जी हां, धर्म एवं आस्था की नगरी काशी में 22 सितम्बर की आधी रात को जिस सलीके से प्रशासन ने आस्थावानों पर लाठियां बरसाई, उसे कहीं से जायज नहीं कहा जा सकता। माना प्रशासन ने जो कुछ भी किया वह हाईकोर्ट आदेश के अनुपालन में था, लेकिन प्रतिमा विसर्जन का विवाद एक-दो दिन में नहीं उपजा था। हफतों-महीनों नहीं बल्कि सालों से यह विवाद बना हुआ है। पिछले साल भी कुछ इसी तरीके की समस्याएं आई थी। तो फिर सवाल यही है कि जब सब कुछ जानकारी में था तो उसे समय रहते क्यों नहीं सलटा लिया गया। और अगर सुलझा था तो फिर उलझा कैसे? का जवाब प्रशासन को देना ही होगा। हो जो भी हालात तो यही बता रहे है प्रशासन ने बुर्जुग पुजारियों, पंडितों व आस्था से जुड़े युवकों पर लाठियां बरसाकर अपने मकसद में भले ही कामयाब हो गयी, लेकिन जो चिंगारी सुलगाई है वह इतने आसानी से बुझ जायेगी, इस पर कुछ कहा नहीं जा सकता। इस मसले को दुर्गापूजा से पहले सलटाना ही होगा। वरना आने वाले दुर्गापूजा पर इसके गंभीर परिणाम होने से भी इंकार नहीं किया जा सकता। फिरहाल, प्रशासन को इस तथ्य की गंभीरता को भी समझने की जरुरत है कि दो दिनों बाद मुस्लिम बंधुओं का त्योहार बकरीद है। ऐसे में सांप्रदायिक सौहार्द का माहौल बनाए रखना भी हमारी ही जिम्मेवारी है।
हो जो भी लेकिन हालात बता रहे है कि जिला प्रशासन उच्च न्यायालय की सख्त हिदायत के बाद भी गणोश प्रतिमा के विसर्जन में स्वविवेक का प्रयोग करने में पूरी तरह विफल रही। गंगा में विसर्जन न हो, इसके लिए बिना वैकल्पिक व्यवस्था किए प्रतिमा विसर्जन करने वालों को रोका गया। हफ्तेभर पहले ही उच्च न्यायालय ने अपने फैसले में खास तौर पर काशी के जिला प्रशासन को स्वविवेक पर मूर्ति विसर्जन के फैसले का अधिकार दिया था। इसके बावजूद प्रशासन सिर्फ और सिर्फ अपनी जिद बनाएं रखने के लिए स्वविवेक का इस्तेमाल करने क े बजाय सैकड़ों आस्थावानों पर लाठियां बरसाई। कहा जा रहा है प्रशासन की ओर से शांति बनाएं रखने की अपील के बजाय जबरन आनन-फानन विश्व सुंदरी घाट पर तालाब बनवाया और उसमें गंगा का पानी भरवाया। जबकि आंदोलनरत आस्थावान प्रशासन की बात मानने को बिल्कुल तैयार नहीं थे। प्रशासन की रोक के विरोध में गणेश पूजा समिति, संत समाज, हिंदू युवा वाहिनी ने बनारस बंद का आह्वान किया था। तनावपूर्ण माहौल में बंदी सफल भी रहा। यहां जिक्र करना जरुरी है कि काशी मराठा गणेश उत्सव समिति सोमवार की शाम 6 बजे गंगा में गणेश प्रतिमा के विसर्जन के लिए दशाश्वमेध घाट जा रही थी। गंगा में मूर्ति विसर्जन को लेकर जिला प्रशासन ने गोदौलिया चैराहे के पास ही मूर्ति को रोक दिया। पुलिस के रोकते ही समिति से जुड़े सैकड़ों लोग और अन्य नारेबाजी करते हुए धरने पर बैठ गए। महंत बालक दास ने बताया भारत साधु-संतों का देश है। आज की सरकार संतों को पिटवा रही है। यह शर्मनाक घटना है।
स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद ने कहा कि पुलिस ने धोखे से लोगों को पीटा है। कोर्ट के आदेश का पालन करवाने के लिए भक्तों के साथ तालिबानी तरीका अपनाया गया है। यह बात नासिक कुंभ तक जाएगी। मामले को लेकर मणिकर्णिका पर शवदाह करीब एक घंटे तक रोका जाना प्रशासन ने लाखो-करोड़ों आस्थावानों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया है। काशी की गौरवशाली संस्कृति व परंपरा को अक्षुण्ण रखते हुए प्रतिमाओं का विसर्जन हर हाल में गंगा में ही किया जाना चाहिए। सनातनधर्मियों के लिए गंगा, मां हैं। मां के प्रति हर मन में श्रद्धा का भाव है और उनके हित का ख्याल रखते हुए प्राकृतिक सामग्रियों से ही प्रतिमाओं को आकार देने की परंपरा भी है। इनके विसर्जन से यदि गंगा प्रदूषित होती हैं तो तालाब-कुंडों को भला कैसे अलग रखा जा सकता है। गंगा की अविरलता के लिए टिहरी के बंधन से उन्हें मुक्त करने की बजाय लोगों का ध्यान हटाने की साजिश की जा रही है। कोर्ट के फैसले का सम्मान है लेकिन इसकी आड़ में प्रशासन बरगलाने से बाज आए।
प्रशासन को विसर्जन-निस्तारण का अंतर समझना होगा। गंगा में 350 एमएलडी सीवेज का निस्तारण किया जा रहा है। वहीं पवित्र प्रतिमाओं के गंगा में विसर्जन से रोका जा रहा है। वह भी तब जबकि मिट्टी पानी में घुल जाती है और पुआल-बांस, मल्लाह निकाल ले जाते हैं। इसमें रंग भी प्राकृतिक ही होते हैं फिर भला आपत्ति कहां और क्यों है। सनातनधर्मियों की भावना से जुड़े इस मामले में कोर्ट को वस्तु स्थिति बतानी चाहिए। देव आवाहन, पूजन और गंगा में विसर्जन की हमारी परंपरा रही है। सदियों से सनातन धर्मी यही करते भी आ रहे हैं। उद्देश्य यह की प्रकृति से जो लिया, उसमें ही मिल जाए। देव प्रतिमाओं के विसर्जन को लेकर प्रशासन द्वारा वितंडा खड़ा करना ठीक नहीं। उसे जनभावनाओं का ख्याल रखते हुए ही कोई निर्णय लेना चाहिए जिससे किसी की आस्था न आहत हो। प्रशासन उच्च न्यायालय के फैसले की मनमानी व्याख्या कर रहा है। उसे गंगा के पास अस्थायी कुंड की व्यवस्था के लिए भी कहा गया था। नीयत ठीक होती तो इस दिशा में भी समय से प्रयास किए गए होते। प्रतिमा पंडाल से बाहर आ गई तो अब हमारी परंपराओं को भंग करने का दबाव बनाया जा रहा है। इस तरह की प्रवृत्ति से समझौता करना सनातन धर्म के लिए ठीक नहीं है। शास्त्रीय परंपराओं के अनुसार विसर्जन गंगा में ही किया जाएगा। इसमें ही सनातन धर्म का मान और सम्मान है।
फिरहाल, गणोश प्रतिमा विसर्जन रोके जाने के बाद पिछले 24 घंटे से ऊहापोह का दौर जारी है। तनावपूर्ण माहौल में पुलिस भी किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में बनी हुई है। हालांकि इस मसले को लेकर सुगबुगाहट प्रायः पूरे शहर में रही और हर शख्स इसकी अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर रहा था। इस प्रकरण ने शहर के हृदयस्थल पर ही सारी गतिविधियों पर विराम लगा रखा था। अफवाहों का भी बाजार गरम था। रह रहकर भगदड़ भी मचती रही। विसर्जन को लेकर कायम जिच का समाधान निकालने के लिए पुलिस प्रशासन के लोग लगातार प्रयास करते देखे गए। लेकिन मामला ढाक के तीन पात ही रहा। पूजा समितियों से राय-मशविरा कर सहमति बनाने की बजाय एक तरफा निर्णय थोपने की कवायद हुई। इस मामले में कोलकाता को नजीर के तौर पर देखा जा सकता है। कोलकाता में गंगा घाटों पर दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन को लेकर पिछले कुछ वषों से एहतियात बरता जा रहा है। खासकर कोलकाता नगर निगम व अन्य निकायों की ओर से। विभिन्न सामाजिक संगठनों की ओर से दुर्गा प्रतिमा बनाने वालों को लेड रहित रंग का इस्तेमाल करने के लिए जागरूक किया गया। ताकि प्रतिमा से रंग निकल कर गंगा के पानी में घुलने से प्रदूषण न हो। कलकत्ता हाइकोर्ट की ओर से गंगा में प्रतिमा विसर्जन को लेकर पर्यावरणविद् सुभाष दत्ता द्वारा दायर जनहित याचिका पर कुछ गाइड लाइन दी गई थी। जिसमें गंगा में प्रतिमा विसर्जन होने के साथ ही स्थानीय निकायों को प्रतिमा को बाहर करना होगा। कुछ पूजा आयोजक खुद से गंगा में प्रतिमा को डूबोने के बाद बाहर निकाल कर किनारे में रख देते हैं जहां से निगम के लोग उसे उठाकर ले जाते हैं। कुछ सामाजिक संगठन भी इस दिशा में कार्य करते हैं। कोलकाता में 16 गंगा घाटों पर दुर्गा व काली प्रतिमाओं का विसर्जन होता है। लेकिन दुख है कि धार्मिक, सामाजिक मान्यताओं व परंपराओं को शासन-प्रशासन अपनी जागीर बनाने की कोशिश कर रहा है। गंगा किनारे धड़ल्ले से चल रही टेनरियों, छपाई कारखानों और रसायन फैक्टियों से आंख मूंदे पड़ा प्रशासन हर साल बस सनातन परम्परा पर हथौड़ा चला कर उसे तोड़ने की कोशिश करते दिखता है। मूर्तियों में प्रयोग होने वाली मिटटी और खपच्ची प्रदूषण रहित वस्तुएं हैं। ऐसी कई वस्तुओं को गंगा अपने प्रवाह में सिल्ट के रूप में बटोरते हुए चलती हैं।
(सुरेश गांधी)




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