाइन बनाना इतना आसान नहीं है। हो सकता है कि कुछ पैदायशी सिरफिरे लोग हों जो इस तरह का रास्ता अपना लें लेकिन जब व्यापक रूप में कोई तनजीम इस तरह की क्षमता का प्रदर्शन कर रही हो तो देखना पड़ेगा कि उसके मोटिवेशन में क्या ऐसी खास बात है। हमारे यहां तमाम बड़े महान संत हुए जिन्होंने अध्यात्म के शिखर को छूने के लिए घर फूंक तमाशा देखने को निमंत्रित किया और लोगों ने उनके इस अंदाज को बहुत श्रद्धा से नवाजा पर वे लोग वास्तविक रूप से बहुत लोगों को इसके लिए तैयार नहीं कर पाए।

कार्य और करण के सिद्धांत के आधार पर बाजारवादी विकृतियों का संदर्भ लेकर इस्लामी आतंकवाद की नब्ज कुछ कुछ हम पकड़ सकते हैं। यह नब्ज कहती है कि न केवल इस्लामी जगत को बल्कि पूरी दुनिया को अब तकनीकी और आर्थिक विशेषज्ञों की रहनुमाई नहीं चाहिए बल्कि ऐसे धार्मिक नेता चाहिए जो संप्रदाय और पंथ की सीमाओं से ऊपर उठकर सारे विश्व को संबोधित कर सकेें और लोगों की शंकालु हो चुकी नैसर्गिक आध्यात्मिक चेतना को ऐसा संबल प्रदान कर सकेें जिससे वे उस चेतना को चोटिल करने वाली संस्कृति और व्यवस्थाओं के सक्षम प्रतिकार के लिए सिद्ध मंत्र हासिल कर पाएं। इस्लामी जगत की बौखलाई युवा चेतना भी इस तरह के आध्यात्मिक आप्लावन के बाद निश्चित रूप से एक सही किनारे पर ठहर जाएगी।




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के  पी  सिंह 
ओरई 

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