आलेख : बिहार की करवट बदलती राजनीति - Live Aaryaavart (लाईव आर्यावर्त)

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मंगलवार, 22 सितंबर 2015

आलेख : बिहार की करवट बदलती राजनीति

bihar politics
बिहार में होने जा रहे विधानसभा चुनाव की तैयारियों के लिए राजनीतिक करवट बदलने का जोरदार अभियान प्रारम्भ हो गया है। इसकी राजनीतिक परिणति किस रूप में सामने आएगी, अभी ऐसा दृश्य दिखाई नहीं दे रहा, लेकिन इतना जरूर है कि राजनीतिक धुरंधरों के लिए प्रतिष्ठा बन चुका यह चुनावी समर राजनीतिक भविष्य बनाने और बिगाड़ने का माध्यम बनता दिखाई देने लगा है। भारतीय जनता पार्टी को रोकने के लिए जिस प्रकार से कथित राजनीतिक शक्तियों का पुंज बना है, वह अपने राजनीतिक अस्तित्व को बचाने की कवायद करने लगा है। महागठबंधन बनाने के सूत्रधार मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी अब लालू और नीतीश से अलग हो गए हैं। जिससे बिहार में राजद, जदयू और कांग्रेस की संभावनाओं को तगड़ा झटका लगा है। उल्लेखनीय है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी इस गठबंधन से पहले ही अलग हो चुकी है।

बिहार में विधानसभा चुनावों की तैयारी के चलते भारतीय जनता पार्टी को छोड़कर सभी राजनीतिक दल अपने भविष्य को लेकर सशंकित हैं। उन्हें यह आशंका होना भी चाहिए, क्योंकि इस बार कांग्रेस, जनतादल एकीकृत और राष्ट्रीय जनता दल अगर इज्जत बचाने लायक सीट प्राप्त करने में असफल होते हैं तो लालू और नीतीश कुमार की राजनीतिक साख किस परिणति को प्राप्त होगी, इसका अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है। बिहार में यह तीनों दल इस बार मिलकर चुनाव मैदान में उतर रहे हैं। महागठबंधन के नाम पर किया गया यह खेल इन दलों को कितनी संजीवनी प्रदान करेगा, इसका अनुमान फिलहाल लगा पाना कठिन है।

बिहार की राजनीति में कब क्या हो जाए कहा नहीं जा सकता। राजद और जदयू की कुटिल राजनीति के षड्यंत्र का शिकार हुई समाजवादी पार्टी अब अकेले चुनाव में उतरने का मन बना चुकी है। हालांकि शरद यादव ने कहा है कि मुलायम सिंह गठबंधन का हिस्सा रहेंगे, लेकिन क्या शरद यादव इस बात की गारंटी दे सकते हैं कि अब लालू और नीतीश मुलायम को महत्व देंगे। ऐसा लगता नहीं है, क्योंकि बिहार में राजद और जदयू के बीच हुआ समझौता बेमेल गठबंधन है।

अभी हाल ही में बिहार में हुई राष्ट्रीय स्वाभिमान रैली के दौरान कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी, जदयू के नीतीश कुमार और राजद के लालू प्रसाद यादव ने के भाषणों में जिस प्रकार की उम्मीद की जा रही थी, वैसी ही भाषा का प्रयोग किया गया। इनके भाषणों को सुनकर कई बार तो ऐसा लग रहा था था कि यह रैली स्वाभिमान रैली न होकर केवल राजनीतिक भड़ास निकालने का एक मंच था। देश में इस प्रकार की राजनीति से न तो किसी भला हुआ और न ही आगे होने वाला है। बिहार की भलाई की बात करें तो यह सभी जानते हैं कि आज बिहार की जो तस्वीर पूरे देश में दिखाई देती है, उस स्थिति को बनाने के लिए अब तक जिसकी सरकार बिहार में अधिक समय तक रही हैं, वे पूरी तरह से दोषी हैं। कौन नहीं जानता कि बिहार को जंगलराज की स्थिति में ले जाने के लिए अपराधी सिद्ध हो चुके लालू प्रसाद यादव जिम्मेदार हैं।

वर्तमान में फिर से लालू प्रसाद यादव केवल इस सोच के साथ चुनावी मैदान में हैं, कि किसी भी प्रकार से अपने परिवार को राज्य की राजनीति में स्थापित कर सकें। यह लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक मजबूरी भी है, और खोई हुई राजनीतिक ताकत प्राप्त करने का एक प्रयास भी। हम जानते हैं कि देश में अपराधियों के राजनीति करने पर पूरी तरह से प्रतिबंध है, लेकिन इसे देश और बिहार का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद यादव अपराधी सिद्ध होने के बाद भी राजनीति कर रहे हैं। जिस बिहार में एक समय लालू प्रसाद यादव राजनीतिक तौर पर मजबूत दिखाई दे रहे थे, आज वही लालू वैसाखियों के सहारे अपनी राजनीति कर रहे हैं। आज लालू प्रसाद यादव भले ही जनता से सामने आदर्श की बात कर रहे हों, लेकिन यह सत्य है कि लालू अपराधी हैं। इतना ही नहीं जिस प्रकार से कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी ने बिहार में लगातार सिकुड़ती जा रही लालू प्रसाद के साथ मंच साझा करके एक प्रकार से अपराधिक प्रवृति का ही समर्थन किया है। कांग्रेस के इस समर्थन के बाद भाग्य बस राजनीति का छींका टूटता है, तो यह तय जैसा ही लगता है कि ये लोग मलाई खाने से पीछे नहीं हटने वाले। आम आदमी पार्टी के नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी बिहार की राजनीति में दुहरा खेल खेलते हुए दिखाई दे रहे हैं। केजरीवाल गठबंधन में शामिल नीतीश का तो समर्थन कर रहे हैं, लेकिन लालू का यह कहकर विरोध कर रहे हैं कि लालू अपराधी हैं। ये तो ऐसी बात हो गई कि गुड़ तो खाएंगे, लेकिन गुलगुले नहीं खाएंगे। केजरीवाल को सोचना चाहिए कि उनके समर्थन से अगर नीतीश कुमार को ताकत मिलती है तो लालू स्वतः ही ताकतवर हो जाएंगे।

बिहार की राजनीति को देखकर यह अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है कि जिस प्रकार से महागठबंधन का यह खेल खेला रहा है उससे ऐसा तो लगता ही है कि वर्तमान में कांग्रेस, राजद, जदयू और समाजवादी पार्टी को यह अच्छी तरह से आभास हो गया है कि हम अलग अलग लड़ने की ताकत नहीं रखते। एक अकेले भाजपा से लड़ने के लिए यह एकजुटता इनकी राजनीतिक कमजोरी ही दर्शाने का काम कर रहा है। अब सवाल यह उठता है वर्तमान में भाजपा बिहार की राजनीति में इतनी ताकतवर कैसे हो गई, क्या इसके पीछे भाजपा की अपनी नीतियां हैं, या फिर राज्य सरकार के कामकाज के कारण उत्पन्न हुआ अलोकप्रिय वातावरण। अगर सरकारों के कामकाज की वजह से ही ऐसा वातावरण निर्मित हुआ है, महागठबंधन में शामिल दलों को राजनीतिक और लोकतांत्रिक पद्धति से आत्ममंथन करना चाहिए। लालू प्रसाद यादव, नीतीश कुमार और कांग्रेस पार्टी को यह सोचना चाहिए कि आज बिहार में उनकी ऐसी दशा क्यों हुई कि उन्हें एक दूसरे का सहारा लेना पड़ रहा है।

कई दशक तक बिहार की राजनीति के केंद्र मे रही कांग्रेस पार्टी की हालात ऐसी हो गई है कि उसे क्षेत्रीय दलों का सहारा लेना पद रहा है। कांग्रेस को इस हालत में पहुंचाने के लिए खुद कांग्रेस ही जिम्मेदार है। राजनीतिक दृष्टि से कांग्रेस की स्थिति का अध्ययन किया जाए तो यही सामने दिखाई देता है कि जिन राज्यों में कांग्रेस ने क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों को शक्ति प्रदान की है, उन राज्यों में क्षेत्रीय दल तो स्थापित हो गए, लेकिन कांग्रेस लगातार कमजोर होती चली गई। बिहार में कांग्रेस एक बार फिर वही गलती दुहराने जा रही है। बिहार में कांग्रेस के सहयोग से लालू की राजद और नीतीश की जदयू को ही फायदा मिलेगा, कांग्रेस एक बार फिर अपना नुकसान खुद ही करा रही है। देश की राजनीति में आज जिस प्रकार से अपराधियों की घुसपैठ हो रही है, वह देश और बिहार की राजनीति के लिए कतई ठीक नहीं कही जा सकती।

बिहार में राष्ट्रीय स्वाभिमान रैली और नरेंद्र मोदी की रैली की भीड़ के बारे तुलनात्मक अध्ययन किया जाने लगा है। कई लोग इसके परिणाम स्वरूप मोदी की रैली को सफल बता रहे हैं। अकेले नरेंद्र मोदी की रैली चार दलों की स्वाभिमान रैली पर भारी पड़ रही है। अगर यह सही है तो अबकी बार बिहार में परिवर्तन की लहर निश्चित ही दिखाई देगी।







सुरेश हिन्दुस्थानी
(लेखक वरिष्ठ स्तम्भ लेखक और राजनीतिक विश्लेषक हैं )

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