भगवान जगन्नाथ रथयात्रा: छूने मात्र से मिल जाती है जीवन मरण के चक्र से मुक्ति - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

Breaking

प्रबिसि नगर कीजै सब काजा । हृदय राखि कौशलपुर राजा।। -- मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवहु सुदसरथ अजिर बिहारी ।। -- सब नर करहिं परस्पर प्रीति । चलहिं स्वधर्म निरत श्रुतिनीति ।। -- तेहि अवसर सुनि शिव धनु भंगा । आयउ भृगुकुल कमल पतंगा।। -- राजिव नयन धरैधनु सायक । भगत विपत्ति भंजनु सुखदायक।। -- अनुचित बहुत कहेउं अग्याता । छमहु क्षमा मंदिर दोउ भ्राता।। -- हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता। कहहि सुनहि बहुविधि सब संता। -- साधक नाम जपहिं लय लाएं। होहिं सिद्ध अनिमादिक पाएं।। -- अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के । कामद धन दारिद्र दवारिके।।


मंगलवार, 21 जुलाई 2015

भगवान जगन्नाथ रथयात्रा: छूने मात्र से मिल जाती है जीवन मरण के चक्र से मुक्ति

जी हां, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा को जिसने हाथ लगा दिया, उसे जीवन मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। छूने मात्र से मिल जायेगी जीवन मरण के चक्र से मुक्ति। जी हां, भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा को जिसने हाथ लगा दिया, उसे जीवन मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाती है। आषाढ मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को जगन्नाथ पुरी की रथ यात्रा का शुभारंभ होता है। उड़ीसा, काशी, अहमदाबाद समेत देश के कोने-कोने मनाया जाने वाला यह सबसे भव्य पर्व होता है। जिसमें शामिल होने के लिए हर साल भारत ही दुनिया भर से लाखों श्रद्धालुओं का आना होता हैं। लोग भगवान जगन्नाथ के रथ को खींचकर स्वयं जीवन को धन्य मानते हैं। उड़ीसा में यह पर्व पूरे नौ दिन तक जोश एवं उत्साह के साथ मनाया जाता है। इस बार यह रथयात्रा 18 जुलाई, शनिवार से शुरू होगी। खास बात यह है कि इस बार निकाली जाने वाली रथयात्रा विशेष होगी। क्योंकि 19 साल बाद भगवान जगन्नाथ मंदिर की सारी प्रतिमाएं (भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा) बदल दी गई हैं 

jagannath-rath-yatra
भगवान जगन्नाथ जी की मूर्ति को उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की छोटी मूर्तियों को रथ में ले जाया जाता है और धूम-धाम से इस रथ यात्रा का आरंभ होता है। सागर तट पर बसे पूरी शहर में आयोजित होने वाली यह रथयात्रा उत्सव पूरे भारत में विख्यात है। उत्सव के समय आस्था का जो विराट वैभव देखने को मिलता है, वह और कहीं नहीं दुर्लभ है। जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा का पर्व आषाढ मास में मनाया जाता है। भगवान जगन्नाथ मंदिर से तीनों देवताओं के सजाये गये रथ खिंचते हुए दो किलोमीटर की दूरी पर स्थित गुंडिचा मंदिर तक ले जाते हैं और नवें दिन इन्हें वापस लाया जाता है। इस अवसर पर सुभद्रा, बलराम और भगवान श्री कृ्ष्ण का पूजन नौं दिनों तक किया जाता है। इन नौ दिनों में भगवान जगन्नाथ का गुणगान किया जाता है। मान्यता है कि इस स्थान पर आदि शंकराचार्य जी ने गोवर्धन पीठ स्थापित किया था। प्राचीन काल से ही पुरी संतों और महात्माओं के कारण अपना धार्मिक व आध्यात्मिक महत्व रखता है। अनेक संत-महात्माओं के मठ यहां देखे जा सकते है। जगन्नाथ पुरी के विषय में यह मान्यता है, कि त्रेता युग में रामेश्वर धाम पावनकारी अर्थात कल्याणकारी रहें, द्वापर युग में द्वारिका और कलियुग में जगन्नाथपुरी धाम ही कल्याणकारी है। पुरी भारत के प्रमुख चार धामों में से एक धाम है। भगवान श्रीकृष्ण के अवतार जगन्नाथ की रथयात्रा का पुण्य सौ यज्ञों के बराबर माना जाता है। कहा यह भी जाता है कि इस तीर्थ स्थान की यात्रा से कैलाश यात्रा का पुण्य मिलता है। इस बार की निकाली जाने वाली रथयात्रा विशेष होगी। क्योंकि 19 साल बाद भगवान जगन्नाथ मंदिर की सारी प्रतिमाएं (भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा) बदल दी गई हैं। अब इन नई प्रतिमाओं को ही रथ में विराजित कर यात्रा निकाली जाएगी। ये प्रतिमाएं अलग-अलग हिस्सों से लाए गए नीम के विशेष वृक्षों से तैयार की गई हैं।

jagannath-rath-yatra
कहा जाता है कि भारत के चार पवित्र धामों में से एक पुरी के 800 वर्ष पुराने मुख्य मंदिर में योगेश्वर श्रीकृष्ण जगन्नाथ के रूप में विराजते हैं। साथ ही यहाँ बलभद्र एवं सुभद्रा भी हैं। श्रीकृष्ण साक्षात भगवान विष्णु के अवतार हैं। अपने भक्तों को सन्देश देते हुए उन्होंने स्वयं कहा है-जहां सभी लोग मेरे नाम से प्रेरित हो एकत्रित होते हैं, मैं वहां पर विद्यमान होता हूं। यह भारत के ओडिशा राज्य के तटवर्ती शहर पुरी में स्थित है। जगन्नाथ शब्द का अर्थ जगत के स्वामी होता है। इनकी नगरी ही जगन्नाथपुरी या पुरी कहलाती है। जगन्नाथ मंदिर 4,00,000 वर्ग फुट में फैला है और चहारदीवारी से घिरा है। कलिंग शैली के मंदिर स्थापत्यकला, और शिल्प के आश्चर्यजनक प्रयोग से परिपूर्ण, यह मंदिर, भारत के भव्य स्मारक स्थलों में से एक है। मुख्य मंदिर वक्र रेखीय आकार का है, जिसके शिखर पर भगवान विष्णु का सुदर्शन चक्र मंडित है। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। मंदिर के भीतर आंतरिक गर्भगृह में मुख्य देवताओं की मूर्तियां स्थापित हैं। यह भाग इसे घेरे हुए अन्य भागों की अपेक्षा अधिक वर्चस्व वाला है। इससे लगे घेरदार मंदिर की पिरामिडाकार छत और लगे हुए मण्डप, अट्टालिका रूपी मुख्य मंदिर के निकट होते हुए ऊंचे होते गये हैं। यह एक पर्वत को घेरे हुए अन्य छोटे पहाडियों, फिर छोटे टीलों के समूह रूपी बना है। मुख्य भवन एक 20 फुट ऊंची दीवार से घिरा हुआ है तथा दूसरी दीवार मुख्य मंदिर को घेरती है। मंदिर के शिखर पर स्थित चक्र और ध्वज। चक्र सुदर्शन चक्र का प्रतीक है और लाल ध्वज भगवान जगन्नाथ इस मंदिर के भीतर हैं, इस का प्रतीक है। यह वैष्णव सम्प्रदाय का मंदिर है, जो भगवान विष्णु के अवतार श्री कृष्ण को समर्पित है। वर्तमान रथयात्रा में जगन्नाथ को दशावतारों के रूप में पूजा जाता है, उनमें विष्णु, कृष्ण और वामन और बुद्ध हैं। जगन्नाथ मंदिर में पूजा, आचार-व्यवहार, रीति-नीति और व्यवस्थाओं को शैव, वैष्णव, बौद्ध, जैन धर्मावलम्बियों ने भी प्रभावित किया है। रथ का रूप श्रद्धा के रस से परिपूर्ण होता है। वह चलते समय शब्द करता है। उसमें धूप और अगरबत्ती की सुगंध होती है। इसे भक्तजनों का पवित्र स्पर्श प्राप्त होता है। रथ का निर्माण बुद्धि, चित्त और अहंकार से होता है, ऐसे रथ रूपी शरीर में आत्मा रूपी भगवान जगन्नाथ विराजमान होते हैं। इस प्रकार रथयात्रा शरीर और आत्मा के मेल की ओर संकेत करता है और आत्मदृष्टि बनाए रखने की प्रेरणा देती है। रथयात्रा के समय रथ का संचालन आत्मा युक्त शरीर करता है जो जीवन यात्रा का प्रतीक है। यद्यपि शरीर में आत्मा होती है तो भी वह स्वयं संचालित नहीं होती, बल्कि उसे माया संचालित करती है। इसी प्रकार भगवान जगन्नाथ के विराजमान होने पर भी रथ स्वयं नहीं चलता बल्कि उसे खींचने के लिए लोक-शक्ति की आवश्यकता होती है। पौराणिक मान्यताओं में चारों धामों को एक युग का प्रतीक माना जाता है। इसी प्रकार कलियुग का पवित्र धाम जगन्नाथपुरी माना गया है। 

jagannath-rath-yatra
यात्रा के वक्त श्री भगवान जगन्नाथ जी का रथ 45 फुट ऊंचा होता है। रथ सबसे अंत में होता है, और भगवान जगन्नाथ क्योकि भगवान श्री कृ्ष्ण के अवतार है, अतंः उन्हें पीतांबर अर्थात पीले रंगों से सजाया जाता है। पुरी यात्रा की ये मूर्तियां भारत के अन्य देवी-देवताओं कि तरह नहीं होती है। रथ यात्रा में सबसे आगे भाई बलराम का रथ होता है, जिसकी उंचाई 44 फुट उंची रखी जाती है। यह रथ नीले रंग का प्रमुखता के साथ प्रयोग करते हुए सजाया जाता है। इसके बाद बहन सुभद्रा का रथ 43 फुट उंचा होता है। इस रथ को काले रंग का प्रयोग करते हुए सजाया जाता है। इस रथ को सुबह से ही सारे नगर के मुख्य मार्गों पर घुमा जाता है। और रथ मंद गति से आगे बढता है। सायंकाल में यह रथ मंदिर में पहुंचता है. और मूर्तियों को मंदिर में ले जाया जाता है। यात्रा के दूसरे दिन तीनों मूर्तियों को सात दिन तक यही मंदिर में रखा जाता है, जहां भगवान जगन्नाथ सात दिन तक आराम करते हैं और आषाढ़ शुक्ल दशमी (26 जुलाई, रविवार) को पुनः रथ पर सवार होकर मुख्य मंदिर आते हैं। सातों दिन इन मूर्तियों का दर्शन करने वाले श्रद्वालुओं का जमावडा इस मंदिर में लगा रहता है। कडी धूप में भी लाखों की संख्या में भक्त मंदिर में दर्शन के लिये आते रहते है। प्रतिदिन भगवान को भोग लगने के बाद प्रसाद के रुप में गोपाल भोग सभी भक्तों में वितरीत किया जाता है। सात दिनों के बाद यात्रा की वापसी होती है। इस रथ यात्रा को बडी-बडी रस्सियों से खींचते हुए ले जाया जाता है। यात्रा की वापसी  भगवान जगन्नाथ की अपनी जन्म भूमि से वापसी कहलाती है। इसे  बाहुडा कहा जाता है। इस रस्सी को खिंचने या हाथ लगाना अत्यंत शुभ माना जाता है।   

यात्रा की महत्ता 
jagannath-rath-yatra
जगन्नाथ जी की रथयात्रा में श्रीकृष्ण के साथ राधा या रुक्मिणी के स्थान पर बलराम और सुभद्रा होते हैं। इस सम्बंध में कथा इस प्रकार है - एक बार द्वारिका में श्रीकृष्ण रुक्मिणी आदि राजमहिषियों के साथ शयन करते हुए निद्रा में राधे-राधे बोल पड़े। महारानियों को आश्चर्य हुआ। सुबह जागने पर श्रीकृष्ण ने अपना मनोभाव प्रकट नहीं किया। रुक्मिणी ने रानियों से बात की कि वृंदावन में राधा नाम की गोपकुमारी है जिसको प्रभु हम सबकी इतनी सेवा, निष्ठा और भक्ति के बाद भी नहीं भूल पाये है। राधा की श्रीकृष्ण के साथ रासलीलाओं के विषय में माता रोहिणी को ज्ञान होगा। अतरू उनसे सभी महारानियों ने अनुनय-विनय की, कि वह इस विषय में बतायें। पहले तो माता रोहिणी ने इंकार किया किंतु महारानियों के अति आग्रह पर उन्होंने कहा कि ठीक है, पहले सुभद्रा को पहरे पर बिठा दो, कोई भी अंदर न आ पाए, चाहे वह बलराम या श्रीकृष्ण ही क्यों न हों। माता रोहिणी ने जैसे ही कथा कहना शुरू किया, अचानक श्रीकृष्ण और बलराम महल की ओर आते हुए दिखाई दिए। सुभद्रा ने उन्हें द्वार पर ही रोक लिया, किंतु श्रीकृष्ण और राधा की रासलीला की कथा श्रीकृष्ण और बलराम दोनो को ही सुनाई दी। उसको सुनकर श्रीकृष्ण और बलराम अद्भुत प्रेमरस का अनुभव करने लगे, सुभद्रा भी भावविह्वल हो गयी। अचानक नारद के आने से वे पूर्ववत हो गए। नारद ने श्री भगवान से प्रार्थना की कि - श्हे प्रभु आपके जिस श्महाभावश् में लीन मूर्तिस्थ रूप के मैंने दर्शन किए हैं, वह सामान्यजन के हेतु पृथ्वी पर सदैव सुशोभित रहे। प्रभु ने तथास्तु कहा।

पौराणिक मान्यता 
पौराणिक मान्यता है कि राजा इन्द्रद्युम्न भगवान जगन्नाथ को शबर राजा से पूरी लेकर आये थे। उन्होंने ही मूल मंदिर का निर्माण कराया, जो बाद में नष्ट हो गया। इस मूल मंदिर का कब निर्माण हुआ और यह कब नष्ट हो गया इस बारे में कुछ भी स्पष्ट नहीं है। ययाति केशरी ने भी एक मंदिर का निर्माण कराया था। वर्तमान 65 मीटर ऊंचे मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में चोल गंगदेव तथा अनंग भीमदेव ने कराया था। परंतु जगन्नाथ संप्रदाय वैदिक काल से लेकर अब तक मौजूद है। पुराणों के अनुसार जगन्नाथपुरी का वर्णन स्कन्द पुराण, नारद पुराण, पद्म पुराण और ब्रह्म पुराण में मिलता है। जगन्नाथ मंदिर के निजी भृत्‍यों की एक सेना है जो 36 रूपों तथा 97 वर्गों में विभाजित है। इससे पहले प्रधान खुर्द के जो राजा थे अपने को जगन्‍नाथ का भृत्‍य समझते थे। काशी की तरह जगन्नाथ धाम में भी पंच तीर्थ हैं -मार्कण्‍डेय वट (कृष्‍ण), बलराम, समुद्र और इन्‍द्रद्युम्‍न सेतु। मार्कण्‍डेय की कथा ब्रह्मपुराण में वर्णित है। विष्णु ने मार्कण्‍डेय से जगन्‍नाथ के उत्‍तर में शिव का मंदिर तथा सेतु बनवाने को कहा था। कुछ समय के उपरान्‍त यह श्मार्कण्‍डेय सेतु के नाम से विख्‍यात हो गया। ब्रह्म पुराण के अनुसार तीर्थयात्री को मार्कण्‍डेय सेतु में स्‍नान करके तीन बार सिर झुकाना तथा मंत्र पढ़ना चाहिए। तत्‍पश्‍चात उसे तर्पण करना तथा शिवमंदिर जाना चाहिए। शिव के पूजन में ओम नमः शिवाय नामक मूल मंत्र का उच्‍चारण अत्‍यावश्‍यक है। अघोर तथा पौराणिक मंत्रों का भी उच्‍चारण होना चाहिए। तत्‍पश्‍चात उसे वट वृक्ष पर जाकर उसकी तीन बार परिक्रमा कर मंत्र से पूजा करनी चाहिए। ब्रह्मपुराण के अनुसार वट स्‍वयं कृष्‍ण हैं। वह भी एक प्रकार का कल्‍पवृक्ष ही है। तीर्थ यात्री को श्रीकृष्ण के समक्ष स्‍थित गरुड़ की पूजा करनी चाहिए और तब कृष्‍ण, सुभद्रा तथा संकर्षण के प्रति मंत्रोच्‍चारण करना चाहिए। 

मान्यता यह भी है कि श्रीकृष्‍ण के भक्‍तिपूर्ण दर्शन से मोक्ष का विधान करता है। ब्रह्मपुराण के 43 तथा 44 अध्‍याओं में मालवा ‍स्थित उज्जयिनी के राजा इन्‍द्रद्युम्‍न का विवरण है। राजा इन्‍द्रद्युम्‍न बड़ा विद्वान तथा प्रतापी राजा था। सभी वेद शास्‍त्रों के अध्‍ययन के उपरान्‍त वह इस निष्‍कर्ष पर पहुंचा कि वासुदेव सर्वश्रेष्‍ठ देवता हैं। फलतः वह अपनी सारी सेना, पंडितों तथा किसानों के साथ वासुदेव क्षेत्र में गया। दस योजन लम्‍बे तथा पांच योजन चैड़े इस वासुदेव स्‍थल पर उसने अपना खेमा लगाया। इसके पूर्व इस दक्षिणी समुद्र तट पर एक वटवृक्ष था जिसके समीप पुरुषोत्‍तम की इन्‍द्रनील मणि की बनी हुई मूर्ति थी। कालक्रम से यह बालुका से आच्‍छन्‍न हो गयी और उसी में निमग्‍न हो गयी। उस स्‍थल पर झा‌डि़यां और पेड़ पौधे उग आये। इन्‍द्रद्युम्‍न ने वहां एक अश्वमेध यज्ञ करके एक बहुत बड़े मंदिर का निर्माण कराया। उस मंदिर में भगवान वासुदेव की एक सुंदर मूर्ति प्रति‌ष्‍ठित करने की उसे चिंता हुई। स्वप्न में राजा ने वासुदेव को देखा, जिन्‍होंने उसे समुद्रतट पर प्रातःकाल जाकर कुल्‍हाड़ी से उगते हुए वटवृक्ष को काटने को कहा। राजा ने ठीक समय पर वैसा ही किया। उसमें भगवान विष्णु (वासुदेव) और विश्वकर्मा ब्राह्मण के वेश में प्रकट हुए। विष्‍णु ने राजा से कहा कि मेरे सहयोगी विश्‍वकर्मा मेरी मूर्ति का निर्माण करेंगे। निर्माण शुरु भी हो गया। कई दिनों तक घर का द्वार बंद रहा। महारानी ने सोचा कि बढ़ई बिना खाए-पिये कैसे काम करेगा। महारानी ने महाराजा को अपनी शंका बतायी। महाराजा के द्वार खुलवाने पर वह वृद्ध बढ़ई कहीं नहीं मिला किन्तु उसके द्वारा अर्द्धनिर्मित श्री जगन्नाथ, सुभद्रा तथा बलराम की काष्ठ मूर्तियाँ वहाँ पर मिल गयी। राजा और रानी दुखी हो गये, उसी क्षण दोनों को आकाशवाणी सुनायी दी दुरूखी मत होओ, हम इसी रूप में रहना चाहते हैं मूर्तियों को द्रव्य आदि से पवित्र कर स्थापित करवा दो। आज भी वे अपूर्ण और अस्पष्ट कृष्ण, बलराम और सुभद्रा की तीन मूर्तियां पुरी की रथयात्रा और मंदिर में सुशोभित व प्रतिष्ठित हैं। 

मूर्तियों की स्थापना के बाद विष्‍णु ने राजा को वरदान दिया कि अश्‍वमेघ के समाप्‍त होने पर जहां इन्‍द्रद्युम्‍न ने स्‍नान किया है वह बांध उसी के नाम से विख्‍यात होगा। जो व्‍यक्‍ति उसमें स्‍नान करेगा वह इंद्रलोक को जायेगा और जो उस सेतु के तट पर पिण्‍डदान करेगा उसके 21 पीढि़यों तक के पूर्वज मुक्‍त हो जायेंगे। स्कन्द पुराण के उपभाग उत्‍कलखण्‍ड में इन्‍द्रद्युम्‍न की कथा पुरुषोत्‍तम माहात्‍म्‍य के अन्‍तर्गत कुछ परिवर्तनों के साथ दी गयी है। इससे यही निष्‍कर्ष निकलता है कि प्राचीन काल में पुरुषोत्‍तम क्षेत्र को नीलाचंल नाम से अभिहित किया गया था और कृष्ण की पूजा उत्‍तर भारत में होती थी। सुभद्रा के द्वारिका भ्रमण की इच्छा पूर्ण करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण व बलराम ने अलग रथों में बैठकर रथयात्रा करवाई थी। सुभद्रा की नगर भ्रमण की स्मृति में यह रथयात्रा पुरी में हर वर्ष होती है। महाराजा रणजीत सिंह, महान सिख सम्राट ने इस मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिये गये स्वर्ण से कहीं अधिक था। उन्होंने अपने अंतिम दिनों में यह वसीयत भी की थी, कि विश्व प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा, जो विश्व में अब तक सबसे मूल्यवान और सबसे बड़ा हीरा है, इस मंदिर को दान कर दिया जाये। लेकिन यह सम्भव ना हो सका, क्योकि उस समय तक, ब्रिटिश ने पंजाब पर अपना अधिकार करके, उनकी सभी शाही सम्पत्ति जब्त कर ली थी। वर्ना कोहिनूर हीरा, भगवान जगन्नाथ के मुकुट की शान होता। 

रथ का निर्माण
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा के लिए रथों का निर्माण लकडि़यों से होता है। इसमें कोई भी कील या काँटा, किसी भी धातु का नहीं लगाया जाता। यह एक धार्मिक कार्य है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ता रहा है। रथों का निर्माण अक्षय तृतीया से वनजगा महोत्सव से प्रारम्भ होता है तथा लकडि़यां चुनने का कार्य इसके पूर्व बसन्त पंचमी से शुरू हो जाता है। पुराने रथों की लकडि़याँ भक्तजन श्रद्धापूर्वक खरीद लेते हैं और अपने-अपने घरों की खिड़कियां, दरवाजे आदि बनवाने में इनका उपयोग करते हैं।  परंपरा है कि हर 14-15 सालों में भगवान की मूर्तियों को बदलकल नई मूर्तियां स्थापित की जाती हैं। यह परंपरा सदियों से चलती आ रही है, एक तरफ जगन्नाथ मंदिर अपने आश्चर्यजनक कार्यों के कारण भक्तों के बीच श्रद्धा का अटूट रिश्ता कायम किये हुए है ऊपर से इसकी परम्पराएं इसे पूरे विश्व में लोकप्रिय बनाती हैं। यह मूर्तियां अलग अलग पेड़ की बनी हुई होती हैं। जिनको बनाने में पवित्रता का खासा ध्यान रखा जाता है। यह मूर्तियां जिन पेड़ों की बनी होती हैं वह कोई आम पेड़ नहीं होता। उन्हीं पेड़ों को इन मूर्तियों के लिए चयन किया जाता है जिसमे भगवान बलभद्र, देवी सुभद्रा और सुदर्शन के चिन्ह बने होते हैं। इस बार की निकाली जाने वाली रथयात्रा विशेष होगी। क्योंकि 19 साल बाद भगवान जगन्नाथ मंदिर की सारी प्रतिमाएं (भगवान जगन्नाथ, बलभद्र व सुभद्रा) बदल दी गई हैं। अब इन नई प्रतिमाओं को ही रथ में विराजित कर यात्रा निकाली जाएगी। ये प्रतिमाएं अलग-अलग हिस्सों से लाए गए नीम के विशेष वृक्षों से तैयार की गई हैं। इन विशेष वृक्षों को दारू कहा जाता है। भगवान जगन्नाथ व अन्य देव प्रतिमाओं का निर्माण नीम की लकड़ी से ही किया जाता है। भगवान जगन्नाथ का रंग सांवला होता है, इसलिए नीम का वृक्ष उसी रंग का होना चाहिए। भगवान जगन्नाथ के भाई-बहन का रंग गोरा है, इसलिए उनकी मूर्तियों के लिए हल्के रंग का नीम का वृक्ष ढूंढा जाता है। भगवान जगन्नाथ की मूर्ति के लिए पेड़ चुनने के लिए कुछ खास चीजों पर भी ध्यान दिया जाता है जैसे-पेड़ में चार प्रमुख शाखाएं होनी चाहिए, पेड़ के नजदीक जलाशय (तालाब), श्मशान और चीटियों की बांबी होना जरूरी है, पेड़ की जड़ में सांप का बिल भी होना चाहिए, वह किसी तिराहे के पास हो या फिर तीन पहाड़ों से घिरा हुआ हो, पेड़ के पास वरूण, सहौदा और बेल का वृक्ष होना चाहिए।

सामुदायिक पर्व है रथयात्रा 
रथयात्रा एक सामुदायिक पर्व है। घरों में कोई भी पूजा इस अवसर पर नहीं होती है तथा न ही कोई उपवास रखा जाता है। जगन्नाथपुरी और भगवान जगन्‍नाथ की कुछ मौलिक विशेषताएं हैं। यहां किसी प्रकार का जातिभेद नहीं है। जगन्‍नाथ के लिए पकाया गया चावल वहां के पुरोहित निम्‍न कोटि के नाम से पुकारे जाने वाले लोगों से भी लेते हैं। जगन्‍नाथ को चढ़ाया हुआ चावल कभी अशुद्ध नहीं होता, इसे महाप्रसाद की संज्ञा दी गयी है। इसकी विशेषता रथयात्रा पर्व की महत्‍ता है। इसका पुरी के चैबीस पर्वों में सर्वाधिक महत्‍व है। रथ तीर्थ या‌‌त्रियों और कुशल मजदूरों द्वारा खींचे जाते हैं। भावुकतापूर्ण गीतों से य‌ह महा उत्‍सव मनाया जाता है। मुख्य जगन्नाथ मन्दिर के अन्दर एक छोटा महालक्ष्मी मन्दिर भी है। ऐसा दिखाया जाता है कि भगवती लक्ष्मी इसलिए क्रुद्ध हैं, क्योंकि उन्हें यात्रा में नहीं ले जाया गया। वे भगवान पर कटाक्ष करती हैं। प्रभु उन्हें मनाने का प्रयास करते हैं व कहते हैं कि देवी को सम्भवतः उनके भाई बलभद्र के साथ बैठना शोभा नहीं देता। पुजारी व देवदासियां इसे लोकगीतों में प्रस्तुत करते हैं। क्रुद्ध देवी मन्दिर को अन्दर से बन्द कर लेती हैं। परन्तु शीघ्र ही पंडितों का गीत उन्हें प्रसन्न कर देता है। जब मन्दिर के द्वार खोल दिए जाते हैं तथा सभी लोग अन्दर प्रवेश करते हैं। इसी के साथ इस दिन की भगवान जगन्नाथ की यह अत्यन्त अदभुत व अनूठी यात्रा हर्षोल्लास से सम्पन्न हो जाती है।

महाप्रसाद
मन्दिर की रसोई में एक विशेष कक्ष रखा जाता है, जहां पर महाप्रसाद तैयार किया जाता है। इस महाप्रसाद में अरहर की दाल, चावल, साग, दही व खीर जैसे व्यंजन होते हैं। इसका एक भाग प्रभु का समर्पित करने के लिए रखा जाता है तथा इसे कदली पत्रों पर रखकर भक्तगणों को बहुत कम दाम में बेच दिया जाता है। जगन्नाथ मन्दिर को प्रेम से संसार का सबसे बड़ा होटल कहा जाता है। मन्दिर की रसोई में प्रतिदिन बहत्तर क्विंटल चावल पकाने का स्थान है। इतने चावल एक लाख लोगों के लिए पर्याप्त हैं। चार सौ रसोइए इस कार्य के लिए रखे जाते हैं। पुरी के जगन्नाथ मंदिर की एक विशेषता यह है कि मंदिर के बाहर स्थित रसोई में 25000 भक्त प्रसाद ग्रहण करते हैं। भगवान को नित्य पकाए हुए भोजन का भोग लगाया जाता है। परंतु रथयात्रा के दिन एक लाख चैदह हजार लोग रसोई कार्यक्रम में तथा अन्य व्यवस्था में लगे होते हैं। जबकि 6000 पुजारी पूजाविधि में कार्यरत होते हैं। उड़ीसा में दस दिनों तक चलने वाले एक राष्ट्रीय उत्सव में भाग लेने के लिए दुनिया के कोने-कोने से लोग उत्साहपूर्वक उमड़ पड़ते हैं। एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रसोई में ब्राह्मण एक ही थाली में अन्य जाति के लोगों के साथ भोजन करते हैं, यहां जात-पांत का कोई भेदभाव नहीं रखा जाता।

रसोई है प्रमुख आकर्षण
जगन्नाथ मंदिर का एक बड़ा आकर्षण यहां की रसोई है। यह रसोई विश्व की सबसे बड़ी रसोई के रूप में जानी जाती है। यह मंदिर के दक्षिण-पूर्व दिशा में स्थित है। इस रसोई में भगवान जगन्नाथ के लिए भोग तैयार किया जाता है। इस विशाल रसोई में भगवान को चढ़ाने वाले महाप्रसाद को तैयार करने के लिए लगभग 500 रसोइए तथा उनके 300 सहयोगी काम करते हैं। ऐसी मान्यता है कि इस रसोई में जो भी भोग बनाया जाता है, उसका निर्माण माता लक्ष्मी की देखरेख में ही होता है। मंदिर प्रांगण में ही विमला देवी शक्तिपीठ है। यह शक्तिपीठ बहुत प्राचीन मनि जाति का है। शक्ति स्वरुपिणि माँ विमला देवी भगवान श्री जगन्नाथ जी के लिए बनाए गए नैवेद्य को पहले चखती हैं फिर वह भोग के लिए चढ़ाया जाता है। ऐसे ही इस मंदिर का सबसे आकर्षक आश्चर्य है 56 भोग (पकवान)। जिसके बारे में कहा जाता है कि 56 अलग अलग तरह के भोग एक दुसरे के ऊपर रखके, जहां देवी सुभद्रा निवास करती हैं उस कमरे मे बंद कर दिया जाता है, तो खाना अपने आप पाक जाता है। इसमें सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि सबसे ऊपर का खाना सबसे पहले पकता है। कहा जाता है कि देवी सुभद्रा इसे पका देती हैं, जिसे प्रसाद के रूप में लोगों में बांटा जाता है। 

बाहुड़ा यात्रा 
आषाढ़ शुक्ल दशमी को जगन्नाथ जी की वापसी यात्रा शुरू होती है। इसे बाहुड़ा यात्रा कहते हैं। पुरी में समुद्र स्‍नान का बड़ा महत्‍व है, पर यह मूलतः पूर्णिमा के दिन ही अधिक महत्‍वपूर्ण है। तीर्थयात्री को इन्‍द्रद्युम्‍न सेतु में स्‍नान करना, देवताओं का तर्पण करना तथा ऋषि पितरों को पिण्‍डदान करना चाहिए। वट वृक्ष पर चढ़कर या उसके नीचे या समुद्र में, इच्‍छा या अनिच्‍छा से, जगन्‍नाथ के मार्ग में, जगनाथ क्षेत्र की किसी गली में या किसी भी स्‍थल पर जो प्राण त्‍याग करता है वह निश्‍चय ही मोक्ष प्राप्‍त करता है। 




liveaaryaavart dot com

सुरेश गांधी
लेखक आज तक टीवी न्यूज चैनल से संबंद्ध है 

कोई टिप्पणी नहीं: