उजबेकिस्तान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण का इस्लाम पर केेंद्रित अंश वर्तमान घटनाक्रम के संदर्भ में उल्लेखनीय रहा है। उन्होंने कहा कि भारत और मध्य एशिया ने इस्लाम के उच्च आदर्शों को अपनाया है और इस्लामी अवधारणाओं की चरमपंथ व्याख्या से यह क्षेत्र हमेशा दूर रहा है। उन्होंने भारतीय और इस्लामिक सभ्यता के मेल से दोनों के बीच औषधि गणित आदि के क्षेत्र में हुए बहुमूल्य आदान प्रदान को स्मरण कराया। साथ ही सूफी धारा के कारण भारत इस्लाम के नए आकर्षक केेंद्र के रूप में उभरने के इतिहास का भी उल्लेख किया। प्रधानमंत्री ने वहां जो कहा वह मिलीजुली संस्कृति वाले हमारे देश में सद्भाव के एक बड़े ज्वार का उत्प्रेरक माना जाना चाहिए लेकिन यह निश्चित है कि उक्त भाषण उनका अपना नहीं था बल्कि उन्होंने कूटनीतिक जरूरतों के लिहाज से विदेश मंत्रालय के अधिकारियों द्वारा देशकाल के अनुरूप तैयार किया गया भाषण औपचारिकतावश पढ़ा। काश वे इस भाषण को पढऩे के बाद संघ की पाठशाला में अपने अंदर इस्लाम को लेकर बुनी गई मनोगं्रथि पर पुनर्विचार करने को प्रेरित होते।
अभी हाल की बात है जब संसद की एनेक्सी में आरएसएस के आनुषांगिक संगठन राष्ट्रीय मुस्लिम मंच के तत्वावधान में रोजा अफ्तार का आयोजन कराया गया था। इसमें कई इस्लामिक देशों के राजदूत पहुंचे लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस आयोजन से दूर रहकर उन लोगों को झटका दिया जो विश्वास कर रहे थे कि वे अब अपनी बदलती सोच के साथ छवि को भी बदलने के लिए सचेत हैं। वह वक्त और था जब मोदी ने इस्लामी वेशभूषा की झलक देने वाली टोपी पहनने से सार्वजनिक तौर पर इनकार कर दिया था। उस समय वे प्रधानमंत्री नहीं बने थे। उन्होंने चुनाव के समय लोगों की समस्याएं अपनी जादू की छड़ी से सत्ता में बैठते ही एक झटके में छूमंतर कर देने का आभास लोगों को कराया था और लोग भी उनमें इस करिश्मे की क्षमता पर यकीन कर बैठे थे लेकिन वे प्रधानमंत्री हुए तो उन्हें व्यवहारिक वास्तविकताएं समझ में आ गईं। ऐसे समय अपनी लोकप्रियता को बरकरार रखने के लिए मजबूत विश्व नेता की छवि बनाने का हथकंडा उन्हें सबसे सिद्ध सूझा तब से वे इसी में जुटे हुए हैं। जल्द ही उन्हें यह समझ में आ गया था कि इसकी मंजिल तभी हासिल होगी जब वे कट्टरवादी छवि की केेंचुल उतार फेेंके और अपने कार्य व्यवहार में सर्वसमावेशी दृष्टिकोण को झलकाएं। भाजपा के सत्ता में आते ही अल्पसंख्यकों के प्रति शारीरिक और वैचारिक हिंसा बढऩे के आरोपों की अंतर्राष्ट्रीय अनुगूंज से विचलित होकर उन्होंने उनके नजदीक पहुंचने के लिए अपनी परंपरागत शैली में शीर्षासन जैसा परिवर्तन करने में भी हिचक नहीं दिखाई। प्रधानमंत्री के तौर पर चाहे अनुच्छेद 370 खत्म करने की बात हो या फिर अयोध्या में विवादित स्थल पर मंदिर बनाने के लिए कानून बनाने की मांग उन्होंने इन प्रतिबद्धताओं को झटक सा दिया था। उनकी इस कवायद के बीच कोई उम्मीद नहीं कर रहा था कि आगे वे मुसलमानों और अन्य अल्पसंख्यकों के मामले में उन्हें ज्यादा भाव देने जैसा कोई संदेश प्रसारित होने से रोकने के लिए ऐसी सतर्कता दिखाएंगे जो कि सामान्य शिष्टाचार के खिलाफ हो लेकिन आरएसएस द्वारा दिए गए रोजा अफ्तार से दूरी बनाकर उन्होंने यह विश्वास खंडित कर दिया है। ऐसा लगता है कि इस तरह का नकारात्मक कदम उन्होंने सुनियोजित तौर पर यह संदेश देने के लिए उठाया है कि वे मुस्लिम तुष्टिकरण के रास्ते पर एक कदम भी नहीं चलेंगे।
इसी वर्ष फरवरी के महीने में आरएसएस के सरसंघ चालक मोहन भागवत कानपुर आए थे। इस दौरान मुसलमानों के एक प्रतिनिधि मंडल ने उनसे मिलने की इच्छा प्रकट की। पहले तो मोहन भागवत ने मना कर दिया लेकिन जब अखबारों में इसको लेकर प्रतिक्रियाएं प्रकाशित हुईं तो संघ में मुस्लिम मामले देखने वाले इंद्रेश कुमार को संघ प्रमुख की ओर से मुस्लिम प्रतिनिधि मंडल से बातचीत के लिए नियुक्त कर दिया गया। ध्यान रहे कि इंद्रेश कुमार ही संसद एनेक्सी में हुए रोजा अफ्तार के आयोजक थे। उक्त मुलाकात में मुस्लिम प्रतिनिधि मंडल ने एक छह सूत्रीय प्रश्न तालिका उन्हें सौंपी थी जो इस बात पर केेंद्रित थी कि संघ क्या भारत को हिंदू राष्ट्र समझता है और इसलिए वह भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करना चाहता है और अगर ऐसा है तो हिंदू राष्ट्र को लेकर उसका खाका क्या है वगैरह वगैरह। इंद्रेश कुमार ने इन सवालों का उत्तर देने की बजाय कहा था कि अगर एक खुला सम्मेलन बुलाया जाए तो उसमें संघ के नेता इन सारे सवालों का जवाब देने के लिए तैयार हैं। उन्होंने साथ में मुस्लिम प्रतिनिधि मंडल से सवाल किया था कि और आप लोग ओबैशी को लेकर क्या सोचते हैं तो प्रतिनिधि मंडल ने तत्काल ही कहा था कि ओबैशी मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते। वे साक्षी महाराज और साध्वी निरंजन ज्योति की तरह ही मात्र एक सांसद हैं। उनकी सोच से मुसलमानों का कोई सरोकार नहीं है।
यह संदर्भ देने की जरूरत इसलिए है कि प्रधानमंत्री के तौर पर मोदी से जो अपेक्षाएं हैं वे इस मामले में उनके गलतफहमी भरे संस्कारों के दूर होने तक पूरी नहीं हो सकती। दुनिया के एक मात्र हिंदू राष्ट्र नेपाल के नए संविधान में भी उसका दर्जा बदलकर धर्मनिरपेक्ष देश के बतौर उसे पेश करने का प्रस्ताव है। फिर कई मामलों में एक महाशक्ति के तौर पर उभर रहे भारत को उसकी तमाम वास्तविकताओं की अनदेखी करके हिंदू राष्ट्र के रूप में बदलने की जिद पर आप क्यों कायम रहना चाहते हैं जिससे देश प्रगति के रास्ते पर रुकावटें महसूस करने लगे। नरेंद्र मोदी में शायद भारत को हिंदू राष्ट्र समझने की ग्रंथि बहुत अंदर तक घर किए हुए है जिसकी वजह से बदलते बदलते भी उनके अंदर यह प्रेत जाग पड़ा और गैर धर्मावलंबियों को अन्य धार्मिक राष्ट्रों की तरह दोयम साबित करने की मंशा के तहत उन्होंने संघ के रोजा अफ्तार का अघोषित बहिष्कार कर दिया।
हिंदू माने क्या है। संघ इसे एक जीवन पद्धति के रूप में देखता है या इसके पीछे इसे एक धर्म मानने की समझ उसमें है इसको लेकर मोदी सरकार बनने के बाद संघ की बढ़ी सक्रियता के कारण काफी मंथन हो रहा है लेकिन अभी तक विद्वान किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच सके हैं। जो भी हो हिंदू राष्ट्र के विरोध का मतलब आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित व्यवस्था का विरोध नहीं है। अगर बात आध्यात्मिक मूल्यों की हो तब तो उजबेकिस्तान में प्रधानमंत्री ने जिस सूफी धारा का जिक्र किया है उसके प्लेटफार्म पर तात्विक रूप में बहुत समय पहले भारत की प्राचीन धार्मिक सभ्यता और इस्लाम एक साथ खड़ा नजर आया है। दूसरी ओर आज कई मामलों में इस्लाम का कट्टर स्वरूप इसलिए भी उभरा है कि वह अकेला अध्यात्म विरोधी बाजार व्यवस्था के खिलाफ खड़ा है जबकि दूसरों ने नाम के लिए केवल अपने को अध्यात्म तक सीमित रखा है बाकी बाजार के आगे उन्होंने पूरी तरह समर्पण कर रखा है। हिंदू जीवन पद्धति की बात भी कर लें तो राजनीतिक तौर पर हिंदुत्व का जितना आग्रह दिखाया जा रहा है उतना आग्रह अंग्रेजियत की जीवनशैली के लगातार हावी होने की प्रवृत्ति के प्रतिकार में दिखाने की कोशिश क्यों नहीं की जा रही। अध्यात्मिक उद्देश्य सतही कर्मकांडों से पूरे नहीं होते। अगर अध्यात्मिक मूल्यों को जीना है तो आधुनिक जीवन के तमाम सम्मोहन को तिलांजलि देनी होगी। क्या संघ इसके लिए कहीं कोई प्रयास करता नजर आ रहा है। बहरहाल यह बड़े सवाल हैं जिन पर अलग से विस्तृत चर्चा का तकाजा है लेकिन भारत में मिलीजुली संस्कृति का निर्वाह मुगलों के समय से हो रहा है और इसमें वह रच बस गया है। उसकी आधुनिक प्रगति में इस वजह से कोई रुकावट नहीं है। इस कारण धार्मिक सद्भाव तोडऩे और इतिहास का बदला चुकाने के फेर में पडऩे की बजाय मोदी को भ्रष्टाचार, महंगाई व विश्व बाजार में भारत को सर्वोपरि बढ़त हासिल कराने और यौद्धिक तौर पर उसे दुनिया का सबसे शक्तिशाली राष्ट्र बनाने के लक्ष्य को लेकर बिना भटके कार्य करना चाहिए।
के पी सिंह
ओरई
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